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Daily-current-affairs / 18 Dec 2023

भारत के वन अधिकार अधिनियम को लागू करने में चुनौतियाँ और अवसर - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख Date : 19/12/2023

प्रासंगिकता: जीएस पेपर 2- राजव्यवस्था -विधान

की-वर्ड्स: एफआरए, आईएफआर, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972, लघु वन उपज

संदर्भ:

  • 18 दिसंबर 2006 को राज्यसभा द्वारा अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम का समर्थन किया गया था। इसे आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के रूप में जाना जाता है।
  • इस कानून का उद्देश्य वनों पर स्थानीय समुदायों के परंपरागत अधिकारों को स्वीकार करते हुए, औपनिवेशिक वन नीतियों द्वारा किए गए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारना है।
  • अपनी परिवर्तनकारी क्षमता के बावजूद एफआरए के कार्यान्वयन को राजनीतिक अवसरवादिता, वनवासियों का प्रतिरोध, नौकरशाही की उदासीनता और व्यापक भ्रम जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।


ऐतिहासिक अन्याय:

  • एफआरए के महत्व को समझने के लिए उन ऐतिहासिक अन्यायों को समझना आवश्यक है, जिनके कारण इसे अधिनियमित करना आवश्यक हुआ।
  • उपनिवेशवाद से पहले स्थानीय समुदायों को जंगलों पर पारंपरिक अधिकार प्राप्त थे, लेकिन 1878 के औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम ने इन परंपराओं को बाधित कर दिया।
  • औपनिवेशिक शासन के दौरान स्थापित शाही वन विभाग, लकड़ी और राजस्व के लिए वनों का दोहन करता था और स्थानीय समुदायों को अतिक्रमणकारी मानता था।
  • इससे स्थानांतरित खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया और वनों तक पहुंच सीमित हो गई तथा वन नौकरशाही के नियंत्रण के अधीन हो गए थे।
  • स्वतंत्रता के बाद भी अन्याय जारी रहा। उचित जांच के बिना वन भूमि को राज्य की संपत्ति घोषित कर दिया गया तथा वैध निवासियों और किसानों को विस्थापित कर दिया गया।
  • राष्ट्रीय हित के नाम पर वनों का दोहन जारी रहा। 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम और 1980 के वन (संरक्षण) अधिनियम ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया।
  • संरक्षण उद्देश्यों के लिए समुदायों का जबरन पुनर्वास किया गया तथा स्थानीय विचारों या सहमति पर विचार किए बिना विकास परियोजनाओं के लिए वनों का उपयोग किया गया।
  • एफआरए ने दिसंबर 2005 से पहले मौजूद आवास और खेती के लिए व्यक्तिगत वन अधिकारों (आईएफआर) को मान्यता देकर इस ऐतिहासिक अन्याय का उन्मूलन किया।
  • इसके तहत वन गांवों को राजस्व गांवों में परिवर्तित किया जाना था। अधिनियम ने ग्राम समुदायों को जंगलों तक पहुंचने एवं उनका उपयोग करने, लघु वन उपज का स्वामित्व एवं बिक्री करने और अपनी पारंपरिक सीमाओं के भीतर जंगलों का प्रबंधन करने का अधिकार प्रदान किया।
  • इस प्रावधान ने वन प्रबंधन प्राधिकरण को सामुदायिक अधिकारों से सम्बद्ध करते हुए विकेंद्रीकृत वन प्रशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत की। अधिनियम ने वन्यजीव संरक्षण और सामुदायिक अधिकारों के बीच संघर्ष को संबोधित करने के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी स्थापित की।

कार्यान्वयन संबंधी प्रमुख मुद्दे:

  • एफआरए के प्रगतिशील प्रावधानों के बावजूद इसका कार्यान्वयन विकृतियों और चुनौतियों से प्रभावित हुआ है।
  • कई राज्यों ने इस अधिनियम को 'अतिक्रमण नियमितीकरण' योजना के रूप में मानते हुए केवल व्यक्तिगत अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया है।
  • व्यक्तिगत अधिकारों की मान्यता में जटिलता, वन विभाग का विरोध और मनमानी आंशिक मान्यता ने दावेदारों के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं।
  • आधारभूत संरचना के अभाव और निम्न साक्षरता वाले क्षेत्रों में अपनाई गई डिजिटल प्रक्रियाओं ने समुदायों को और अधिक हाशिए पर धकेल दिया है।
  • वनों तक पहुंच और प्रबंधन के सामुदायिक अधिकारों (सामुदायिक वन अधिकार या सीएफआर) की मान्यता शिथिल और अधूरी रही है।
  • वनों पर नियंत्रण खोने के डर से वन प्रशासन इन अधिकारों का पुरजोर विरोध करता है। महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे केवल कुछ ही राज्यों ने सीएफआर को पर्याप्त रूप से मान्यता दी है। लेकिन इन राज्यों में भी चुनौतियां बरकरार हैं और संभावित खनन क्षेत्रों में अवैध गैर-मान्यता के कारण अशांति पैदा हुई है।
  • सामुदायिक अधिकारों को अमान्य करना कट्टरपंथी संरक्षणवादियों और विकास लॉबी को लाभ पहुंचाती है। जिससे संरक्षित क्षेत्रों में समुदायों के 'स्वैच्छिक पुनर्वास' में चुनौतियाँ आती है, परिणामस्वरूप समुदाय की सहमति के बिना खनन और बांधों के निर्माण के लिए वनों के दोहन को बढा देता है।

एफआरए के उद्देश्य को समझना:

  • राजनीतिक शासन में बदलाव के साथ एफआरए के क्रियान्वयन की गतिशीलता में भी परिवर्तन होता है।
  • कुछ राज्यों ने वन अधिकारों की मान्यता को मिशन मोड में प्रदान करने का प्रस्ताव रखा है, लेकिन इससे वन विभाग की मनमानी में वृद्धि और वन अधिकारों की मान्यता को विकृत करने का जोखिम है।
  • राजनीतिक नेताओं, नौकरशाहों और पर्यावरणविदों को एफआरए की भावना और इरादे की वास्तविक समझ होना जरूरी है। इसके बिना ऐतिहासिक अन्याय जारी रहेंगे, वन शासन अलोकतांत्रिक रहेगा तथा समुदाय-नेतृत्व वाले वन संरक्षण और सतत आजीविका की क्षमता का क्षरण होगा।

कार्यान्वयन में चुनौतियाँ और अवसर:

  • एफआरए के कार्यान्वयन की चुनौतियाँ बहुआयामी हैं। राजनीतिक अवसरवादिता और व्यक्तिगत अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण सामुदायिक अधिकारों की उपेक्षा हुई है।
  • वन विभाग के प्रतिरोध, नौकरशाही की उदासीनता और प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग ने अधिकारों की सुचारू मान्यता में बाधा उत्पन्न की है।
  • 'वन ग्रामों' का जटिल मुद्दा कई राज्यों में ऐतिहासिक अन्याय को कायम रखते हुए अनसुलझा बना हुआ है।
  • हालाँकि महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में कई सफलता की कहानियाँ भी हैं, जहाँ सामुदायिक अधिकारों को पर्याप्त मान्यता मिली है।
  • महाराष्ट्र में लघु वन उपज के विराष्ट्रीकरण ने समुदायों को अपने स्वयं के जंगलों का प्रबंधन करने के लिए सशक्त बनाया है। ये सकारात्मक उदाहरण समुदाय के वास्तविक नेतृत्व वाले वन प्रशासन और सतत आजीविका की प्राप्ति की क्षमता को रेखांकित करते हैं।

लघु वन उत्पाद (Minor Forest Produce- MFP):

  • एमएफपी में पौधों से प्राप्त विभिन्न गैर-लकड़ी वन उत्पाद शामिल होते हैं। जैसे कि बांस, बेंत, चारा, पत्ते, मोम, रंग, रेजिन, मेवे, जंगली फल, शहद, लाख, टसर सहित विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ।
  • ये संसाधन जंगलों में या उसके आसपास रहने वाले व्यक्तियों की आजीविका का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये आजीविका और आय दोनों के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।
  • एमएफपी आवश्यक भोजन, फल और दवाएं प्रदान करते हुए वन निवासियों की आहार संबंधी जरूरतों को पूरा करने में काफी योगदान देते हैं।

राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही की भूमिका:

  • राजनीतिक नेता और नौकरशाह एफआरए के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दुर्भाग्यवश कई राज्यों में अल्पकालिक राजनीतिक लाभ से प्रेरित व्यक्तिगत अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
  • औपनिवेशिक युग की वन नौकरशाही से प्रेरित नौकरशाही प्रतिरोध ने सामुदायिक अधिकारों की मान्यता में एक महत्वपूर्ण बाधा उत्पन्न की है। मुख्य चुनौती वनवासियों को केवल लाभार्थियों के रूप में देखने के बजाय उन्हें अपने स्वयं के जंगलों के स्वायत्त उपयोगकर्ताओं और प्रबंधकों के रूप में पहचानने की है।

संरक्षण और विकास:

  • एफआरए संरक्षण और विकास के बीच एक नाजुक संबंध सुनिश्चित करता है। ऐतिहासिक अन्यायों को पहचानने और समुदाय के नेतृत्व वाले संरक्षण के लिए तंत्र प्रदान करने की आवश्यकता है।
  • इसके साथ-साथ यह वन्यजीव संरक्षण के लिए कुछ स्थितियों में सामुदायिक अधिकारों को कम करने या समाप्त करने की आवश्यकता को भी स्वीकार करता है।
  • हालाँकि यह नाजुक संबंध चुनौतीपूर्ण स्थिति में है। कुछ राज्य विधायी संशोधनों के माध्यम से सामुदायिक सहमति तंत्र को उपेक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। संरक्षणकर्ताओं और वनवासियों के अधिकारों के बीच तनाव की स्थिति बनी हुई है।

निष्कर्ष:

2006 में अधिनियमित अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम भारत के सामाजिक-पर्यावरणीय विधानों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। अपनी परिवर्तनकारी क्षमता के बावजूद एफआरए को राजनीतिक अवसरवाद, नौकरशाही के प्रतिरोध और भ्रामक धारणाओं सहित कार्यान्वयन में जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अधिनियम के वास्तविक उद्देश्य को साकार करने के लिए राजनीतिक नेताओं, नौकरशाहों और पर्यावरणविदों को सहयोगात्मक रूप से काम करने की आवश्यकता है। केवल सहयोगात्मक एवं प्रभावी प्रयास के माध्यम से ही एफआरए अपने लक्ष्य को पूरा कर सकता है और अधिक न्यायसंगत एवं पर्यावरणीय रूप से सतत भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न-

  1. वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) द्वारा उन्मूलित ऐतिहासिक अन्याय और औपनिवेशिक युग की नीतियों को सुधारने के इसके प्रावधानों पर चर्चा कीजिए। एफआरए के कार्यान्वयन में विद्यमान चुनौतियों का उल्लेख करते हुए विकेंद्रीकृत वन प्रशासन के लिए इसकी प्रभावशीलता बढ़ाने के उपाय प्रस्तावित कीजिए। (10 अंक, 150 शब्द)
  2. भारत के वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए। एफआरए में उल्लिखित संरक्षण लक्ष्यों और वनवासियों के अधिकारों के बीच तनाव के मुद्दों का परीक्षण कीजिए। विशिष्ट राज्यों के उदाहरणों का उल्लेख करते हुए व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता का आकलन कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

Source- The Hindu



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