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Blog / 19 Sep 2019

(आर्थिक मुद्दे) सरकारी बैंकों का विलय (Merger of Indian Banks)

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(आर्थिक मुद्दे) सरकारी बैंकों का विलय (Merger of Indian Banks)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)

अतिथि (Guest): एस. के. तिवारी (इंडियन इकोनोमिक सर्विस), प्रोफेसर अनिल कुमार उपाध्याय (बैंकिंग मामलों के जानकार)

चर्चा में क्यों?

अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में चल रही मंदी की आहट और बेरोज़गारी के बीच, गत 23 अगस्त को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक सुधारों के मद्देनज़र कई बड़े ऐलान किए। इन सब में सबसे बड़ा ऐलान सरकारी बैंकों के विलय को लेकर था। इसके तहत 10 सरकारी बैंकों का आपस में विलय करके चार बड़े बैंकों के रूप में बनाने की योजना है।

इसके अलावा, हाल ही में, भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी जमा पूंजी से सरकार को चालू वित्त वर्ष के लिए 1.76 लाख करोड़ रुपए देने का एलान किया। केंद्रीय बैंक ने यह फैसला जालान समिति की सिफारिश पर किया है। आरबीआई द्वारा सरकार को इससे पहले भी अपने अधिशेष से पैसे दिए जा चुके हैं।

विलय को लेकर क्या ऐलान किया गया?

विलय योजना के तहत ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में; सिंडिकेट बैंक के साथ केनरा बैंक; मुंबई स्थित यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के साथ आंध्रा बैंक और कॉर्पोरेशन बैंक; और इंडियन बैंक के साथ इलाहाबाद बैंक का विलय किया जाएगा। ग़ौरतलब है कि 2017 की तुलना में जहाँ कुल 27 बैंक अस्तित्व में थे वही कई बार विलय के बाद अब केवल 12 बैंक रहेंगे।

विलय के पक्ष में क्या तर्क दिए जा रहे हैं?

बैंकों को उनके समान परिचालन क्षमता और उनकी पूंजी और तकनीकी क्षमताओं के आधार पर किया जा रहा है।

  • विलय का मुख्य मक़सद देश में वैश्विक स्तर के बैंकों का निर्माण करना है।ये बड़े बैंक 2025 तक $ 5-ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने बड़े आकार और बड़ी बैलेंस शीट का लाभ उठा सकते हैं।
  • विलय के बाद इन बैंकों के पास काफी संसाधन होंगे, जिससे इनकी कर्ज देने की लागत भी घटेगी।
  • बैंकों का आपस में विलय करने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाएगा और इस प्रकार वे अर्थव्यवस्था में अचानक आने वाले किसी संकट का मज़बूती से सामना कर पाएंगे। इसके अलावा वे बढ़ते साइबर हमलों और ऑनलाइन फ्रॉड से अपना सिस्टम सुरक्षित रखने के लिए नई तकनीकों पर खुलकर निवेश कर सकेंगे।
  • नरसिम्हन समिति समेत तमाम विशेषज्ञ समितियों ने सिफारिश की थी कि “भारत में पूंजी का अधिकतम उपयोग, संचालन की दक्षता, व्यापक पहुंच और ज्यादा लाभ के लिए कुछ बड़े और कुशल प्रबंधित बैंक होने चाहिए।”
  • बड़े बैंक उभरते बाजारों के अनुसार ना केवल वित्तीय जरूरतों को पूरा कर पाएंगे बल्कि निजी बैंकों के साथ अत्यधिक प्रतिस्पर्धा करने में भी सक्षम हो सकते हैं।

छोटे-छोटे बैंक होने से क्या दिक्कतें पैदा होती हैं?

एक वक्त सरकार 25 से ज्यादा बैंकों में सबसे बड़ी शेयर धारक थी। इसके कारण सरकार को बैंकों के लिए पूंजी उपलब्ध करानी पड़ती थी। छोटे बैंकों को बाजार में टिके रहने के लिए लगातार और अधिक और अधिक पूंजी की जरुरत रहती थी।

शिक्षा स्वास्थ्य और अन्य कार्यक्रमों के लिए धन की व्यापक मांग होने के कारण पिछले कुछ सालों में इन बैंकों के लिए बजट में फंड के लिए अतिरिक्त प्रावधान किए गए।

  • विशेषज्ञ समितियों के द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि संकीर्ण भौगोलिक क्षेत्रों में कई बैंकों के होने से इनमें जमा या क़र्ज़ को लेकर आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जिससे प्रत्येक बैंक की लागत बढ़ जाती है।
  • इसलिए बड़े बैंकों के संदर्भ में सरकार का इरादा यह है कि “बड़े बैंक दक्षता के साथ कार्य करते हुए कर्ज़ की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने में सक्षम होंगे। इससे सरकार पर बैंकों के लिए पूँजी की व्यवस्था करने का दबाव कम होगा।”

विलय के रास्ते में क्या-क्या चुनौतियाँ हैं?

इस तरह के विलय में मुख्य रूप से विलय होने वाले संस्थानों के कर्मचारियों और यूनियनों का प्रतिरोध।

  • इसके साथ ही बैंकों में काम का माहौल, कर्मचारियों की पुनः तैनाती और कैरियर से जुड़े अवसर कम हो सकते हैं।विलय के शुरुआती दिनों में प्रबंधन के ऊँचे पदों पर बैठे लोगों का ज्यादा ध्यान अपने करियर पर रहेगा। यह लोग इस बात में ज्यादा मशगूल हो सकते हैं कि किसको कौन सा पद मिलेगा या मिला। ऐसे में विलय के असल मकसद से ध्यान हट सकता है।
  • विलय के कारण सेवाओं का प्रभावित होना।
  • कम प्रतिस्पर्धा के कारण ग्राहकों को क़र्ज़ और बैंकिंग संबंधी उत्पादों का कम होना।
  • विलय के बाद सम्मिलित रूप से बैड लोन या डूबत कर्ज बढ़ सकता है। नरसिम्हन समिति ने इस बात की ज़रूरत तो बतायी थी कि देश में बड़े और कुशल बैंक होने चाहिए, लेकिन इस बात को साफ़ नकार दिया था कि डूबते बैंकों का बड़े बैंकों में विलय किया जाए।
  • बड़े बैंकिंग संस्थानों की विफलता की स्थिति में सरकार की वित्तीय स्थिरता व्यापक रूप से प्रभावित हो सकती है।
  • सबसे बड़ी चिंता यह सुनिश्चित करने की है कि “वर्तमान में बैंकिंग कामों में कोई व्यवधान ना हो और बैंक व्यापक रूप से ऋण प्रदान करते रहे, क्योंकि जरा भी देरी मंदी की ओर ले जाएगी।
  • कुछ अध्ययनों से मिले निष्कर्षों के अनुसार केवल 50% विलय ही सफल रहा।इसके पहले भी बैंकों का विलय किया गया है लेकिन इसका लाभ उस स्तर तक नहीं मिला है जितनी कि उम्मीद की जा रही थी। ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि इस बार विलय का बहुत अच्छा लाभ मिलेगा ही।

भारतीय रिजर्व बैंक की ज़िम्मेदारी बढ़ जाएगी

भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआई उन सभी बड़े संस्थानों की निगरानी करता रहा है, जिनकी संभावित विफलता बैंकों और वित्तीय क्षेत्र समेत अन्य संस्थानों को प्रभावित कर सकते हैं। इनका सम्मिलित प्रभाव अन्य बैंकों पर भी आम जनता के विश्वास को ख़त्म कर सकता है। इस संदर्भ में हालिया उदाहरण आईएलएंडएफएस ग्रुप का लिया जा सकता है, जिसकी वित्तीय स्थिति खऱाब होने से कई निवेशकों और कर्जदाता व्यापक रूप से प्रभावित हुए। कुल मिलाकर बड़े आकार के बैंकों के निर्माण का मतलब होगा कि आरबीआई को बढ़े हुए जोखिमों को दूर करने के लिए अपनी पर्यवेक्षी और मानिटरिंग प्रक्रियाओं में सुधार करना होगा।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

बैंकों के विलय के बाद उनका आकार तो बड़ा ज़रूर हो जाएगा, लेकिन उनकी जो मुख्य समस्या है वह गवर्नेंस की है। इसलिए बैंकिंग गवर्नेंस और प्रबंधन की दिशा में सुधार करना बहुत जरूरी है। इसमें बोर्ड स्तर की नियुक्तियों और ऊंचे पदाधिकारियों की नियुक्ति जैसे अहम सुधार शामिल हैं। इसके अलावा बड़े बैंक होने के कारण थोड़ी सी भी वित्तीय स्थिरता बड़ा प्रभाव डाल सकती है। इसलिए केंद्रीय बैंक यानी आरबीआई को अपनी मॉनिटरिंग और चुस्त-दुरुस्त करनी होगी।