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Daily-current-affairs / 25 Dec 2023

भारत में रोजगार संकट, आर्थिक विश्लेषण और नीतिगत सिफारिशें - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख Date : 26/12/2023

प्रासंगिकता- सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 – भारतीय अर्थव्यवस्था

कीवर्डस- – काल्डोर-वर्डून गुणांक, व्यापक आर्थिक नीतिगत ढांचा, रोजगार संकट, कीन्सियन सिद्धांत

संदर्भ:

आधिकारिक आंकड़ों और वर्तमान परिदृश्य दोनों से स्पष्ट है कि भारत लगातार रोजगार संकट से जूझ रहा है। भारत के श्रम बाजार में रोजगार के दो प्राथमिक रूप शामिल हैं: वैतनिक रोजगार, जो नियोक्ताओं के लाभ कमाने की इच्छा से प्रेरित होता है, और स्व-रोजगार। यहां मुख्य चिंता का विषय वैतनिक रोजगार अर्थात् औपचारिक क्षेत्र है जिसमें नियमित वेतन या अपेक्षाकृत बेहतर वेतन वाली नौकरियां शामिल हैं।


श्रम की मांग में कमी के लक्षण:-

ऐतिहासिक रूप से भारत को खुली बेरोजगारी और अनौपचारिक रोजगार के उच्च स्तर का सामना करना पड़ा है जिसे सामान्यतः "प्रच्छन्न बेरोजगारी" कहा जाता है। गैर-कृषि क्षेत्र में वेतनभोगी श्रमिकों की रोजगार में वृद्धि दर पिछले चालीस वर्षों में स्थिर रही है, जिसका मुख्य कारण औपचारिक क्षेत्र में अवसरों की कमी को माना जा सकता है।

  • खुली बेरोजगारी को अनैच्छिक बेरोजगारी के नाम से भी जाना जाता है यह बेरोजगारी का सबसे प्रचलित रूप है। खुली बेरोजगारी उसे कहा जाता है जब कोई व्यक्ति बाजार में प्रचलित मजदूरी की दरों पर काम करना चाहता है लेकिन उसे काम नहीं मिल पाता। भारत के ज़्यादातर औद्योगिक क्षेत्रों में खुली बेरोज़गारी पाई जाती है
  • अनौपचारिक रोजगार का अर्थ है कि ऐसे रोजगार जो बिना किसी लिखित अनुबंध या सामाजिक सुरक्षा के किए जाते हैं। यह रोजगार अक्सर कम वेतन, खराब कामकाजी परिस्थितियों और कम सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है।
  • प्रच्छन्न बेरोजगारी तब होती है जब श्रम बल का एक हिस्सा या तो बेरोजगार होता है या अनावश्यक रूप से कार्य करता है। इसमें कार्यबल की उत्पादकता प्रभावी रूप से शून्य होती है।

श्रम मांग के व्यापक आर्थिक निर्धारक:

औपचारिक गैर-कृषि क्षेत्र में श्रम की मांग दो प्रमुख कारकों से प्रभावित होती है।

  • पहला, यह आर्थिक वृद्धि से जुड़े फर्मों द्वारा बेचे जा सकने वाले उत्पादन पर निर्भर करता है।
  • दूसरा, यह तकनीकी उन्नति से प्रभावित होता है जो किसी इकाई उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमिकों की संख्या को निर्धारित करता है।

उपर्युक्त संदर्भ में नीतियां प्राय: उत्पादन वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करती हैं साथ ही यह विचार करना भी महत्वपूर्ण है कि श्रम उत्पादकता वृद्धि और उत्पादन वृद्धि के बीच प्रत्यक्ष संबंध है।

रोजगार वृद्धि दर दो कारकों की सापेक्ष शक्ति से प्रभावित होती है: उत्पादन वृद्धि दर और श्रम उत्पादकता वृद्धि दर। भारत में, 2000 के दशक में तीव्र जीडीपी वृद्धि दर के बावजूद, औपचारिक गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार वृद्धि दर अप्रभावी रही। इस घटना को "रोजगारविहीन संवृद्धि" कहा जाता है। इस प्रकार उच्च आर्थिक वृद्धि आवश्यक नहीं कि उच्च रोजगार वृद्धि में परिवर्तित हो ।

रोजगारविहीन संवृद्धि: भारतीय विशेषताएं

सामान्यतः अर्थव्यवस्था में वृद्धि के साथ अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है जिससे वे अधिक उत्पादक बन जाती हैं। यद्यपि अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ श्रम-बचत प्रौद्योगिकियों को किस सीमा तक अपनाया जाए यह श्रम की बारगेनिंग शक्ति पर निर्भर करता है। भारत में, उत्पादन वृद्धि दर के प्रति श्रम उत्पादकता वृद्धि दर की उच्च प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप रोजगारहीन वृद्धि का एक अनूठा रूप सामने आता है। इस प्रतिक्रिया की सीमा को इंगित करने वाला काल्डोर-वेरडॉर्न गुणांक अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत के संदर्भ में अधिक सटीक विश्लेषण प्रदान करता है।

काल्डोर-वर्डून गुणांक -

  • श्रम उत्पादकता वृद्धि दर और उत्पादन वृद्धि दर के बीच का संबंध काल्डोर-वर्डून गुणांक में परिलक्षित होता है।
  • भारत के गैर-कृषि क्षेत्र में, यह गुणांक अन्य विकासशील देशों में देखे गए औसत से अधिक है।
  • यह अनूठी विशेषता भारत के लिए विशिष्ट एक प्रकार की रोजगारहीन वृद्धि में योगदान देती है जो उसकी व्यापक आर्थिक नीतिगत चुनौती को अन्य देशों से अलग करती है।

नोट : रोजगारहीन वृद्धि एक आर्थिक स्थिति है जिसमें अर्थव्यवस्था का उत्पादन (जीडीपी) तो बढ़ता है, परंतु उसके सापेक्ष रोजगार वृद्धि बहुत कम होती है। भारत ने पिछले कुछ दशकों में रोजगारहीन वृद्धि का अनुभव किया है। 2000 के दशक में, जीडीपी वृद्धि दर उच्च थी, लेकिन रोजगार वृद्धि दर अपेक्षाकृत कम थी। इसका कारण तकनीकी प्रगति, आर्थिक संरचना में बदलाव तथा वैश्वीकरण का संयोजन था।

भारत में रोजगारविहीन संवृद्धि आर्थिक नीतिगत चुनौती को गुणात्मक रूप से अन्य देशों की तुलना में भिन्न बनाती है। यह केवल उच्च सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के विषय में ही नहीं है बल्कि यह उन विशिष्ट कारकों के बारे में भी है जो उत्पादन वृद्धि और रोजगार वृद्धि के बीच सकारात्मक सहसंबंध में बाधा उत्पन्न करते हैं।
इसी कारण उच्च काल्डोर-वर्डून गुणांक भारत में अन्य विकासशील देशों की तुलना में श्रम उत्पादकता वृद्धि दर व उत्पादन वृद्धि दर के प्रति अधिक संवेदनशील है। इसका अर्थ है कि उत्पादन में वृद्धि के बावजूद श्रम की मांग उसके अनुरूप नहीं बढ़ती है।

व्यापक आर्थिक नीतिगत ढांचा:

कीन्सियन सिद्धांतों पर आधारित पारंपरिक व्यापक आर्थिक ढांचे रोजगार को बढ़ाने में समग्र मांग की भूमिका पर जोर देते हैं। इस अवधारणा में भारत जैसे विकासशील देशों में पूंजीगत वस्तुओं की उपलब्धता जैसी अतिरिक्त बाधाओं पर विचार किया गया है।यद्यपि प्रचलित धारणा यह रही है कि गैर-कृषि क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि रोजगार वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त होगा।

समष्टि अर्थशास्त्र ( macroeconomics )में कीन्सियन सिद्धांत : रोजगार और विकास

कीन्सियन सिद्धांत समष्टि अर्थशास्त्र में व्यापक परिवर्तन का द्योतक बना । इस सिद्धांत ने रोजगार के स्तर के प्राथमिक निर्धारक के रूप में कुल मांग के महत्व पर प्रकाश डाला। पारंपरिक अर्थशास्त्र श्रम बाजार में आपूर्ति और मांग के बीच संतुलन पर ध्यान केंद्रित करता था जबकि कीन्सियन सिद्धांत ने मांग-प्रेरित विकास पर बल दिया।

कीनेसियन सिद्धांत के मुख्य बिंदु:

  • कुल मांग का महत्व: रोजगार का स्तर मुख्य रूप से कुल मांग द्वारा निर्धारित होता है, जिसमें उपभोग, निवेश और सरकारी व्यय सम्मिलित हैं।
  • राजकोषीय नीति का उपयोग: श्रम मांग में वृद्धि और समग्र उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए राजकोषीय नीति का उपयोग किया जा सकता है।
  • सरकारी हस्तक्षेप: सरकार को अर्थव्यवस्था में , विशेष रूप से मंदी के दौरान, सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

रोजगार संकट का समाधान: नीतिगत सिफारिशें और चुनौतियां

भारत की रोजगार चुनौती के लिए क्या जरूरी है?

उपलब्ध आंकडों से स्पष्ट है कि केवल जीडीपी वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं है। भारत में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए जीडीपी वृद्धि के अतिरिक्त रोजगार केंद्रित नीतिगत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

मांग और आपूर्ति को संतुलित करना:

  • कार्यबल की कौशल वृद्धि : बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से कार्यबल की गुणवत्ता में सुधार करना आवश्यक है।
  • कौशल अंतराल को कम करना: लक्षित प्रशिक्षण कार्यक्रमों और उद्योगों के साथ साझेदारी के माध्यम से कौशल अंतराल को कम करना आवश्यक है।
  • सार्वजनिक रोजगार सृजन:श्रम की मांग को प्रोत्साहित करने के लिए प्रत्यक्ष सार्वजनिक रोजगार सृजन पहल लागू करना आवश्यक है।
  • श्रम-गहन क्षेत्रों को बढ़ावा देना:आर्थिक वृद्धि को रोजगार सृजन के साथ सम्बद्ध करने के लिए श्रम-गहन क्षेत्रों को बढ़ावा देना आवश्यक है।

व्यापक आर्थिक पुनर्संरचना:

  • जीडीपी वृद्धि के साथ-साथ रोजगार को केंद्रीय विषय के रूप में शामिल करने के लिए व्यापक आर्थिक ढांचे का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है।
  • रचनात्मक रोजगार एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए समष्टि अर्थशास्त्र -नीति के अधिक कल्पनाशील उपयोग पर विचार करने की आवश्यकता है ।

राजकोषीय नीति समायोजन:

  • कर छूट को कम करके और अनुपालन में सुधार करके सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में प्रत्यक्ष कर बढ़ाना आवश्यक है।
  • ऋण स्थिरता से समझौता किए बिना रोजगार-केंद्रित पहलों का समर्थन करने के लिए नवीन वित्तपोषण तंत्रों का सृजन आवश्यक है।

चुनौतियां और अवसर:

  • राजकोषीय अनुशासन बनाम सार्वजनिक व्यय: वर्तमान में राजकोषीय अनुशासन की अनिवार्यता और बढ़ते सार्वजनिक व्यय की आवश्यकता के बीच संतुलन स्थापित करना एक चुनौती बन गया है।
  • अल्पकालिक रोजगार सृजन बनाम दीर्घकालिक कौशल विकास: निरंतर विकास के लिए तत्काल रोजगार सृजन उपायों को दीर्घकालिक कौशल विकास के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
  • श्रम बाजार में समावेशिता: समावेशी विकास के लिए महत्वपूर्ण है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि रोजगार सृजन से वंचित वर्ग भी लाभान्वित हों ।
  • आर्थिक विकास का समग्र दृष्टिकोण: जीडीपी विस्तार के साथ-साथ रोजगार पर भी विचार करते हुए आर्थिक विकास के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
  • वित्तपोषण में नवाचार: नवीन वित्तपोषण तंत्रों की खोज से राजकोषीय अनुशासन से समझौता किए बिना सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का अवसर प्राप्त होता है ।
  • कौशल विकास के लिए डिजिटल परिवर्तन: कौशल विकास के लिए डिजिटल तकनीकों का उपयोग कार्यबल की रोजगार क्षमता बढ़ा सकता है।

निष्कर्ष:

भारत की बेरोजगारी की समस्या का समाधान एक जटिल कार्य है, लेकिन सतत विकास के लिए यह आवश्यक है। मांग और आपूर्ति के दोनों पक्षों को संबोधित करते हुए व्यापक नीतिगत दृष्टिकोण अपनाना, कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करना और समावेशिता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण कदम हैं। नवीन वित्तपोषण तंत्रों और डिजिटल तकनीकों को अपनाने से इस चुनौती से निपटने में मदद मिल सकती है।
साथ ही बढ़े हुए सार्वजनिक व्यय के साथ राजकोषीय अनुशासन को संतुलित करना, अल्पकालिक रोजगार सृजन और दीर्घकालिक कौशल विकास दोनों को प्राथमिकता देना और श्रम बाजार में समावेशिता सुनिश्चित करना परिवर्तनकारी बदलाव की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। अंततः, नवीन समाधानों को अपनाकर और व्यापक आर्थिक नीति ढांचे की पुनर्कल्पना करके, भारत रोजगारहीन वृद्धि की चुनौतियों का समाधान कर सकता है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  1. भारतीय विशेषताओं के साथ बताइए कि "रोजगारहीन वृद्धि" क्या है, और काल्डोर-वरडॉर्न गुणांक इस घटना को समझने में कैसे भूमिका निभाता है? भारत की व्यापक आर्थिक नीति के समक्ष उत्पन्न विशिष्ट चुनौतियों पर चर्चा कीजिए और औपचारिक गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार संकट को दूर करने के लिए उपाय सुझाइए। (10 अंक, 150 शब्द)
  2. भारत की रोजगार चुनौतियों से निपटने में पारंपरिक कीनेसियन व्यापक आर्थिक ढांचे की प्रभावशीलता का आकलन कीजिए। औपचारिक गैर-कृषि क्षेत्र में लगातार नौकरियों के संकट से निपटने के लिए केवल उत्पादन वृद्धि पर निर्भर रहने की सीमाओं पर प्रकाश डालिए। साथ ही मांग-पक्ष और आपूर्ति-पक्ष दोनों उपायों को शामिल करते हुए संक्षिप्त नीतिगत सुझाव भी दीजिए । (15 अंक, 250 शब्द)

Source- The Hindu



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