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Daily-current-affairs / 05 Sep 2023

बुनियादी संरचना का सिद्धांत - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख (Date): 06-09-2023

प्रासंगिकता: जीएस पेपर 2- राजव्यवस्था - संविधान

की-वर्ड: केशवानंद भारती वाद , संवैधानिक सर्वोच्चता, शक्ति पृथक्करण, संविधानवाद के सिद्धांत

सन्दर्भ:

हाल ही में, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गंगोई ने राज्यसभा में कहा कि संविधान की मूल संरचना में "बहस योग्य न्यायशास्त्रीय आधार" है।

बुनियादी संरचना का सिद्धांत क्या है?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती वाद में 1973 के अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह निर्धारित किया कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन इसके मौलिक सिद्धांतों या बुनियादी संरचनाओं को संशोधित नहीं किया जा सकता है।
  • इस निर्णय ने व्यापक संशोधनों को लागू करने की संसद की शक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • इस ऐतिहासिक निर्णय ने संसदीय कानूनों को न्यायिक समीक्षा के अधीन करने के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार की पुष्टि की। इसके अतिरिक्त, इसने सरकार के तीनों अंगों: विधायी, कार्यकारी और न्यायपालिका के मध्य शक्तियों के पृथक्करण की धारणा को आगे बढ़ाया।
  • बुनियादी संरचना का सिद्धांत यह निर्धारित करता है कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति एक ही शर्त से बाधित है वह यह है की संसद संविधान के मौलिक ढांचे को बदल नहीं सकती है।

बुनियादी संरचना के सिद्धांत की उत्पत्ति

बुनियादी संरचना सिद्धांत के विकास का सम्बन्ध संपत्ति के अधिकार के मुद्दे और प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 से है।

  • 1951 में शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 368 के अनुसार, संसद के पास मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने का अधिकार है।
  • 1965 में सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने 1951 के शंकरी प्रसाद वाद के अपने पिछले निर्णय को बरकरार रखा, यह पुष्टि करते हुए कि संसद वास्तव में अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। फिर भी, ध्यान देने योग्य बात यह है कि, जस्टिस हिदायतुल्ला और मुधोलकर ने बहुमत की राय से असहमति जताते हुए संविधान में संशोधन करने और संभावित रूप से नागरिकों के मौलिक अधिकारों में कटौती करने की संसद की अप्रतिबंधित शक्ति के बारे में आपत्ति व्यक्त की।
  • 1967 में गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने शंकरी प्रसाद के निर्णय को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि अनुच्छेद 368 पूरी तरह से संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को चित्रित करता है और संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के लिए अप्रतिबंधित अधिकार नहीं देता है।
  • 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा। हालाँकि, इसने गोलक नाथ वाद के निर्णय को संशोधित करते हुए फैसला सुनाया कि संसद के पास संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि संविधान का मौलिक ढांचा, जिसे "बुनियादी संरचना" के रूप में जाना जाता है, बरकरार रहे। यह वाद "संविधान की बुनियादी संरचना" की अवधारणा को प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध है।
  • 1975 में इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान की बुनियादी संरचना के सिद्धांत की पुनः पुष्टि की गई और उसे लागू किया गया। साथ ही 39वें संशोधन अधिनियम (1975) के उस प्रावधान को अमान्य कर दिया, जिसमें प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष से जुड़े चुनावी विवादों को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया था।
  • 42वां संशोधन अधिनियम (1976), संविधान शंसोधन की संसद की शक्ति की कोई सीमा नही है और किसी भी आधार पर किसी भी संशोधन पर किसी भी न्यायालय में इसे प्रश्नगत नही किया जा सकता।
  • 1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के कुछ प्रावधानों को अमान्य घोषित कर दिया। न्यायालय के फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि संसद "न्यायिक समीक्षा" के अधिकार को सीमित नहीं सकती क्योंकि यह संविधान की "बुनियादी संरचना" का एक अभिन्न अंग है।
  • 1981 में वामन राव बनाम भारत संघ वाद में, अदालत ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ प्रॉस्पेक्टिव ओवररूलिंग' की अवधारणा प्रस्तुत की। इसने निर्धारित किया कि केशवानंद फैसले से पहले नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए चुनौती नहीं दी जा सकती। हालाँकि, इसने केशवानंद के फैसले के बाद बनाए गए कानूनों को अदालत में चुनौती देने की अनुमति प्रदान की है।

बुनियादी संरचना सिद्धांत के तत्व

यद्यपि बुनियादी संरचना के सिद्धांत को स्पष्ट रूप से रेखांकित नहीं किया गया है, इसे संविधान के ढांचे को रेखांकित करते हुए न्यायिक निर्णयों द्वारा स्पष्ट किया गया है। समय के साथ, नए प्रावधानों के शामिल होने से यह बुनियादी संरचना विकसित हुई है। परिणामतः, संविधान की मूल संरचना की सटीक परिभाषा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नही दी गई है । यद्यपि इसमें निम्नवत प्रावधानों को शामिल किया गया है:

  • संविधान की सर्वोच्चता,
  • कानून का शासन,
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता,
  • शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत,
  • संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य,
  • सरकार की संसदीय प्रणाली,
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का सिद्धांत,
  • कल्याणकारी राज्य, आदि।

बुनियादी संरचना सिद्धांत का महत्व:

  • संवैधानिक आदर्शों को कायम रखना: मूल संरचना सिद्धांत का उद्देश्य संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित संवैधानिक सिद्धांतों और मौलिक आदर्शों को संरक्षित करना है।
  • संवैधानिक सर्वोच्चता की रक्षा करता है: यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि संविधान सर्वोच्च बना रहे और संसद में अस्थायी बहुमत से कमजोर न हो।
  • शक्तियों के पृथक्करण को संरक्षित करता है: मूल संरचना सिद्धांत शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण स्थापित करके, सरकार के अन्य अंगों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करके लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करता है। ग्रानविले ऑस्टिन का तर्क है कि बुनियादी संरचना सिद्धांत के माध्यम से, भारतीय संविधान के जटिल ढांचे की सुरक्षा में संसद और सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारियों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बनाया गया है।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है: यह विधायी शाखा द्वारा सत्ता के मनमाने प्रयोग और अधिनायकवाद के खिलाफ सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जिससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा होती है।
  • एक जीवित दस्तावेज़ के रूप में संविधान: अपनी गतिशील प्रकृति के कारण, यह सिद्धांत संविधान को समय के साथ परिवर्तनों के प्रति अधिक अनुकूलनीय और ग्रहणशील बनाता है,जिससे इसे एक जीवित दस्तावेज़ के रूप में विकसित होने की अनुमति मिलती है।

बुनियादी संरचना सिद्धांत संवैधानिकता के सिद्धांतों के लिए एक प्रमाण के रूप में स्थापित है, जो भारी सत्तारूढ़ बहुमत द्वारा संविधान के मूल सार के क्षरण के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में कार्य करता है। इस सिद्धांत ने संसद की शक्ति को संतुलित कर के भारतीय लोकतंत्र को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके बिना, संसद का अनियंत्रित अधिकार भारत को अधिनायकवाद के रास्ते पर ले जा सकता था।

बुनियादी संरचना के सिद्धांत की आलोचनाएँ

  • शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के साथ असंगत: यह सिद्धांत, नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को बाधित करके शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमजोर करता है क्योंकि न्यायपालिका की भूमिका संवैधानिक संशोधनों को दोबारा लिखने के बजाय समीक्षा करने की होनी चाहिए।
  • बुनियादी संरचना की अस्पष्टता: बुनियादी संरचना के लिए एक सटीक परिभाषा का आभाव इसे अस्पष्टता की ओर ले जाता है, जिससे इसके घटकों को स्पष्ट रूप से पहचानना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • न्यायपालिका को एक निर्णायक सदन में बदलना: मूल संरचना सिद्धांत के प्रतिपादन से यह आभास हो सकता है कि न्यायपालिका तीसरे विधायी कक्ष की भूमिका निभाती है, जिससे संभावित रूप से संसद के काम का महत्व कम हो जाता है।
  • न्यायिक अतिरेक की चिंताएँ: हाल ही में, इस सिद्धांत को उन मामलों में अपनाया गया है जिन्हें कुछ लोग न्यायिक अतिरेक के उदाहरण के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, 2014 के राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को इस सिद्धांत के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था, जिससे न्यायिक अधिकार की सीमा के बारे में बहस छिड़ गई।

न्यायिक सक्रियता

  • न्यायिक सक्रियता एक न्यायिक दर्शन है जो यह मानता है कि न्यायपालिका अपने निर्णयों के व्यापक सामाजिक निहितार्थों पर विचार करने के लिए वर्तमान विधियों से परे जा सकती हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए।
  • उदाहरण: केशवानंद भारती मामला, मेनका गांधी मामला
  • पीआईएल, हाल के दिनों में न्यायिक सक्रियता को प्रभावी बनाने का प्रमुख साधन बन गया है

न्यायिक अतिरेक

  • कार्यपालिका और विधायिका के कामकाज में हस्तक्षेप करने के लिए न्यायिक शक्तियों का उपयोग करना।
  • उदाहरण: पटाखों पर प्रतिबंध, और राजमार्गों के पास बार की अनुमति देने से संबंधित नियम बनाना

न्यायिक समीक्षा

  • न्यायिक समीक्षा सरकार की विधायी और कार्यकारी शाखाओं के कृत्यों की वैधता निर्धारित करने की न्यायपालिका की शक्ति है। न्यायालयों को अनुच्छेद 13(2), अनुच्छेद 32, और अनुच्छेद 142 के तहत अपनी न्यायिक समीक्षा के लिए शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
  • उदाहरण: आईटी अधिनियम की धारा 66ए को ख़त्म करना।

निष्कर्ष

ऐसी दुनिया में जहां लोकतांत्रिक मूल्यों को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, बुनियादी संरचना सिद्धांत आशा की किरण बना हुआ है, जो भारत के संविधान में निहित स्थायी सिद्धांतों का प्रतीक है। इसके घटकों और सीमाओं पर एक मजबूत बहस गहन चिंतन और भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार की पुन: पुष्टि को आमंत्रित करती है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न-

  • प्रश्न 1. मूल संरचना सिद्धांत क्या है? यह संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने और भारतीय संविधान की सुरक्षा के संदर्भ में इसका क्या महत्व है? (10 अंक, 150 शब्द)
  • प्रश्न 2. मूल संरचना सिद्धांत को लेकर कौन सी आलोचनाएँ और चिंताएँ हैं, जिनमें शक्तियों के पृथक्करण को चुनौती देने की क्षमता, मूल संरचना को परिभाषित करने में अस्पष्टता और कथित न्यायिक अतिरेक के उदाहरण शामिल हैं? (15 अंक,250 शब्द)

Source- The Indian Express