तारीख (Date): 21-07-2023
प्रासंगिकता: जीएस पेपर 2: भारत से जुड़े समूह और समझौते और और भारतीय हित ।
की-वर्ड: मध्यस्थता न्यायालय, स्थायी सिंधु आयोग (पीआईसी), किशनगंगा जलविद्युत परियोजना, विश्व बैंक
सन्दर्भ:
- भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संसाधनों के वितरण को नियंत्रित करने वाली, 1960 की सिंधु जल संधि (IWT) को ऐतिहासिक रूप से विवादास्पद पड़ोसियों के बीच सहयोग के एक प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है।
- हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में बदलती जल मांगों और जलवायु चुनौतियों का समाधान करने के लिए संधि की अनुकूलन क्षमता पर सवाल उठाए गये हैं । सतत जल प्रबंधन सुनिश्चित करने तथा भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कम करने के लिए सिंधु जल संधि (IWT) में न्यायसंगत और उचित उपयोग (ईआरयू) और कोई नुकसान नहीं नियम (एनएचआर) को शामिल करने की आवश्यकतापर बल दिया गया है ।
सिंधु जल संधि क्या है?
सिंधु जल संधि (IWT) भारत और पाकिस्तान के बीच एक समझौता है जिस पर 19 सितंबर, 1960 को दोनों देशों ने विश्व बैंक के साथ हस्ताक्षर किए थे। संधि का उद्देश्य दोनों देशों के बीच सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी के सहकारी उपयोग और प्रबंधन के लिए एक रूपरेखा प्रदान करना है।
सिंधु जल संधि के प्रमुख प्रावधान:
- जल बंटवारा: यह संधि, सिंधु नदी प्रणाली की छह नदियों को दो समूहों में विभाजित करती है। इस संधि के अंतर्गत तीन पश्चिमी नदियाँ, अर्थात् सिंधु, चिनाब और झेलम, पाकिस्तान को आवंटित की जाती हैं,पाकिस्तान इन तिन नदियों के पानी का अप्रतिबंधित उपयोगकर सकता है जबकि, तीन पूर्वी नदियाँ, रावी, ब्यास और सतलज, भारत को आवंटित की जाती हैं जिसके पानी का भारत अप्रतिबंधित उपयोगकर सकता है। इस प्रकार इस संधि में पूर्वी नदियों का औसत 33 मिलियन एकड़ फुट जल पूरी तरह इस्तेमाल के लिए भारत को दे दिया गया और पश्चिमी नदियों का क़रीब 135 मिलियन एकड़ फुट पानी पाकिस्तान को दिया गया इसका मतलब यह है कि पानी का 20% हिस्सा भारत को दिया गया और 80% पाकिस्तान को दिया गया ।
- स्थायी सिंधु आयोग: संधि भारत और पाकिस्तान दोनों के स्थायी आयुक्तों के साथ एक स्थायी सिंधु आयोग (पीआईसी) की स्थापना का आदेश देती है। पीआईसी संधि के कार्यान्वयन से संबंधित सहयोग, डेटा विनिमय और विवाद समाधान की सुविधा के लिए जिम्मेदार है। आयोग को वर्ष में कम से कम एक बार बैठक आवश्य करनी होती है।
- नदियों पर अधिकार: जबकि पाकिस्तान का झेलम, चिनाब और सिंधु के पानी पर अधिकार है, भारत को इन नदियों के पानी का सीमित रूप में कृषि उपयोग की अनुमति है। इसके अतिरिक्त, भारत को संधि के अनुबंध डी के तहत "रन-ऑफ-द-रिवर" जलविद्युत परियोजनाएं ( जिनमें जल भंडारण की आवश्यकता नहींहोती है ) बनाने की अनुमति है।
- विवाद समाधान तंत्र: सिंधु जल संधि तीन-चरणीय विवाद समाधान तंत्र प्रदान करति है। इसमें किसी भी प्रश्न या मतभेद की स्थिति में मामले को स्थायी सिंधु आयोग के माध्यम से हल किया जा सकता है। यदि यदि विवाद का समाधान नही होता है, तो कोई भी देश एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त करने के लिए विश्व बैंक से संपर्क कर सकता है। यदि तटस्थ विशेषज्ञ के निर्णय के बाद भी विवाद बना रहता है, तो मामले को मध्यस्थता न्यायालय में भेजा जा सकता है।
सिंधु जल संधि की आलोचना:
वर्षों से, इस संधि को सबसे सफल सीमा पार जल विवाद समझौतों में से एक के रूप में देखा गया है। हालाँकि, इसके कार्यान्वयन में कई आलोचनाएँ और चुनौतियाँ रही हैं:
- तकनीकी जटिलता: संधि के प्रावधान अत्यधिक तकनीकी प्रकृति के हैं, जिससे दोनों देशों के बीच अलग-अलग व्याख्याएं और भ्रम उत्पन्न होते हैं।
- क्षेत्रीय विवाद: पाकिस्तान को आवंटित पश्चिमी नदियाँ जम्मू और कश्मीर के विवादित क्षेत्र में स्थित हैं, जो आज़ादी के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का स्रोत रही है। इससे जल बंटवारे का मसला जटिल हो गया है.
वर्तमान घटनाक्रम और संधि पर भारत का रुख :
- जनवरी 2023 में, भारत सरकार ने सिंधु जल संधि को संशोधित करने की अपनी मंशा के बारे में पाकिस्तान को सूचित किया। भारत का निर्णय जम्मू और कश्मीर में दो भारतीय जलविद्युत परियोजनाओं यथा झेलम नदी पर किशनगंगा जलविद्युत परियोजना और चिनाब नदी पर रतले जलविद्युत परियोजना की स्थापना पर पाकिस्तान की आपत्तियों से प्रेरित था।
- भारत का तर्क है कि ये परियोजनाएं उचित जल उपयोग पर संधि के प्रावधानों का अनुपालन करती हैं, लेकिन पाकिस्तान का रुख स्थायी सिंधु आयोग के द्विपक्षीय तंत्र के माध्यम से मामले को सुलझाने में असहयोगात्मक रहा है।
- परिणामस्वरूप, विश्व बैंक ने दोनों पक्षों का तर्क सुनने के लिए एक तटस्थ विशेषज्ञ और बाद में मध्यस्थता न्यायालय की नियुक्ति की। भारत ने तटस्थ विशेषज्ञ के साथ सुनवाई में भाग लिया लेकिन विवाद समाधान के चरणों के अनुक्रम से असहमत होकर मध्यस्थता न्यायालय के बहिष्कार का निर्णय लिया ।
बढ़ते जलवायु संकट के बीच दोनों देशों की चुनौतियों और मांगों को संबोधित करने के लिए, कुछ तकनीकी विशिष्टताओं को अद्यतन करने और समझौते के दायरे का विस्तार करने की आवश्यकता है। संधि की शर्तों पर फिर से बातचीत करने से वर्तमान चिंताओं को दूर करने और जल प्रबंधन पर भारत और पाकिस्तान के बीच बेहतर सहयोग को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।
बढ़ता विवाद और संधि के पुनरीक्षण की आवश्यकता
सिंधु जल संधि ने पिछले दशक में कई मध्यस्थता मामले देखे हैं, जो संधि के प्रावधानों की समीक्षा करने की आवश्यकता का संकेत देते हैं। किशनगंगा और रतले पनबिजली परियोजनाओं से जुड़े हालिया मामले ने मध्यस्थता न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर भारत की आपत्तियों को जन्म दिया। इस प्रकार संधि में उभरती वर्तमान चुनौतियों से निपटने के लिए संधि में उन्नत तंत्र की आवश्यकता स्पष्ट है।
निश्चित आवंटन की सीमाएँ
सिंधु जल संधि, जल संसाधनों का निश्चित आवंटन बदलती जलवायु परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार नहीं है, जिससे औद्योगिक और कृषि जल आवश्यकताओं को पूरा करने में चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की उपलब्धता में उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए भविष्य की परिस्थितियों के अनुकूल होने के लिए अधिक लचीले दृष्टिकोण की आवश्यक है।
बेसिन दृष्टिकोण को अपनाना
भारत और पाकिस्तान के बीच नदियों का विभाजन संपूर्ण नदी बेसिन को एक एकीकृत इकाई मानने की अवधारणा का खंडन करता है। स्थायी संसाधन क्षमता का निर्माण करने के लिए, सिंधु जल संधि को एक बेसिन-व्यापी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करना चाहिए जो दोनों देशों के लिए पानी के उपयोग को अनुकूलित कर सकता है ।
न्यायसंगत और उचित उपयोग (ईआरयू) और कोई नुकसान नहीं नियम (एनएचआर)
उचित और तर्कसंगत जल उपयोग को बढ़ावा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय जलधारा कानून से ईआरयू और एनएचआर सिद्धांतों को आईडब्ल्यूटी में शामिल करना महत्वपूर्ण है। ईआरयू जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों पर विचार करता है और प्रतिस्पर्धी हितों को संतुलित करना चाहता है, जबकि एनएचआर तटवर्ती राज्यों को साझा जलधाराओं पर परियोजनाएं शुरू करते समय एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए बाध्य करता है।
प्राथमिकताओं को संतुलित करना
भारत और पाकिस्तान सिंधु जल संधि की अपनी व्याख्याओं के आधार पर जल संसाधनों के उपयोग को प्राथमिकता देते हैं। संधि में ईआरयू और एनएचआर सिद्धांतों को शामिल करके, एक आम समझ बनाई जा सकती है और जिससे पानी का उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता इससे दोनों देशों को लाभ होगा ।
विश्व बैंक की भूमिका
सिंधु जल संधि के एक पक्ष के रूप में, विश्व बैंक सिंधु जल के उपयोग पर केंद्रित समुदायों को एक साथ लाकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की सुविधा प्रदान कर सकता है। विशेषज्ञों के बीच सहयोग से अभिसरण राज्य नीतियों और अंततः संधि में ईआरयू और एनएचआर को शामिल किया जा सकता है।
सतत सहयोग की ओर
ईआरयू और एनएचआर सिद्धांतों को शामिल करने के लिए सिंधु जल संधि पर दोबारा विचार करना भारत और पाकिस्तान के बीच जल चुनौतियों से निपटने के लिए एक आवश्यक कदम है। न्यायसंगत जल उपयोग को बढ़ावा देकर और सीमापार हानि को रोककर, अधिक टिकाऊ और सहकारी संबंधों को बढ़ावा देकर तनाव को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष
सिंधु जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच सहयोग का एक सराहनीय उदाहरण रही है, लेकिन बदलती परिस्थितियाँ इसके प्रावधानों के पुनर्मूल्यांकन की माँग करती हैं। न्यायसंगत एवं उचित उपयोग और कोई नुकसान न करने के नियम के सिद्धांतों को शामिल करके, संधि स्थायी जल प्रबंधन और दोनों पड़ोसियों के बीच विश्वास को बढ़ावा देने के साथ-साथ दोनों देशों की बढ़ती औद्योगिक और कृषि जरूरतों को पूरा करने के लिए एक सुदृढ़ तंत्र विकसित कर सकती है।
मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:
- प्रश्न 1. सिंधु जल संधि (IWT) के प्रमुख प्रावधानों और भारत-पाकिस्तान सहयोग को बढ़ावा देने में इसके महत्व की व्याख्या कीजिये , साथ ही सतत जल प्रबंधन के लिए ईआरयू और एनएचआर को शामिल करने की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये । (10 अंक, 150 शब्द)
- प्रश्न 2. बदलती जल माँगों को संबोधित करने में सिंधु जल संधि (IWT) की आलोचनाओं और इसकी सीमाओं का विश्लेषण करें। बेसिन-व्यापी दृष्टिकोण, ईआरयू और एनएचआर के सिद्धांतों सहित बेहतर सहयोग को बढ़ावा देने के लिए सुझाव भी दीजिये । (15 अंक, 250 शब्द)
Source: The Hindu