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Blog / 22 Oct 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला (Supreme Court on SC/ST Act)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला (Supreme Court on SC/ST Act)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): पृथ्वीराज चौहान (वकील), भारती (दलित कार्यकर्त्ता)

चर्चा में क्यों?

बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने एससी-एसटी एक्ट में दिए अपने पुराने फैसलों को वापस ले लिया है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों की पीठ ने 20 मार्च, 2018 को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत गिरफ्तारी के प्रावधानों को प्रभावी रूप से कमज़ोर कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सामाजिक-आर्थिक दशा तमाम उपायों के बावजूद भी कमज़ोर बनी हुई है। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी माना कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लोग अस्पृश्यता और अभद्रता का सामना सामना कर रहे हैं और वे बहिष्कृत जीवन गुजारते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के SC/ST एक्ट को लेकर क्या हैं नए फैसले?

सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने एससी-एसटी एक्ट में अपने पहले के दिशा निर्देशों को ख़ारिज करते हुए FIR से पहले जांच की बाध्यता को खत्म कर दिया गया है। अब आरोप के मामले में सीधे FIR दर्ज की जा सकती है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एंटीसिपेट्री बेल को बरक़रार रखा है। ये फैसला न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर ये फैसला सुनाया है।

सर्वोच्च न्यायालय की इस पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को संरक्षण प्राप्त है, लेकिन इसके बावजूद उनके साथ भेदभाव हो रहा है। तीन जजों की पीठ ने कहा कि 'यह संविधान की भावना के खिलाफ है। क्या किसी कानून और संविधान के खिलाफ सिर्फ इस वजह से ऐसा कोई आदेश दिया जा सकता है कि कानून का दुरूपयोग हो रहा है? क्या किसी व्यक्ति की जाति के आधार पर किसी के प्रति संदेह व्यक्त किया जा सकता है? सामान्य वर्ग का व्यक्ति भी फर्जी प्राथमिकी दायर सकता है।

अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल का कहना था कि मार्च, 2018 का शीर्ष अदालत का फैसला संविधान की भावना के अनुरूप नहीं था।

सर्वोच्च न्यायालय के पहले के क्या थे दिशा-निर्देश ?

20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों (जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित) की पीठ ने माना था कि एससी एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि एक्ट के कड़े प्रावधानों की वजह से इसे राजनीतिक हथियार बनाया जाता है। इसलिए कोर्ट ने एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी के प्रावधान को हटा दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले में SC/ST एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए दिशा निर्देश जारी किये थे -

  • सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसले में कहा था कि ऐसे मामलों में किसी भी निर्दोष को कानूनी प्रताड़ना से बचाने के लिये कोई भी शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर (FIR) दर्ज नहीं की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने FIR से पहले शिकायत की डीएसपी स्तर के पुलिस अफसर से जाँच की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि ये जाँच पूर्ण रूप से समयबद्ध होनी चाहिये। जाँच किसी भी स्थिति में 7 दिन से अधिक समय तक न चले।
  • अगर आरोप किसी सरकारी कर्मचारी पर है तो इस आरोप की पुष्टि कर्मचारी को नियुक्त करने वाली आथोरिटी से की जाएगी। इसके अलावा अगर आरोप किसी प्राइवेट व्यक्ति पर है तो SSP के जांच के बाद ही गिरफ्तारी संभव होगी।
  • इन नियमों का पालन न करने की दशा में पुलिस पर अनुशासनात्मक एवं न्यायालय की अवमानना करने के संदर्भ में कार्यवाही की बात कही गई थी।
  • गिरफ्तारी के बाद अभियुक्त की पेशी के समय मजिस्ट्रेट आरोपी के हिरासत की अवधि का निर्धारण करेगा।
  • एससी-एसटी एक्ट की धारा 18 में अग्रिम ज़मानत की मनाही है, लेकिन अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम ज़मानत की इजाज़त देते हुए कहा कि पहली नज़र में अगर ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहाँ न्यायिक समीक्षा के बाद लगता है कि कानून के अंतर्गत शिकायत में दुर्भावना है, वहाँ अग्रिम ज़मानत पर संपूर्ण रोक नहीं है।

SC/ST एक्ट संशोधन विधेयक 2018

20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए इस फैसले के बाद केंद्र सरकार ने एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी। हालाँकि भारत बंद जैसे बड़े आंदोलनों को देखते हुए केंद्र सरकार द्वारा अगस्त 2018 में SC/ST एक्ट संशोधन विधेयक 2018 लाया गया। मौजूदा वक़्त में ये विधयेक अब SC/ST क़ानून 2018 का रूप ले चुका है।

SC/ST एक्ट संशोधन विधेयक 2018 के ज़रिए मूल कानून में धारा 18A जोड़ी गई थी । 18 A (1) (a) के तहत FIR दर्ज़ करने से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले यानी जाँच के आदेश को ख़ारिज कर दिया गया। इसके अलावा 18 A (1) (b) के तहत ये प्रावधान किया गया कि किसी आरोपी की गिरफ्तारी से पहले किसी भी बड़े अधिकारी (SSP या SP ) से इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।

इन सब के अलावा SC/ST क़ानून 2018 में आरोपी को अग्रिम जमानत भी नहीं दिए जाने का प्रावधान है। इस क़ानून के तहत ऐसे मामले में आरोपी को हाईकोर्ट से ही नियमित जमानत मिल सकेगी। इसके अलावा ऐसे मामलों की जाँच इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अफसरों द्वारा की जाएगी। साथ ही एससी/एसटी मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होगी। सरकारी कर्मचारी के ख़िलाफ़ अदालत में चार्जशीट दायर करने से पहले जांच एजेंसी को अथॉरिटी से इजाज़त नहीं लेने जैसे प्रावधान SC/ST क़ानून 2018 में शामिल हैं। यानी एक तरीके से इस विधेयक के क़ानून बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए प्रावधान रद्द हो गए।

सरकार ने इस विधेयक को पेश करते हुए कहा था कि ये समाज के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग को न्याय में हो रही देरी के निवारण के उद्देश्य से इसे लाया जा रहा है।

SC/ST एक्ट संशोधन विधेयक 2018 को लेकर दायर हुई याचिकाएं

SC/ST एक्ट संशोधन विधेयक 2018 को लेकर वकील पृथ्वीराज चौहान और प्रिया शर्मा ने याचिका दाखिल की थी। याचिकाकर्ताओं ने केंद्र सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक क़रार देते हुए इस पर सुनवाई की मांग की थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि केंद्र सरकार लाया गया ये विधेयक सर्वोच्च न्यायलय की अवहेलना है।

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST के संसोधित कानून पर रोक लगाने से साफ तौर पर इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने भी इन याचिकाओं के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि संशोधित कानून को चुनौती देने वाली याचिका विचारयोग्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर केंद्र सरकार ने कहा था है कि उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटकर संशोधित कानून बनाने का अधिकार है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े

अपराध के बारे में क्राइम ब्यूरो के आंकड़े देखने से पता चलता है कि एससी/एसटी एक्ट में ज्यादातर मामले झूठे पाए गए। कोर्ट ने कुछ आंकड़े फैसले में शामिल किए हैं जिसके मुताबिक 2016 में पुलिस जाँच में एसटी/एससी को प्रताड़ित किये जाने के 5347 केश झूठे पाए गए। इतना ही नहीं वर्ष 2015 में एसटी/एससी कानून के तहत अदालत ने कुल 15638 मुकदमे निपटाए, जिसमें से 11024 केस में अभियुक्त बरी हुए या आरोप मुक्त हुए जबकि 495 मुकदमें वापस ले लिए गए एवं सिर्फ 4119 मामलों में ही अभियुक्तों को सजा हुई।

एससी/एसटी एक्ट क्या है?

यह अधिनियम अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों के निवारण के लिए है। अधिनियम अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने तथा अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए राहत एवं पुनर्वास का प्रावधान करता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में यह अधिनियम अत्याचार निवारण या एससी/एसटी अधिनियम कहलाता है। यह अधिनियम 11 सितंबर, 1989 को अधिनियमित किया गया था जबकि 30, जनवरी, 1990 से जम्मू-कश्मीर को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू था। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत संज्ञेय अपराध है।

नोट - जम्मू कश्मीर से अनुछेद 370 के हटने के बाद अब ये जम्मू कश्मीर राज्य में भी लागू है।

पृष्ठभूमि

संविधान के मुताबिक देश में रहने वाला प्रत्येक नागरिक एक समान है। सभी को देश में अपने जीवन को खुल के जीने का हक है। लेकिन भारत देश में एक ऐसा वर्ग है, जो हमेशा से समाज के हाशिये पर रहा है, वो है एसटी/एससी। आजादी के बाद इस बुराई को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अनेक कदम उठायें हैं।

इस दिशा में सुधार के लिए सरकार द्वारा 1955 में अस्पृश्यता (अपराध निवारण) अधिनियम लाया गया था। लेकिन इसकी कमियों एवं कमजोरियों के कारण सरकार को इसमें व्यापक सुधार करना पडा।

1976 से इस अधिनियम का नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम के रूप में पुनर्गठन किया गया। अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के अनेक उपाय करने के बावजूद उनकी स्थिति दयनीय बनी रही।

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के उत्पीड़न को रोकने तथा दोषियों पर कार्रवाई करने के लिए विशेष अदालतों के गठन को आवश्यक समझा गया। उत्पीडन के शिकार लोगों को राहत, पुनर्वास उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती थी।

इसी पृष्ठभूमि में अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 बनाया गया। इस अधिनियम का स्पष्ट उद्देश्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय को सक्रिय प्रयासों से न्याय दिलाना था ताकि समाज में वे गरिमा के साथ रह सकें। उन्हें हिंसा या उत्पीड़न का भय न सताए। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता के व्यवहार को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया तथा ऐसे किसी भी अपराध के लिए अधिनियम में कठोर सजा का प्रावधान किया गया।

इसके बाद केंद्र सरकार ने दिसम्बर, 2015 में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम-1989 में संशोधन किया था। संशोधन का उद्देश्य-अत्याचार के पीड़ितों, एससी/एसटी को उदार और शीध्र राहत प्रदान करने के लिए तथा महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में विशेष संवेदनशीलता सुनिश्चित करने के लिए संशोधन किया गया था।

इस कानून की न्याय प्रदान करने में सक्षमता की जाँच करने हेतु राज्य, जिला और उपसंभाग स्तरीय समितियों की बैठकों में नियमित समीक्षा करना। 60 दिनों के भीतर जाँच पूरी करना और आरोप पत्र दाखिल करना। पीड़ितों, उनके परिवार के सदस्यों और आश्रितों को सात दिनों के भीतर राहत का प्रावधान। इसके अलावा बालात्कार और सामूहिक बलात्कार के पीड़ितो के लिए पहली बार राहत के प्रावधान किये गए हैं।ञअत्याचारों की सूची में नए अपराधों जैसे सिंचाई सुविधाओं का उपयोग न करने देना, वन अधिकार की प्राप्ति में बाधक बनना आदि को सम्मिलित किया गया है

विपक्ष में तर्क

  • अप्रैल 2010 में दिल्ली की एक अदालत ने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अधिनियम के दुरूपयोग की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताई थी। इसके अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ‘कामिनी लऊ’ ने कहा कि दुर्भाग्य से, झूठे मुकदमों की तादाद बढ़ती जा रही है। कुछ लोग अधिनियम के तहत दर्ज मामलों को कथित अत्याचार का रंग देकर अपना व्यक्तिगत हिसाब-किताब बराबर करते रहते हैं।
  • क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े देखने से पता चलता है कि एसटी/एससी एक्ट में ज्यादातर मामले झूठे पाए गए। सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के बाद इस कानून के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलेगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने आदेश में एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई है और कहा है कि इस ऐक्ट के तहत दर्ज मामलों में जांच के बाद ही आरोप सही पाये जाने पर गिरफ्रतारी की जानी चाहिए।
  • यह सही है कि समाज और कार्यालयों में दलितों के साथ भेदभाव होता रहा है, लेकिन कई मामलों में बेगुनाह लोगों को इसमें फंसा देने की संभावना भी निरंतर बनी रहती है। इससे कार्यालयों में जाति-पाति से उपर उठकर काम करने में सहुलियत होगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में यह कहा कि हमारे पास एक ऐसा देश होना चाहिए, जो जाति-पाति से हटकर हो। इस कानून के तहत जांच का जिम्मा वरिष्ठ अधिकारियों को दिये जाने से न्याय प्रभावित नहीं होगा क्योंकि इसमें वरिष्ठ अधिकारी को जवाबदेही के साथ जांच करनी पड़ेगी।

पक्ष में तर्क

  • महाराष्ट्र पुलिस ने विस्तृत आंकड़ों के आधार पर सरकार को बताया था कि यह कानून दलित समुदाय के अधिकारों की रक्षा करता है और इसका बेजा इस्तेमाल नहीं होता है।
  • पुलिस ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट में बताया कि ज्यादातर आरोपियों के बरी होने का कारण उनका निर्दोष होना नहीं है बल्कि गवाह का अपने बयान से पलट जाना है।
  • हाशिये पर जीने वाले दलित-वंचित समुदायों की सामाजिक हैसियत अन्य तबको की अपेक्षाकृत निम्न दर्जे की होती है। उन्हें चुप कराने के लिए आज भी समाज की वर्चस्वशाली जातियों के लोग विभिन्न तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।
  • सरकार ने लोकसभा में बताया कि 2016 में देशभर में दलितों के खिलाफ भेदभाव और अपमान से जुड़े 40,774 मामले दर्ज किये गए।
  • राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में दलित समुदाय के खिलाफ अत्याचार और अपराध के मामलों 4-5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
  • ये सही है कि कुछ मामले झूठे हैं लेकिन इससे एसटी/एससी अपराध में और वृद्धि होने की संभावना है।
  • देश में अभी भी दलित समाज, समाज की मुख्य धारा से वंचित हैं। इस दृष्टिकोण से उनका बड़े अधिकारियों तक पहुँच पाना मुश्किल होगा अर्थात वे अपनी आवाज आसानी से नहीं उठा पायेंगे।