तारीख (Date): 19-08-2023
प्रासंगिकता: जीएस पेपर 3 - भारतीय अर्थव्यवस्था
की-वर्ड: आईएमएफ, जीडीपी, मनरेगा, जेडीपी
सन्दर्भ:
अविश्वास प्रस्ताव पर हाल की संसदीय बहस भारत की आर्थिक वृद्धि पर केंद्रित थी, जिसमें केंद्रीय वित्त मंत्री ने देश की दोहरे अंकों की जीडीपी वृद्धि और दुनिया की सबसे तेजी से बढती भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रशंसा की। उन्होंने आईएमएफ और मॉर्गन स्टेनली जैसी संस्थाओं से मिली प्रशंसा की ओर भी संकेत किया। हालाँकि, एक पूर्व वित्त मंत्री ने उनके दावों का खंडन करते हुए कहा कि पूर्ववर्ती प्रशासन के दौरान वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर अधिक थी। इस वार्ता के मध्य, एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो अनदेखा रह गया है वो यह की जीडीपी वृद्धि से सबसे पहले किसको लाभ हो रहा है?
रोजगार संभावना: आर्थिक सफलता में विसंगति
भारत की अर्थव्यवस्था कथित तौर पर तेजी से वृद्धि कर रही है, जबकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत न्यूनतम मजदूरी वाले काम की मांग में विरोधाभासी वृद्धि हुई है। ऐसे काम की मांग से पता चलता है कि बिना किसी वैकल्पिक आय स्रोत वाले व्यक्ति श्रम-केंद्रित कार्यों के लिए अल्प वेतन पर भी रोजगार करने को तत्पर हैं। आश्चर्यजनक रूप से, वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान, भारत की वास्तविक जीडीपी में 5.3% (वार्षिक) की वृद्धि हुई, वहीं मनरेगा कार्य के मांग में 5.4% की वार्षिक वृद्धि भी हुई है। जीडीपी वृद्धि और मनरेगा कार्य मांग के बीच यह सम्बन्ध चिंताजनक है ।
सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि और रोजगार सृजन के बीच दोषपूर्ण संबंध
ऐसा माना जाता है की, कि एक संपन्न अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर सृजित होने चाहिए, परन्तु भारत इस वास्तविकता का खंडन करता है, क्यंकि यदि आर्थिक विकास वास्तव में मजबूत होता, तो स्वाभाविक रूप से रोजगार सृजन होता और न्यूनतम वेतन वाले काम की आवश्यकता कम हो जाती। बहरहाल, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की गुणवत्ता, तीव्र उत्पादकता लाभ और बढ़ता स्वचालन समग्र रूप से , रोजगार सृजन में तीव्र कमी कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में भारतीय रिज़र्व बैंक के डेटा विश्लेषण से एक चिंताजनक प्रवृत्ति का पता चलता है जिसके अनुसार 1980 के दशक में, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के प्रत्येक प्रतिशत बिंदु पर लगभग दो लाख औपचारिक नौकरियाँ सृजित हो रहीं थीं जबकि 1990 के दशक में यह घटकर प्रति प्रतिशत बिंदु पर मात्र एक लाख नौकरियाँ रह गई और बाद के दशकों में इसमें और कमी आई है।
सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के साथ रोजगार सृजन में यह गिरावट भारत के लिए अद्वितीय नहीं है; क्योंकि यह स्वचालन और काम की बदलती प्रकृति से जुड़ी एक वैश्विक चिंता है। अत:,फोकस हेडलाइन जीडीपी वृद्धि के बजाय उच्च नौकरी तीव्रता के साथ आर्थिक पहल को बढ़ावा देने पर केंद्रित होना चाहिए।
नौकरी की असमानताओं के सामाजिक निहितार्थ
इस मुद्दे को और जटिल बनाने वाली बात यह है कि, सृजित की जा रही नौकरियाँ सामाजिक असमानताओं को कायम रखती हैं। जहां सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से उत्पन्न औपचारिक सेवा क्षेत्र के रोजगार अवसरों में उच्च जाति के व्यक्तियों का वर्चस्व है, वहीं अधिकांश मनरेगा श्रमिक दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों जैसी हाशिए की जातियों से आते हैं। रोज़गार में यह विषमता मौजूदा सामाजिक सरोकारों को और गहरा करती है।
खान और खनिज विधेयक: समावेशी आर्थिक विकास का मार्ग
एक संभावित समाधान वर्तमान सरकार के खान और खनिज (विकास और
विनियमन) संशोधन विधेयक, 2023-एमएमए विधेयक में निहित है। इलेक्ट्रिक गतिशीलता की
ओर वैश्विक बदलाव के साथ, लिथियम, कोबाल्ट और ग्रेफाइट जैसे खनिज इलेक्ट्रिक वाहन
आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिए महत्वपूर्ण हो गए हैं। ये खनिज विद्युत गतिशीलता
परिवर्तन का आधार हैं, एक ऐसा क्षेत्र जहां चीन जैसे देश दृढ़ता से अग्रणी हैं।
भारत के पास अफगानिस्तान और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रों में पाए जाने वाले
समान खनिज भंडार की खोज के लिए भौगोलिक रूप से अनुकूल परिदृश्य है। हालाँकि, भारत
ने इस क्षमता का कम उपयोग किया है, अपने भूमिगत खनिज भंडार के 10% से भी कम की खोज
की है जबकि खनन तो और भी कम किया है। एमएमए विधेयक लिथियम सहित रणनीतिक खनिजों की
खोज में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करके इसे बदलने का प्रयास करता
है। सेमीकंडक्टर विनिर्माण के विपरीत, खनन पर्याप्त स्थानीय रोजगार सृजन की क्षमता
प्रदान करता है, विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों के कम-कुशल श्रमिकों के
बीच इसकी भूमिका और भी बढ़ जाती है। इसके अलावा, खनन उत्पीड़ित जातियों को रोजगार
प्रदान करके सामाजिक समावेशिता को बढ़ावा दे सकता है।
भारत के भविष्य के लिए समावेशी खनन की शक्ति
सेमीकंडक्टर विनिर्माण जैसे उद्योगों के विपरीत, खनन स्वाभाविक रूप से श्रम-गहन क्षेत्र है और इसमें बड़ी संख्या में नौकरियां उत्पन्न करने की क्षमता है। इस क्षेत्र की वृद्धि भारत में बेरोजगारी और सामाजिक असमानताओं दोनों को संबोधित कर सकती है। भारत की 7,000 किलोमीटर से अधिक लंबी तटरेखा को देखते हुए, गहरे समुद्र में खनन की भी अपार संभावनाएं है। हालाँकि, पर्यावरणीय प्रभावों और श्रम शोषण से संबंधित चिंताओं ने इस क्षेत्र की प्रगति में बाधा उत्पन्न की है।
वहीं एमएमए विधेयक भारत की खनन क्षमता के कुशल दोहन करने का प्रावधान करता है, इसकी सफलता सावधानीपूर्वक कार्यान्वयन, शोषण और पर्यावरणीय गिरावट के खिलाफ सुरक्षा उपायों पर निर्भर करती है। "सेमीकॉनइंडिया" या "मेक इन इंडिया" जैसे प्रयासों के लिए निर्विवाद रूप से संसाधन आवंटित करने के बजाय, सरकार को विवेक का प्रयोग करना चाहिए और अधिकतम सामाजिक रिटर्न वाली पहलों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
आर्थिक विमर्श को स्थानांतरित करना: जीडीपी से रोजगार सृजन की ओर
सार्थक परिवर्तन लाने के लिए, राजनीतिक नेताओं के द्वारा आर्थिक विमर्श को नया स्वरूप देना अनिवार्य है। अर्थशास्त्रियों, टेक्नोक्रेट और आईएमएफ जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा समर्थित हेडलाइन जीडीपी वृद्धि पर निर्धारण, पूर्वानुमान और तुलना के लिए सुविधाजनक है, लेकिन आबादी के वास्तविक कल्याण को संबोधित करने में पूर्णरूप से प्रभावकारी नही है। इस परिप्रेक्ष्य में यह बदलाव सच्ची आर्थिक समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है जिससे सभी नागरिकों को लाभ होता है।
शीर्ष आर्थिक नीति अधिकारियों के लिए 'चिंतन शिविर' या विचार कार्यशाला की वित्त मंत्री की पहल इस दिशा में एक सराहनीय कदम है। हालाँकि, केवल उच्च जीडीपी विकास दर हासिल करने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, इस कार्यशाला को "जॉब्स डेटा प्रोडक्ट" (जेडीपी) को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसका आशय देश के सकल घरेलू उत्पाद के विकास लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना नहीं है, बल्कि यह मूल्यांकन करना है कि कैसे आर्थिक पहलें जनता के लिए ठोस रोजगार के अवसरों में परिवर्तित होती है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः, भारत की आर्थिक विकास की कहानी मुख्य सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों से कहीं अधिक विस्तृत है। स्वचालन और उभरते उद्योगों जैसे कारकों के कारण सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि और रोजगार सृजन के बीच संबंध कमजोर हो गया है। खनन के माध्यम से समावेशी रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करने की एमएमए विधेयक की क्षमता आशाजनक है, बशर्ते इसे सामाजिक और पर्यावरणीय चिंताओं पर सावधानीपूर्वक ध्यान देकर क्रियान्वित किया जाए। अब समय आ गया है कि देश का आर्थिक विमर्श सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि पर एक संकीर्ण फोकस से विकसित होकर सभी नागरिकों के लिए सार्थक रोजगार के अवसर सृजित करने पर व्यापक जोर दे।
मुख्य परीक्षा के लिए आवश्यक प्रश्न:
- प्रश्न 1: भारत की आर्थिक वृद्धि और रोजगार सृजन के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिये। स्वचालन इस अंतर में योगदान कैसे देता है? इस विरोधाभास को दूर करने के लिए नीतिगत उपायों का सुझाव दीजिये। (10 अंक, 150 शब्द)
- प्रश्न 2: भारत में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ बेरोजगारी मांग के विरोधाभास पर चर्चा कीजिये। प्रभावशाली रोजगार सृजन के साथ आर्थिक उद्यमियों को एकजुट करने का प्रस्ताव। समावेशी रोज़गार अवसरों पर हाल के निजीकरण के प्रभाव का आकलन करें। (15 अंक, 250 शब्द)
Source – The Hindu