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Daily-current-affairs / 24 Nov 2023

जलवायु न्याय की अनिवार्यता: कार्बन-प्रतिबंधित दुनिया में भारत की भूमिका - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख Date : 25/11/2023

प्रासंगिकता: जीएस पेपर 3 - पर्यावरण और पारिस्थितिकी

कीवर्ड : सीबीडीआर-आरसी, ग्लोबल कार्बन बजट, यूएनएफसीसीसी, नेट जीरो

संदर्भ:

ग्लोबल वार्मिंग और संचयी कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) उत्सर्जन के बीच जटिल संबंध; जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने की तात्कालिकता को रेखांकित करता है। वर्ष 1992 में स्थापित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) ने 'साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं' (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांत को यह मानते हुए पेश किया, कि विभिन्न राज्यों के पास जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने की अलग-अलग जिम्मेदारियां और क्षमताएं हैं। यह सिद्धांत पेरिस समझौते के अनुरूप है, जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करना है। हालांकि, विकसित देशों के अनुपातहीन ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन ने वैश्विक कार्बन बजट को प्रभावित किया है, जिससे समान वितरण पर सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक हो गया है।

सीबीडीआर-आरसी क्या है?

सीबीडीआर का सिद्धांत पहली बार वर्ष 1992 में रियो डी जनेरियो में यूएनएफसीसीसी में पेश किया गया था। सीबीडीआर की अवधारणा; पेरिस समझौते में संबंधित क्षमता शब्द को जोड़ने के साथ सीबीडीआर-आरसी के रूप में विकसित हुई है। सीबीडीआर-आरसी सिद्धांत, तब से जलवायु परिवर्तन से जुड़े अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण समझौतों में एक प्रमुख तत्व रहा है।

साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियां (सीबीडीआर) सिद्धांत एक बार फिर से वैश्विक चर्चा में है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के सभी सदस्य; दुबई, संयुक्त अरब अमीरात में पार्टियों के 28 वें सम्मेलन (सीओपी 28) की बैठक के लिए एकत्र हुए हैं।

वैश्विक कार्बन बजट और अनुपातहीन उत्सर्जन:

वैश्विक कार्बन बजट; पूर्व-औद्योगिक युग से लेकर, मानव-जनित कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) उत्सर्जन की कुल स्वीकार्य मात्रा को उस स्तर तक संदर्भित करता है, जब उत्सर्जन नेट जीरो तक पहुंच जाता है। यह बजट ग्लोबल वार्मिंग को एक निश्चित संभावना के साथ एक विशिष्ट स्तर तक सीमित करने के लिए आवश्यक है। शेष कार्बन बजट CO2 की उस मात्रा को इंगित करता है; जो पूर्व-औद्योगिक अवधि के बाद, एक निर्दिष्ट समय से शुरू होकर, लक्ष्यित तापमान सीमा का पालन करते हुए अभी भी उत्सर्जित किए जा रहे हैं।

आईपीसीसी एआर 6 के अनुसार, दुनिया ने पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में वर्ष 2019 तक 1.07 डिग्री सेल्सियस की कार्बन उत्सर्जन वृद्धि का अनुभव किया था, जिससे वैश्विक कार्बन बजट का लगभग 80% कम हो गया था। इसका मतलब यह है, कि पेरिस समझौते में निर्धारित तापमान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बजट का लगभग अब पांचवां हिस्सा ही बचा है।

ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की 50% संभावना के लिए, देशों को पहले के अनुमान की तुलना में जल्द ही नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका को 2050 के बजाय 2025 तक, जर्मनी को 2045 के बजाय 2030 तक और यूरोपीय संघ (ईयू-28) को 2050 के बजाय 2031 तक नेट जीरो तक पहुंचने की आवश्यकता होगी। इन समय सीमाओं को पूरा करना इसलिए भी आवश्यक है, ताकि उपलब्ध कार्बन बजट और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सके।

आईपीसीसी एआर 6 के अनुसार, विकसित देशों ने वर्तमान समय तक वैश्विक कार्बन बजट के एक बड़े हिस्से का असंगत रूप से उपयोग किया है।

वैश्विक जनसंख्या का लगभग 24% होने के बावजूद, भारत सहित दक्षिण एशिया ने ऐतिहासिक संचयी कार्बन उत्सर्जन में केवल 4% का योगदान दिया है। दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति CO2-FFI (जीवाश्म ईंधन और उद्योग) उत्सर्जन मामूली 1.7 टन CO2-समतुल्य प्रति व्यक्ति है, जो उत्तरी अमेरिका के 15.4 टन CO2-समतुल्य प्रति व्यक्ति के बिल्कुल विपरीत और 6.6 टन CO2-eq प्रति व्यक्ति के वैश्विक औसत से काफी नीचे है।

भारत के निहितार्थ:

  1. लक्ष्यित तापमान सीमा प्राप्त करने के लिए आवश्यक वैश्विक कार्बन बजट, यूएनएफसीसीसी सिद्धांतों के तहत एक साझा संसाधन है।
  2. भारत को 'कार्बन बजट में अपनी उचित हिस्सेदारी' के सम्बन्ध में विकसित देशों द्वारा अत्यधिक दोहन के कारण घटते राष्ट्रीय संसाधन के रूप में देखने की जरूरत है।
  3. भारत को उपलब्ध संसाधनों का रणनीतिक उपयोग करने में विफल रहने पर विकसित देशों द्वारा अपनाई गई नई औपनिवेशिक रणनीति का शिकार होने का जोखिम है।
  4. अधिकांश आईपीसीसी परिदृश्य 2030 के दशक की शुरुआत तक 1.5-डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाने की भविष्यवाणी करते हैं, जो इस सम्बन्ध में वैश्विक कार्रवाई की तात्कालिकता को उजागर करता है।
  5. वर्ष 2022 में, तेल, कोयला और गैस का वैश्विक ऊर्जा में योगदान 30%, 27% और 23% था, जबकि सौर और पवन ऊर्जा का योगदान केवल 2.4% था।
  6. आज समग्र विश्व गैर-नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर बहुत अधिक निर्भर है।
  7. विकसित देश तेजी से, अर्थव्यवस्था-व्यापी बदलाव के लिए विकासशील देशों पर दबाव डालते हैं, जिसका उदाहरण सीओपी 26 वार्ता है, जिसके तहत कोयला संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से बंद करना पड़ा, लेकिन बाद में रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच इन संयंत्रों को फिर से शुरू करना पड़ा।
  8. संकट के दौरान तत्काल जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अव्यवहार्य माना जाता है, जिससे विकासशील देशों की विकास क्षमता सीमित हो जाती है।
  9. विकसित देश गैस को "हरित" और "पुल ईंधन" के रूप में लेबल करते हैं, जिससे डी-कार्बोनाइजेशन प्रयासों की अनिवार्यता बढ़ जाती है।

चुनौतियाँ और विकास:

ग्लासगो में सीओपी 26 वार्ता ने कोयले के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने पर जोर दिया गया, लेकिन बाद की घटनाओं, जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप में कोयला संयंत्रों को फिर से खोलना, ने इस संक्रमण की जटिलताओं को प्रदर्शित किया। तेजी से परिवर्तन लागू करने के विकसित देशों के प्रयासों की सीमाएँ हैं और संभावित रूप से विकासशील देशों की विकास संभावनाओं में बाधा आती है।

भारत की विकासात्मक प्रगति; जैसा कि बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट 2023 से प्रमाणित है, जलवायु परिवर्तन शमन के साथ गरीबी उन्मूलन को संतुलित करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। भारत सरकार ने सक्रिय रूप से अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे के लिए गठबंधन और वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन जैसे प्रयास शुरू किए हैं। हालांकि, सतत विकास और जीवनशैली प्रथाओं पर जोर विकसित देशों के लिए अपनी जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की अनिवार्यता पर हावी नहीं होना चाहिए।

सीओपी 28 पर भारत का रुख:

नीति आयोग और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट 2023 के अनुसार, भारत ने पांच साल से भी कम समय (2015-2021) में 135 मिलियन से अधिक लोगों को सफलतापूर्वक गरीबी से बाहर निकाला है। देश ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के माध्यम से 800 मिलियन से अधिक व्यक्तियों के लिए खाद्य सुरक्षा उपायों को भी बढ़ाया है, जो कि COVID-19 के बाद गरीबी से निपटने की महत्वपूर्ण चुनौती को रेखांकित करता है।

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों के समाधान के लिए विकासशील देशों में संसाधनों के आवंटन के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। जब तक विकसित देश उन समस्याओं को कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते, जिनमें उन्होंने योगदान दिया है; विकासशील देशों के प्रयास निरर्थक लग सकते हैं।

भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति को बढ़ावा देने में अग्रणी भूमिका निभाई है। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे के लिए गठबंधन और वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन जैसी पहल भारत की प्रतिबद्धता को उजागर करती हैं। 'लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट' (LiFE) मिशन का उद्देश्य सतत एवं स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देना और पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाना है।

जैसे-जैसे सीओपी 28 नजदीक आ रहा है, भारत को वैश्विक असमानताओं को दूर करने के लिए अपने कार्बन बजट के उचित आवंटन या समकक्ष क्षतिपूर्ति की वकालत करनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के खिलाफ विकास एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि, $50/tCO2-eq के रूढ़िवादी अनुमान के आधार पर, दुनिया में विकसित देशों का कार्बन ऋण $51 ट्रिलियन से अधिक है। भारत के ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन (1850-2019) को ध्यान में रखते हुए, इसका कार्बन क्रेडिट 338 GtCO2-eq है, जो $50/tCO2-eq पर लगभग $17 ट्रिलियन के बराबर है। 1992 के रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में वित्त और प्रौद्योगिकी के वादे के बिना, विकासशील देशों को तेजी से अनुचित वैश्विक परिदृश्य का सामना करना पड़ रहा है।

निष्कर्ष:

ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन, वैश्विक कार्बन बजट और सीबीडीआर-आरसी के सिद्धांतों के बीच जटिल परस्पर क्रिया के कारण जलवायु नीति के लिए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। सीओपी 28 में भारत को अपनी विकास संबंधी उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए निष्पक्ष व्यवहार की वकालत करनी चाहिए, जबकि विकसित देशों द्वारा अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की तात्कालिकता पर जोर देना चाहिए। नए युग के लिए अधिक न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था की आवश्यकता है, जहां वित्त और प्रौद्योगिकी अंतर को पाटें, जिससे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक स्थायी और निष्पक्ष दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सके।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  1. ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन और वैश्विक कार्बन बजट यूएनएफसीसीसी में 'सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं' (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांतों को कैसे प्रभावित करते हैं, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने में भारत जैसे विकासशील देशों की तात्कालिकता के संबंध में? (10 अंक, 150 शब्द)
  2. भारत की विकासात्मक प्रगति और जलवायु पहलों को ध्यान में रखते हुए, जलवायु परिवर्तन शमन के साथ गरीबी उन्मूलन को संतुलित करने में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा करें। सीओपी 28 जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच विकासशील देशों को वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर ध्यान केंद्रित करते हुए अधिक न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था में कैसे योगदान दे सकते हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

Source- The Hindu