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Blog / 29 Jul 2020

(Video) Daily Current Affairs for UPSC, IAS, State PCS, SSC, Bank, SBI, Railway, & All Competitive Exams - 29 July 2020

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(Video) Daily Current Affairs for UPSC, IAS, State PCS, SSC, Bank, SBI, Railway, & All Competitive Exams - 29 July 2020



राज्यपाल का पद और राजस्थान संकट

  • आजादी के समय इस बात पर बहुत बहस हुई कि हम आजाद भारत में किस शासन व्यवस्था के तहत शासित होंगें ? शक्ति के स्रोत राज्य या केंद्र दोनों होंगे या सिर्फ एक ? यदि शक्तियों का बंटवारा होता है तो किन-शक्तियों का बंटवारा होगा और कितना होगा?
  • संविधान सभा में चली लंबी बहस के बाद यह निश्चित हुआ कि भारत जैसे विशाल देश और अधिक जनसंख्या के दृष्टिकोण से संघात्मक शासन व्यवसथा (Federal Governance System) ही सर्वाधिक उपयोगी होगा, और इसी व्यवस्था को संविधान में जगह दी गई।
  • संविधान के अनुच्छेद-1(एक) में कहा गया है कि- भारत अर्थात इण्डिया, राज्यों का संघ होगा।
  • संघात्मक शासन व्यवस्था में शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केंद्र सरकार और राज्य सरकार अथवा क्षेत्रीय सरकारों के मध्य होता है।
  • इस संघीय व्यवस्था के 4 प्रमुख लक्षण निम्न है-
  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों का विभाजन
  3. लिखित और कठोर संविधान
  4. स्वतंत्र उच्चतम न्यायालय
  • संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था को तो अपनाया लेकिन वह इसकी कमजोरियों से परिचित थे इसलिए उन्होंने संविधान में कुछ एकात्मक मूल्यों की भी स्थापना की जिससे संघीय व्यवस्था टूट न जाये।
  • इसी एकात्मक शक्ति का एक लक्षण राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा करने का प्रावधान रखा गया।
  • हमारे संविधान का भाग 6 संघीय ढांचे अर्थात राज्यों से संबंधित हैं
  • संविधान के अनुच्छेद-152 से 237 तक राज्य संबंधित प्रावधान रखे गये है।
  • अनुच्छेद-153 प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। एक ही व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद-155 राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
  • राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और वह संघीय प्रणाली का हिस्सा है जो संघ एवं राज्य के बीच एक जोड़ने वाली कड़ी के रूप में कार्य करता है।
  • संविधान के अनुच्छेद-157 और 158 राज्यपाल पद की पात्रता का उल्लेख है।
  • संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को कुछ विवेकाधिकार शक्ति प्रदान करता है, अर्थात वह इन मामलों में राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह मानने हेतु बाध्य नहीं हैं। यह दशायें निम्न है-
  1. चुनाव में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो वह मुख्यमंत्री का चयन अपने विवेक से कर सकता है।
  2. किसी दल को बहुमत सिद्ध करने हेतु कितना समय दिया जाना चाहिए यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है।
  3. आपातकाल के दौरान वह मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं होता है।
  • संवैधानिक विवेकाधिकार के कुछ अन्य मामलें-
  1. राष्ट्रपति के विचारार्थ किसी विधेयक को आरक्षित करना
  2. राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना
  3. राज्य के प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त करना।
  • अनुच्छेद-163 कहता है कि राज्यपाल अपने विवेकाधीन कार्यों के अलावा अन्य कार्यों के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह लेगा अर्थात मुख्यमंत्री एवं परिषद की भूमिका ज्यादा होती है।
  • अनुच्छेद-174 में कहा गया है कि राज्यपाल समय-समय पर राज्य विधानमंडल की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए।
  • सत्र बुलाने के विषय में इसी अनुच्छेद में कहा गया है कि राज्यपाल प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आह्त करेगा। (The Governor Shall from time to time summon the house at such time and place as he the thinks fit)
  • राजस्थान में कई दिनों से एक सियासी संकट बना हुआ हैं इस विवाद के केंद्र में फिर से राज्यपाल का पद है।
  • राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कई दिन से विधानसभा का सत्र बुलाने की मंग कर रहे है और दो बार राज्यपाल को ज्ञापन दे चुके हैं लेकिन राज्यपाल अभी सत्र बुलाने के लिए तैयार नहीं है।
  • सचिन पायलट समेत 19 विधायकों द्वारा कांग्रेस से बगावत करने के बाद यह स्थिति उत्पन्न हुई है।
  • अशोक गहलोत का कहना है कि उनके पास बहुमत है और सत्र बुलाये जाने पर इसे सिद्ध कर सकते है।वहीं मुख्यमंत्री ने राज्यपाल पर आरोध लगाया है कि वह केंद्र सरकार के ईशारे पर या तो सत्र बुलाना नहीं चाहते है या जानबूझकर विलंब करना चाहते हैं।
  • हालिया सूचना के अनुसार राज्यपाल सत्र बुलाने के लिए तैयार हो गये हैं लेकिन एक शर्त के साथ।
  • शर्त यह है कि विधानसभा का सत्र 21 दिन का क्लियर नोटिस देकर बुलाया जाये।
  • पी चिंदबरम ने कहा है कि मुख्यमंत्री बहुमत साबित करना चाहें तो वे सत्र बुलाने के हकदार हैं और कोई उनका रास्ता नहीं रोक सकता है।
  • वहीं कुछ अन्य कांग्रेस समर्थित लोगों का कहना है कि जब सरकार के पास बहुमत है तो राज्यपाल को मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रीपरिषद के अनुसार विधानसभा सत्र बुलाना चाहिए।
  • भारत के 40वें मुख्य न्यायधीश पी- सताशिवम ने एक बातचीत में कहा कि मुख्यमंत्री का समर्थन करने वाले विधायकों की संख्या के संदर्भ में यदि राज्यपाल को संशय हो या विवाद हो तो मंत्रीपरिषद की सलाह पर कार्य करने वाला सामान्य नियम प्रासंगिक नहीं रह जाता है।
  • राजस्थान में सरकार के अल्पमत की बात अभी तक नहीं आई है इसलिए राज्यपाल को मंत्रीपरिषद के अनुसार कार्य करना चाहिए। ऐसा कई संविधान विशेषज्ञों का मानना है।
  • वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने अरूणाचल प्रदेश के एक मामले में कहा था कि सदन का सत्र बुलाने की पूरी शक्ति सिर्फ राज्यपाल में निहित नहीं है। सत्र बुलाने और सदन को भंग करने जैसे फैसले मुख्यमंत्री एवं मंत्रीपरिषद के सलाह पर ही कर सकते हैं, युद्ध से नहीं। यहाँ भी सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह नियम तभी तक प्रभावी होगा जब तक सरकार बहुमत में है, न कि अल्पमत में।
  • संवैधानिक पीठ ने इसमें यह भी कहा था कि मुख्यमंत्री की अनुसंशा के विपरीत समय से पूर्व सत्र बुलाने का फैसला असंवैधानिक होगा।
  • संविधान सभा में चर्चा के दौरान कई सदस्यों ने कहा था कि सदन बुलाने का पूरा अधिकार राज्यपाल के पास होना चिाहए। अंबेडकर ने इसे शक्ति के पृथवकरण एवं संघात्मक व्यवस्था के खिलाफ माना और विरोध किया। इसके बाद संविधान सभा में यह सहमति बनी कि यह सिर्फ राज्यपाल का अधिकार नहीं है।
  • राज्यपाल पद से जुड़ा यह कोई नया विवाद नहीं है। इसी कारण कुछ और निर्णय राज्यपाल से संबंधित महत्त्वपूर्ण है।
  • रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार के वर्ष 2006 में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने यह स्पष्ट किया कि यदि विधानसभा चुनावों मे किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो उन्हें सरकार बनाने देना चाहिए भले ही गठबंधन चुनाव पूर्व या बाद में हुआ हो।
  • अनुच्छे-356 का दुरूपयोग बहुत ज्यादा होता आया है, जिसका प्रयोग कर केंद्र सरकारें राज्य सरकारों को भंग करती आई है।
  • एस-आर- बोम्बई बनाम भारत सरकार नामक 1994 के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिए और राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार काे शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।
  • प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग, जो केंद्र सरकार द्वारा मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में गठित की गई थी, इसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच तनाव न बढ़े इसलिए यह सिफारिश की थी कि राज्यपाल के पद पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए जो किसी दल विशेष से न जुड़ा रहा हो।
  • केंद्र एवं राज्य संबंधों पर विचार करने के लिए 1970 में राजमन्नार समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने 356 के दुरूपयोग को देखते हुए अनुच्छेद-356 एवं 357 के विलोपन (Deletion) की सिफारिश की थी। इसके अलावा समिति ने यह भी कहा कि राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
  • कई बार ऐसे अवसर आये जब राज्यपालों ने इस तरह बर्ताव किया कि वह सिर्फ केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं।
  • इसी कारण सरकारिया आयोग ने 1988 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है और राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधिनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।
  • वर्ष 2007 में गठित पुंछी आयोग ने भी कहा है कि राज्यपाल का कार्य एकपक्षीय अथवा अवास्तविक नहीं होना चाहिए। उनका कार्य नेकनियती द्वारा प्रेरित तथा सतर्कता द्वारा संतुलित होना चाहिए।
  • 1952 में पहले आम चुनाव के बाद ही राज्यपाल के पद का दुरूपयोग शुरू हो गया। मद्रास में अधिक विधायकों वाले संयुक्त मोर्चा के बजाय कम विधायकों वाली कांग्रेस नेता सी- राजगोपालचारी को सरकार बनाने का मौका दिया गया।
  • 1954 में पंजाब की कांग्रेस सरकार को ही बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री के बीच मतभेद थी।
  • 1959 केरल की नम्बूदिरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।
  • 1967 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने बहुमत दल के नेता अजोय मुखर्जी की सरकार को बर्खास्त कर कांग्रेस समार्थित पी.सी. घोष की सरकार की बनवा दी थी।
  • 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी-वी- नरसिम्हाराव ने बीजेपी शासित चार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया।
  • इतिहास में बी.जे.पी. ने भी कई बार ऐसा किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि दल कोई भी हो वह पद का दुरूपयोग करता है।यही कारण है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तित होते ही राज्यपालों को बदलने की कवायद शुरू हो जाती है। इसलिए राज्यपाल भी संबंधित केंद्र सरकार के हित में सोचते है।
  • इसलिए कई समीक्षकों का कहना है कि इस पद पर गैर राजनीतिक व्यक्ति को चुना जाये, राज्यपाल को कार्य की सुरक्षा दी जाये।
  • राज्यपाल के पद और उसकी शक्तियों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है ताकि रजनीति गतिरोध कम हो सकें।