तारीख (Date): 04-09-2023
प्रासंगिकता: जीएस पेपर 2 - शासन - आरटीआई
की-वर्ड: 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, 2023 का डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2019 का सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम
सन्दर्भ:
- लोक कल्याणकारी राज्य की जवाबदेह कार्यप्रणाली, उसकीकार्यविधियों में पारदर्शिता सूचना तंत्र का एक महत्वपूर्ण कारक है। लोकतंत्र में राज्य की जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु सूचना का प्रकटन एक महत्वपूर्ण अधिकार बतौर अधिनियमित हुआ है।
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 प्रत्येक लोक प्राधिकारी की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के संवर्धन लोक प्राधिकारियों के नियंत्रणाधीन सूचना तक पहुंच सुनिश्चित करने, नागरिकों के सूचना के अधिकार के व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करने, केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग का गठन करने और उनसे संबंधित या उनसे आनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिये है ।
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 सरकारी सूचना के लिए नागरिकों के अनुरोध पर समयबद्ध रूप से उत्तर देने का अधिदेश करता है।
- यह कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग, कार्मिक लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई एक पहल है।
- नागरिकों को सशक्त बनाने, सरकार के कामकाज में जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए 2005 में संसद द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम लागू किया गया था।'
एतिहासिक पृष्ठभूमि:
- सूचना के अधिकार को मुख्यतया वर्ष 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अपनाने के साथ महत्व मिला। इसने प्रत्येक व्यक्ति को सीमाओं की परवाह किए बिना, किसी भी माध्यम से जानकारी और विचारों को प्राप्त करने का अंतर्निहित अधिकार प्रदान किया।
- वर्ष 1966 में, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध ने इस सिद्धांत को सुदृढ़ करते हुए इस बात की पुष्टि भी की है, कि प्रत्येक मनुष्य के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, जिसमें सभी प्रकार की जानकारी को प्राप्त करने और उसे व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी शामिल है।
- अमेरिकी व्यक्ति थॉमस जेफरसन ने लोकतांत्रिक समाज में सूचना के अधिकार की महत्ता पर जोर देते हुए कहा कि "सूचना लोकतंत्र की जीवनधारा है।" यह नागरिक समाज के विकास और जीवन शक्ति के लिए आवश्यक है।
- यद्यपि, नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार के रूप में सूचना तक पहुँचने के लिए एक व्यावहारिक ढाँचा स्थापित करने के लिए, भारतीय संसद ने 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम लागू किया था।
- भारत के आरटीआई कानून की उत्पत्ति की नींव का पता 1986 के उस मामले से लगाया जा सकता है, जब सुप्रीम कोर्ट ने श्री कुलवाल बनाम जयपुर नगर निगम के मामले में एक फैसला देकर निर्देश दिया कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में स्वाभाविक रूप से सूचना का अधिकार शामिल है।
- यह मान्यता इस समझ पर आधारित थी कि सूचना तक पहुंच के बिना, नागरिकों द्वारा बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग अधूरा रहेगा।
आरटीआई अधिनियम में संशोधन:
- पिछले कुछ वर्षों में आरटीआई अधिनियम में कई महत्वपूर्ण संशोधन हुए हैं। इसमें से एक 2023 का डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम मुख्य है, जिसने व्यक्तिगत डेटा प्रकटीकरण पर प्रतिबंध को पूर्ण प्रतिबंध में बदल दिया, परिणामतः राशन वितरण जैसे कार्यों में सामाजिक ऑडिट में संभावित बाधा उत्पन्न हुई।
- इसके अतिरिक्त, सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019, ने केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों की नियुक्ति और मुआवजे पर एकतरफा अधिकार प्रदान किया।
आरटीआई अधिनियम की कमियाँ:
- विधायी परिवर्तनों के अलावा, आरटीआई अधिनियम की प्रभावशीलता कई मायनों में नगण्य सी प्रतीत होती है।
- अधिनियम का कार्यान्वयन केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा निर्धारित अधीनस्थ नियमों पर निर्भर करता है। कुछ राज्य, जैसे कि तमिलनाडु, एक सुविधाजनक भुगतान पद्धति, भारतीय पोस्टल ऑर्डर (आईपीओ) को स्वीकार नहीं करते हैं।
- केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सूचना आयोगों में धीमी नियुक्तियों ने आरटीआई ढांचे में विश्वास को कम कर दिया है। उदाहरण के लिए, झारखंड राज्य सूचना आयोग में मई 2020 से आयुक्तों की रिक्तियां है, जिससे अप्रभावी आरटीआई प्रशासन के खिलाफ अपील रुक गई है।
ऑनलाइन आरटीआई:
- ऑनलाइन आरटीआई आवेदनों की शुरूआत ने नागरिकों के लिए सुचना तंत्र की प्रक्रिया को सरल बना दिया है, जिससे असामान्य वित्तीय साधनों की आवश्यकता समाप्त हो गई है।
- हालाँकि, कई राज्यों में ऑनलाइन आरटीआई पोर्टलों का अभी भी अभाव है, और जहां वे मौजूद भी हैं, कुछ सरकारी निकाय इन प्लेटफार्मों पर पंजीकृत नहीं हो सकते हैं।
- 2013 में लॉन्च किए गए केंद्र सरकार के आरटीआई पोर्टल को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है जैसे: पिछले एप्लिकेशन डेटा का गायब होना, उपयोगकर्ता खाते बनाने की सुविधा को हटाना आदि।
सार्वजनिक असंतोष:
- RTI को लेकर जमीनी स्तर पर असंतोष की भावना बढ़ रही है। प्राथमिक अपीलें अधिकतम रूप से दायर की जा रही हैं, जो सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा प्रदान की गई जानकारी के प्रति बढ़ते असंतोष का संकेतक हैं।
- व्हिसिलब्लोअर सहित प्रमुख हितधारकों का आरटीआई प्रक्रिया के प्रति उत्साह क्षीण होता जा रहा है, यह अधिनियम की प्रभावशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
- यह असंतोष न केवल आरटीआई अधिनियम में बदलाव के कारण है, बल्कि विभिन्न सरकारी संस्थान अपनी जिम्मेदारियों को कैसे निभाते हैं, उससे भी बढ़ा है।
- सुलभता से अनुरोध दायर करने के रास्ते कम होने और अपीलीय निकायों में कर्मचारियों की कमी के कारण अपील करने में होने वाली देरी ने इन चिंताओं का एक मुख्य कारण हो सकती है।
अन्य चुनौतियाँ:
1. नौकरशाही प्रवृत्ति: आरटीआई प्रश्नों के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण का कारण अक्सर तुच्छ या दुर्भावनापूर्ण पूछताछ का प्रचलन बताया जाता है। हालाँकि, यह ध्यान रखना आवश्यक है, कि इस तरह के प्रश्न सभी अपीलों के केवल लगभग 4 प्रतिशत ही होते हैं और इन्हें आसानी से समाप्त किया जा सकता है।
2. राज्य सूचना आयोगों की समस्या: राज्य सूचना आयोगों में कई समस्याएं व्याप्त हैं जैसे:
- रिक्तियां अधूरी रह गई हैं।
- कुछ आयोग बिना नियुक्ति के संचालित होते आ रहे हैं।
- "असुविधाजनक" जानकारी को साझा करने की अनिच्छा।
3. जन सूचना अधिकारियों (पीआईओ) के साथ समस्याएं: कुछ मामलों में पीआईओ अनुचित व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश में एक सूचना आयुक्त को एक पीआईओ के लिए गिरफ्तारी वारंट जारी करना पड़ा, जिसने आयोग की सुनवाई में उपस्थित होने के लिए 38 सम्मनों को बार-बार नजरअंदाज किया और यह एसआईसी के आदेशों का पालन करने में विफल रहा।
4. पीआईओ में जानकारी की कमी: गंभीर आरटीआई पूछताछ में, विशेष रूप से कई सरकारी विभागों से सम्बंधित, अक्सर उच्च-रैंकिंग अधिकारियों की भागीदारी की आवश्यकता होती है। यद्यपि, आम तौर पर कनिष्ठ स्तर के पीआईओ ही सुनवाई में भाग लेते हैं और उनमें अक्सर आवश्यक ज्ञान का अभाव होता है। इन कनिष्ठ अधिकारियों को अक्सर आयोग की जांच का खामियाजा भुगतना पड़ता है और उन्हें दंड का सामना करना पड़ सकता है।
5. गैर-जवाबदेहिता: सरकारी विभाग अक्सर दोषी पीआईओ के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने में लापरवाही बरतते हैं। इस तरह का उदासीन रवैया आरटीआई शासन के लिए एक चुनौती है।
6. आचार संहिता: कुछ आयुक्तों द्वारा खुलेआम अपनी राजनीतिक संबद्धता व्यक्त करना चिंता का विषय है, क्योंकि इससे उनकी निष्पक्षता और निष्पक्षता पर सवाल उठ सकते हैं।
7. कानूनी बाधाएं: कई आरटीआई मामले लंबी न्यायिक प्रक्रियाओं में उलझ जाते हैं। उच्च न्यायालय अक्सर सूचना आयोगों द्वारा लिए गए निर्णयों पर स्थगन आदेश जारी करते हैं, भले ही आरटीआई अधिनियम स्पष्ट रूप से सूचना आयोगों को अंतिम अपीलीय प्राधिकारी के रूप में नामित करता है। अपीलें कभी-कभी उच्च न्यायालयों से राहत पाने के लिए रिट याचिकाओं के रूप में जारी कर दी जाती हैं।
अग्रगामी रणनीति:
- अन्य राज्य सरकारों को राजस्थान सरकार की तरह जन सूचना पोर्टल की पहल का अनुसरण करना चाहिए, जिसका उद्देश्य हाशिए पर रहने वाले वर्गों सहित सभी लोगों को शासन प्रक्रिया में शामिल करना है।
- केंद्र और राज्यों को राज्य और केंद्रीय सूचना आयोगों में रिक्तियों को भरने में गति लानी चाहिए।
- सार्वजनिक प्राधिकारियों को सरकारी पोर्टलों पर अधिक से अधिक स्वैच्छिक प्रसार प्रदान करने की सलाह दी जानी चाहिए, जिससे उनका भार कुछ कम हो जाएगा।
- आरटीआई शासन के विकास के लिए एक मजबूत राजनीतिक व्यवस्था जरूरी है।
- भारतीय सूचना कानून, जिसे वैश्विक स्तर पर सबसे मजबूत कानूनों में से एक माना जाता है, को लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाकर और सरकारी अधिकारियों के लिए कठोर प्रशिक्षण आयोजित करके दृढ़ करने की जरूरत है।
- केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों के लिए एक संयुक्त आचार संहिता विकसित की जानी चाहिए।
- आयुक्तों के लिए सरकारी प्रमुखों और अधिकारी वर्ग से सख्त दूरी बनाए रखना अनिवार्य है।
- बड़े पैमाने पर लोगों और राष्ट्र के हित में, प्रेस और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना, दोषी अधिकारियों को दंडित करना और सूचना आयोगों की पूर्ण स्वायत्तता बनाए रखना अनिवार्य है।
निष्कर्ष:
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 पारदर्शिता को बढ़ावा देने में एक केंद्र सरकार का एक अतुलनीय प्रयास रहा है, यद्यपि विधायी संशोधनों, नौकरशाही चुनौतियों और ऑनलाइन पोर्टलों के मुद्दों के कारण वर्तमान में इसकी प्रभावशीलता खतरे में है।
- नागरिकों को सशक्त बनाने और सार्वजनिक अधिकारियों को उत्तरदायी बनाने में इसकी निरंतर सफलता, इन चिंताओं को दूर कर सकती है और अधिनियम के कार्यान्वयन को सशक्त कर सकती है। क्योंकि, सूचना का अधिकार अधिनियम का मूल उद्देश्य नागरिकों को सशक्त बनाने, सरकार के कार्य में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना और वास्तविक अर्थों में हमारे लोकतंत्र को लोगों के लिए कामयाब बनाना है।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:
- प्रश्न 1. भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ और बाधाएँ क्या हैं, और वे सरकार में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने में अधिनियम की प्रभावशीलता को कैसे प्रभावित करते हैं ? (10 अंक, 150 शब्द)
- प्रश्न 2. आरटीआई अधिनियम में हाल के संशोधनों, जैसे कि डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम 2023 और सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2019 ने भारत में सूचना तक पहुंच के अधिकार को कैसे प्रभावित किया है, और इनके संबंध में क्या चिंताएं उठाई गई हैं परिवर्तन? (15 अंक, 250 शब्द)
स्रोत : दि हिन्दू