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Blog / 12 Dec 2018

(राष्ट्रीय मुद्दे) भारत में पुलिस सुधार (Police Reforms in India)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) भारत में पुलिस सुधार (Police Reforms in India)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): एन. के. सिंह (पूर्व संयुक्त निदेशक , सीबीआई), दिव्यानी (सीएचआरआई कार्यकर्ता)

सन्दर्भ:

भारत में पुलिस सुधार कानून एक लम्बी बहस का हिस्सा है जिसको लेकर काफी वक्त से समितियां गठित की जाती रही है। पुलिस के असंवेदनशील रवैये, ग़ैरकानूनी गिरफ्तारी, अपर्याप्त संसान और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने जैसे कुछ मामले भी पुलिस व्यवस्था की निष्पक्षता और कार्यकुशलता पर सवाल खड़े करते हैं।

भारत में ब्रिटिश सरकार के दौरान 1860 में बने पहले पुलिस कमीशन के आधार पर राज्य पुलिस व्यवस्था का निर्माण किया गया है। जिसके अंतर्गत पुलिस के गठन का स्वरुप, कार्यभार और जिम्मेदारियों का ज़िक्र किया गया है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 246 और IPC की धारा-3 के तहत पुलिस राज्य का विषय है, जिसके अनुसार लगभग सभी राज्यों की अपनी पुलिस व्यवस्था है।

हालांकि कुछ राज्यों के अपने पुलिस मैन्युअल भी हैं, जिसमें राज्य पुलिस के संगठन के साथ साथ उनकी भूमिका और जिम्मेदारी का वर्णन किया गया है।

संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, जबकि भारत में इसकी लगभग संख्या सिर्फ 150 के ही आस-पास ही है। 2009 से राज्य पुलिस बलों में कुल 24% से ज़्यदा रिक्तिया हैं जिनमे उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में पुलिस बल की कमी सबसे ज़्यदा है।

पुलिस सुधार के लिए 1977 से 1981 के बीच राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था । इस आयोग ने पुलिस को अधिक जबाबदेह बनाने और अधिक कार्यकारी शक्तियां प्रदान करने जैसी कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की थी ‌। जिसे पूर्ण रूप से अभी तक लागू नहीं किया जा सका है ‌|

इस आयोग के बाद कई और समितियों और कमेटियों का पुलिस सुधार के लिए निर्माण हुआ जिनमें 1998 में रिबेरो कमेटी, 2000 में पद्मनभैया कमेटी, 2003 में मलिमथ कमेटी, और 2005 में पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में मॉडल पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया गया ।

इन सभी आयोगों और कमेटियों ने सामान्य रूप से इस बात पर सहमति जताई कि पुलिस की संरचना में खासतौर से बड़ी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है ।

इसके अलावा 1996 में दायर पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की जनतहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों के लिए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था । जिसमें पुलिस का मूल्यांकन करने, उनकी तैनाती तथा तबादला करने और पुलिस के व्यव्हार की शिकायतें दर्ज करने जैसे 7 महत्त्वपूर्ण आदेश दिए गए थे। लेकिन पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी किए गए निर्देशों पर कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव द्वारा किए गए एक शोध में पाया गया कि केंद्र शासित राज्यों की अपेक्षा इसे अन्य राज्यों में लागू नहीं कराया जा सका है।

सीएचआरआई ने अपने अध्ययन में बताया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए राज्य सुरक्षा आयोग का गठन पुलिस एक्ट या सरकारी आदेश के ज़रिये किया तो ज़रूर गया लेकिन राज्य सुरक्षा आयोग के गठन की प्रक्रिया में राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया।

इसके अलावा 29 राज्यों में से केवल आठ राज्यों द्वारा ही सुरक्षा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट तैयार की गई। जबकि डीजीपी व दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लेकर जारी सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश पर लगभग 23 राज्यों ने कोई ध्यान ही नहीं दिया।

इसी तरह डीजीपी का कार्यकाल कम से कम दो साल होने के निर्देश का पालन भी सिर्फ चार राज्यों द्वारा किया गया है. वहीं, तीसरे निर्देश इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस, डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस, सुपरिंटेंडेंट आॅफ पुलिस और स्टेशन हाउस अॉफिसर को कम से कम दो साल के कार्यकाल दिए जाने के निर्देश का महज 6 राज्य की पालन कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन अभी तक किसी भी राज्य द्वारा नहीं किया जा सका है जिससे पुलिस के असंवेदनशील रवैये पर पकड़ नहीं मज़बूत हो पाई है। हालाँकि 12 राज्यों ने अपने यहां पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन तो किया है लेकिन इनमें से किसी भी राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया है |

साल में 2006 में सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक और कमेटी का गठन किया गया । जिसका उद्देश्य 1861 के पुलिस एक्ट को हटा कर नया ‘मॉडल पुलिस एक्ट’ प्रस्तावित किया था। इस नए एक्ट के तहत जिला और राज्य स्तर पर शिकायतों के निपटारे के लिए अथारिटीज़ बनी और पुलिसकर्मियों के ड्यूटी भी 8घंटे निर्धारित करने की बात कही गई । जिसे बाद में देश के कुल 17 राज्यों ने 1861 के पुलिस एक्ट को छोड़कर नए पुलिस रेगुलेशन बनाये ।

हालांकि ये सभी सुधार ज़्यादातर कागजों तक ही सीमित रह गए हैं जिसके कारण पुलिस व्यवस्था को निष्पक्ष, कार्यकुशल, पारदर्शी और पूर्णरूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सका है । इसके अलावा मौजूदा वक्त में पुलिस व्यवस्था को राजनैतिक दबाव से बचाने, मानवाधिकार संबंधी मुद्दों में बदलाव लाने, तकनीकी अपराध को रोकने और महिला अपराध की बढ़ती संख्या को कम करने के लिहाज से भी पुलिस सुधार की ज़रूरत है ।

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