तारीख (Date): 31-08-2023
प्रासंगिकता - जीएस पेपर 3 - पर्यावरण
कीवर्ड - बौद्ध धर्म, जैव विविधता हॉटस्पॉट, ब्लैक कार्बन, प्राकृतिक आपदा
संदर्भ
एशिया के मध्य में स्थित, हिमालय पर्वत श्रृंखला को "विश्व की छत" के रूप में जाना जाता है । हिमालय ने अपनी आश्चर्यजनक सुंदरता और आकर्षण के कारण पीढ़ियों से मानव कल्पना को मोहित किया है । हाल के दिनों में, हिमालय में आपदाओं की एक श्रृंखला देखी गई है जो इसके अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदों की बर्फ पिघल रही है , इसने मौसम के पैटर्न को बाधित किया है । इसके अलावा अनियंत्रित शहरी विस्तार और अस्थिर विकास पद्धतियों के कारण हिमालय को भारी तबाही का सामना करना पड़ रहा है। हिमालय पारिस्थितिकीय के नाजुक संतुलन को बनाए रखने वाले कारकों को पहचानना क्षेत्रीय चिंता से कहीं अधिक ,एक वैश्विक आवश्यकता बन गया है। हिमालय के सामने मौजूद संकट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तत्काल ध्यान देने और सहयोगात्मक प्रयासों की मांग करता है ।
हिमालय का महत्व:
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व:
हिमालय हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों जैसी कई संस्कृतियों और धर्मों का संगम स्थल है। इनमें प्रतिष्ठित तीर्थ स्थल, मठ और मंदिर स्थित हैं, जो ध्यान, आत्म-खोज और आत्मज्ञान जैसी प्रथाओं से प्राचीन काल से ही जुड़े हैं।
जैव विविधता हॉटस्पॉट:
हिमालय दुनिया के जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक के रूप में प्रसिद्ध है ।यह क्षेत्र वैश्विक पारिस्थितिक संतुलन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। विविध पारिस्थितिकी तंत्र, हरे-भरे जंगलों से लेकर उच्च ऊंचाई वाले घास के मैदान , पौधों और जानवरों की विभिन्न प्रजातियों को आश्रय प्रदान करते हैं, इनमें से कुछ क्षेत्र विशिष्ट रूप से प्रसिद्ध हैं ।
महत्वपूर्ण जल स्रोत:
हिमालय के ग्लेशियर गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र और यांग्त्ज़ी जैसी प्रमुख नदियों के स्रोत स्थल हैं। ये नदियाँ पूरे दक्षिण एशिया में लाखों लोगों के लिए जीवनधारा हैं, जो उनकी आजीविका, कृषि पद्धतियों, जलविद्युत उत्पादन और शहरी केंद्रों की आधारशिला के रूप में प्रवाहित होती हैं।
जलवायवीय कारक :
हिमालय क्षेत्रीय और वैश्विक जलवायु को विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह मानसून पैटर्न को आकार देता है जिससे भारत, नेपाल और बांग्लादेश में वर्षा होती है । इसके अतिरिक्त, हिमालय के ग्लेशियर वैश्विक जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों के संवेदनशील संकेतक के रूप में काम करते हैं।
भूवैज्ञानिक महत्व:
हिमालय का उद्भव इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच लगातार टकराव के परिणामस्वरूप हुआ है। इस भूवैज्ञानिक प्रक्रिया ने न केवल भौगोलिक परिदृश्य को आकार दिया है बल्कि इससे क्षेत्र में लगातार भूकंप भी आते रहते है। हिमालय के अध्ययन से पृथ्वी की विवर्तनिक गतिशीलता के संबंध में गहन अंतर्दृष्टि मिल सकती है, जिससे वैज्ञानिकों को पर्वत निर्माण के पीछे के जटिल तंत्र को समझने में सहायता मिलेगी ।
हिमालय पर व्यापक शहरीकरण का प्रभाव:
दोषपूर्ण विकास प्रतिमान :
चमोली में भूस्खलन, उत्तराखंड में जोशीमठ का डूबना और हिमाचल प्रदेश के चंबा में सड़कों का ढहने जैसे उदाहरण, हिमालयी क्षेत्र में विकास के दोषपूर्ण प्रतिमान को दर्शाते हैं। नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (इसरो) के शोध ने रुद्रप्रयाग और टिहरी जिलों को देश के सबसे अधिक भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों के रूप में रेखांकित किया है। चारधाम महामार्ग विकास परियोजना, जैसी योजनाओं के परिणामस्वरूप पेड़ों, व्यापक वन भूमि और नाजुक हिमालय तंत्र की उपजाऊ मिट्टी को काफी नुकसान हुआ है।
अनियंत्रित पर्यटन :
यद्यपि पर्यटन आर्थिक लाभ प्रदान करता है, लेकिन अनियंत्रित पर्यटन स्थानीय संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र पर अतिरिक्त बोझ डालता है। पर्वतीय क्षेत्र,पर्यटन और प्रवास(ग्रामीण आबादी के शहरी केंद्रों की ओर) के कारण अपनी क्षमता से अधिक लोगों की आमद से जूझ रहे हैं। 2022 में, उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों सहित लगभग 100 मिलियन पर्यटकों का आगमन हुआ ।पर्यावरण विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि क्षेत्र की वहन क्षमता से अधिक अनियंत्रित पर्यटन के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
बढ़ता तापमान:
अन्य पर्वत श्रृंखलाओं की तुलना में हिमालय तेजी से गर्म हो रहा है। निर्माण गतिबिधियों में पारंपरिक लकड़ी और पत्थर की चिनाई की जगह कंक्रीट के बढ़ते उपयोग से ताप-द्वीप प्रभाव निर्मित हो रहा है । यह प्रभाव क्षेत्रीय तापमान को बढ़ा रहा है, जिससे हिमालय के भीतर पारिस्थितिक बदलाव तीव्र रहा है ।
सांस्कृतिक पहचान का क्षरण:
हिमालयी समुदायों की विशिष्ट सांस्कृतिक प्रथाएँ इसके प्राकृतिक परिवेश के साथ गहराई से जुड़ी हैं। हालाँकि, अस्थिर शहरीकरण इन समुदायों के पारंपरिक ज्ञान, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक ताने-बाने का क्षरण कर रहा है। यह क्रमिक क्षरण इन क्षेत्रों में पनपने वाली अद्वितीय सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा पैदा कर रहा है ।
हिमालय की पारिस्थितिक चुनौतियाँ:
जलवायु परिवर्तन और हिमनदों का पिघलना: हिमालय जलवायु परिवर्तन के परिणामों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। बढ़ते तापमान ने ग्लेशियरों के तेजी से विघटन को तेज किया है। यह व्यवधान कालांतर में कृषि, पेयजल और जलविद्युत जैसी महत्वपूर्ण गतिबिधियों के लिए बड़ा खतरा पैदा करेगा ।
ब्लैक कार्बन का संचय: ग्लेशियर पिघलने के लिए उत्तरदायी , सर्वोपरि कारक वायुमंडल में ब्लैक कार्बन एरोसोल का उत्सर्जन है। ब्लैक कार्बन सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करता है और अवरक्त विकिरण छोड़ता है। जिससे तापमान में बढ़ोत्तरी होती है। नतीजतन, हिमालय में ब्लैक कार्बन की बढ़ती उपस्थिति ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने में योगदान कर रही है। गंगोत्री ग्लेशियर पर खतरनाक रूप से ब्लैक कार्बन जमा हो रहा है, जिससे इसके विघटन की दर सबसे तेज़ी से बढ़ रही है।
प्राकृतिक आपदा की संवेदनशीलता : हिमालय, युवा होने और बढ़ते वलित पर्वतों के कारण, टेक्टोनिक गतिविधियों के प्रति संवेदनशील है। इससे क्षेत्र में भूस्खलन, हिमस्खलन और भूकंप सहित कई प्रकार की प्राकृतिक आपदायें आती रहती है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण इन घटनाओं की आवृत्ति, गंभीरता और परिणाम बढ़ गए हैं, परिणामस्वरूप जीवन और संपत्ति की क्षति तथा महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में व्यवधान पैदा हो रहा है।
मृदा क्षरण और भूस्खलन : वनों की कटाई, अनियंत्रित निर्माण और अनुचित भूमि उपयोग प्रथाएँ सामूहिक रूप से मृदा क्षरण को बढ़ा रही हैं। वनस्पति आवरण की कमी हिमालय की ढलानों को अस्थिर कर देती है, जिससे वे कटाव व भूस्खलन के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं ।
आक्रामक प्रजातियों का प्रसार: तापमान बढ़ने के साथ आक्रामक प्रजातियों का आगमन तीव्र हो जाता है। ये हिमालय क्षेत्र के मूल वनस्पतियों और जीवों के लिए संकट पैदा करते हैं, साथ ही जटिल पारिस्थितिक संतुलन को भी बिगाड़ते हैं।इन प्रजातियों का प्रसार, क्षेत्र की जैव विविधता और पारिस्थितिक स्थिरता के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करता है ।
हिमालयी क्षेत्र संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास :
हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पर राष्ट्रीय मिशन : इस मिशन को 2010 में शुरू किया गया था । इसमें 11 राज्यों (हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, सभी पूर्वोत्तर राज्य और पश्चिम बंगाल) के साथ-साथ 2 केंद्र शासित प्रदेश (जम्मू और कश्मीर और लद्दाख) शामिल हैं। यह जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) के तहत आठ मिशनों में से एक है।
सुरक्षित हिमालय परियोजना: यह वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) द्वारा वित्त पोषित "सतत विकास के लिए वन्यजीव संरक्षण और अपराध रोकथाम पर वैश्विक साझेदारी" का हिस्सा है। यह परियोजना ऊंचे हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के अल्पाइन चरागाहों और जंगलों के स्थायी प्रबंधन की वकालत करती है।
मिश्रा समिति रिपोर्ट 1976: एमसी मिश्रा (तत्कालीन उत्तर प्रदेश में पूर्व गढ़वाल आयुक्त) समिति ने जोशीमठ में भूमि धंसाव के संबंध में अपने निष्कर्ष जारी किए थे । समिति ने निर्माण गतिविधियों, सड़क मरम्मत और अन्य परियोजनाओं के लिए अनियंत्रित विस्फोट या खुदाई पर प्रतिबंध लगाने और क्षेत्र में पेड़ों के संरक्षण जैसे उपायों को लागू करने की सिफारिश की।
हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण के लिए अतिरिक्त उपाय:
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड के लिए दिशानिर्देश:
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने अनियमित पर्यटन से उत्पन्न चुनौतियों पर अंकुश लगाने के लिए कई नियमों का सुझाव दिया है। इसमें बफर जोन स्थापित करना और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) वाले क्षेत्रों में पर्यटन को प्रतिबंधित करना शामिल है। ऐसे उपायों का उद्देश्य प्रदूषण को कम करना और इन क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव को कम करना है।
सीमा पार सहयोग:
हिमालयी देशों को सुनामी चेतावनी प्रणालियों के समान एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क स्थापित करना चाहिए। यह नेटवर्क जोखिमों की निगरानी करेगा, विशेष रूप से हिमनद झीलों से उत्पन्न होने वाले खतरों की इसके आलावा यह संभावित खतरों के बारे में प्रारंभिक चेतावनी भी जारी करेगा। पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों और संरक्षण के बारे में ज्ञान साझा करना , इस सहयोगात्मक प्रयास का एक महत्वपूर्ण पहलू होना चाहिए।
शिक्षा और जागरूकता:
हिमालय के निवासियों के बीच भूवैज्ञानिक नाजुकता और उनके आसपास की पारिस्थितिक भेद्यता के बारे में जागरूकता बढाने से सुरक्षात्मक नियमों का पालन मजबूत हो सकता है। भारत और अन्य प्रभावित देशों के स्कूली पाठ्यक्रम में हिमालयी भूविज्ञान और पारिस्थितिकी के बारे में मौलिक ज्ञान को एकीकृत किया जाए । जिससे छात्रों में अधिक पर्यावरणीय चेतना पैदा होगी ।
स्थानीय शासन की भूमिका:
हिमालयी राज्यों में नगर पालिकाओं को निर्माण मंजूरी देते समय सक्रिय रुख अपनाने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए भवन संहिता को अपडेट करना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन विभागों को बाढ़ की रोकथाम और तैयारियों को प्राथमिकता देने के लिए अपनी रणनीतियों को फिर से व्यवस्थित करना चाहिए।
निष्कर्ष
प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और मौसम पूर्वानुमान क्षमताओं को बढ़ाने से समय पर आपदाओं की भविष्यवाणी की जा सकती है । समय-समय पर नीतियों का मूल्यांकन करना और नाजुक हिमालयी क्षेत्र और इसकी जलवायु गतिशीलता की अनूठी आवश्यकताओं के अनुरूप टिकाऊ योजनाएं तैयार करना आवश्यक है।
इकोटूरिज्म की वकालत करते हुए वाणिज्यिक पर्यटन के हानिकारक प्रभावों पर चर्चा को बढ़ावा देने से आर्थिक गतिविधियों और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है। परियोजना कार्यान्वयन से पहले विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर), पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए), और सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) को अनिवार्य करने से पर्यावरण के प्रति जागरूक विकास सुनिश्चित हो सकता है।
इसके अलावा, मौजूदा बांधों की संरचनात्मक सुरक्षा को बढ़ाना और बाढ़ के बाद की घटनाओं की निगरानी को प्राथमिकता देना ,प्राकृतिक आपदाओं के प्रभावों के खिलाफ इन संरचनाओं को मजबूत करने और हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न -
- प्रश्न 1: जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित विकास सहित हिमालय को प्रभावित करने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों पर प्रकाश डालें। हिमालयी देशों के बीच सहयोगात्मक प्रयास इन चुनौतियों को कम करने और क्षेत्र के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं? (10 अंक, 150 शब्द)
- प्रश्न 2: शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से उत्पन्न खतरों को स्पष्ट करते हुए, सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और भूवैज्ञानिक रूप से हिमालय के महत्व को स्पष्ट करें। इन मुद्दों से निपटने में मौजूदा सरकारी पहलों, जैसे नेशनल मिशन ऑन सस्टेनिंग हिमालयन इकोसिस्टम और सिक्योर हिमालय प्रोजेक्ट की प्रभावशीलता का आकलन करें।साथ ही संरक्षण प्रयासों को बढ़ाने के लिए सिफारिशें प्रदान करें। (15 अंक, 250 शब्द)