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Blog / 19 Feb 2020

(Wide Angle with Expert) ओजोन क्षरण द्वारा सुनील वर्मा (Ozone Depletion by Sunil Verma)

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(Wide Angle with Expert) ओजोन क्षरण द्वारा सुनील वर्मा (Ozone Depletion by Sunil Verma)


विषय का नाम (Topic Name): ओजोन क्षरण (Ozone Depletion)

विशेषज्ञ का नाम (Expert Name): सुनील वर्मा (Sunil Verma)


  • पृथ्वी की सतह से लगभग 10,000 कि.मी. की उंचाई तक वायुमंडल का विस्तार पाया जाता है।
  • यह वायुमंडल अनेक गैसों से निर्मित है जिसमें गैसें अलग-अलग अनुपात एवं उंचाई पर पायी जाती है।
  • नाइट्रोजन सर्वाधिक मात्रा में (78.84%) पाया जाता है। इसके बाद ऑक्सीजन 20.946%, आर्गन 0.934%, कार्बनडाईऑक्साइड 0.0407% पाया जाता है।
  • इन प्रमुख गैसों के अलावा कुछ ग्रीन हाउस गैसें एवं पृथ्वी के सुरक्षा कवच के रूप में जानी जाने वाली ओजोन पाई जाती है।
  • ओजोन ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं के जुड़ने से बनने वाली गैस है।
  • समताप मण्डल के जिस भाग में यह गैस सर्वाधिक मात्रा में पाई जाती है जिसे ओजोन परत या ओजोन मंडल के नाम से जाना जाता है।
  • यह परत इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों का 93.93% मात्रा का अवशोषण कर लेती है।
  • इस परत की खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविद फैबरी चाल्र्स और हैनरी बुसोन ने की थी।
  • ओजोन एवं पराबैंगनी किरणों के बीच होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया के क्षेत्रा में सर्वाधिक खोज ब्रिटेन के मौसम विज्ञानी जीएम डोबसन ने किया था।
  • इन्हीं के नाम पर ओजोन की मात्रा मापने की सुविधजनक इकाई को डॉबसन के इकाई के नाम से जाना जाता है।
  • ओजोन की कम होती मात्रा पृथ्वी और मानव सभ्यता के लिए संकट उत्पन्न कर सकती है इसलिये इसका संरक्षण आवश्यक है।

ओजोन के संरक्षण हेतु किये गए प्रयास

  • 70 के दशक से ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ओजोन की परत को हानि पहुँचाने वाले पदार्थों के प्रति सतर्क होने लगा था। 1973 में शेरवुड और मोलिना (कैलिपफोर्निया विश्वविद्यालयद्) ने पृथ्वी के वायुमण्डल में “CFC गैसों” के प्रभावों का अध्ययन शुरू किया और उन्होंने पाया कि ये गैसें समताप मण्डल में भारी मात्रा में ओजोन क्षरण कर रहीं हैं इस कार्य के लिए उन्हें 1995 में रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। इन वैज्ञानिकों के अध्ययन के बाद 1976 में अमेरिका की ‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ ने भी ओजोन क्षरण की परिकल्पना के वैज्ञानिक साक्ष्य दिये।
  • 1985 में वैज्ञानिकों के एक दल ने अपने गहन अध्ययन में पाया कि दक्षिणी धु्रव अंटार्कटिकाद्ध के पास ओजोन क्षरण के फलस्वरूप ‘ओजोन छिद्र’ का निर्माण हुआ है। उपर्युक्त वैज्ञानिक तथ्यों को संज्ञान में लेते हुए ओजोन परत की सुरक्षा के लिए 1985 में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु ‘वियना कन्वेंशन’ हुआ। इस सहयोग की परिणति 1987 में ओजोन परत के क्षयकारी पदार्थों पर नियंत्राण हेतु ‘मान्ट्रियल प्रोटोकाल’ पर हस्ताक्षर के रूप में हुई।

मोंण्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)

  • ओजोन परत की रक्षा के लिए 1985 में ‘वियना ओजोन परत संरक्षण समझौता’ हुआ लेकिन इसके प्रावधानों को लागू करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकी। इसी कड़ी में 16 सितम्बर, 1987 को ‘माण्ट्रियल ओजोन परत संरक्षण संधि’ पर हस्ताक्षर किए गये, जिसको जनवरी, 1989 से लागू किया गया। इस अंतर्राष्ट्रीय संधि का लक्ष्य मनुष्य द्वारा निर्मित उन पदार्थों को जो ओजोन परत के लिए हानिकारक हैं, कम करके हुए, उन्हें पूरी तरह समाप्त करना है। यह संधि या प्रोटोकॉल एक बाध्यकारी समझौता है। इस प्रोटोकॉल को व्यवहारिक रूप से लागू करने हेतु सदस्य देशों द्वारा हर वर्ष ‘MOP’ (Meeting of Parties) होती है।
  • इन ‘MOPs’ के माध्यम से ‘माण्ट्रियल प्रोटोकॉल’ में कई संशोधन हुए। यथा- लंदन संशोधन (1990), कोपेनहेगन संशोधन (1992द्) और किगाली संशोधन (2016) आदि। मोंण्ट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा कृषि, औद्योगिक क्षेत्रा एवं अन्य मानवीय गतिविधियों में उपयोग होने वाले ‘ओजोन विघटनकारी पदार्थों’ की खपत एवं वैश्विक उत्पादन में कमी लाने का लगातार प्रयास किया गया है। 2010 से इस प्रोटोकॉल का एजेंडा ‘HCFC गैसों’ (Hydro-chlro-fluro-carbons) को धीरे-धीरे बाहर करने पर केन्द्रित हो गया है। 2015 में दुबई में आयोजित 27वें MOP में ‘HFCs’ में कमी लाने हेतु ‘दुबई पाथवे’ (Dubai Pathway) को अपनाया गया, जिसके द्वारा इस सदी के अंत तक 0.5°C वैश्विक तापमान में कमी आ सकती है। माण्ट्रियल प्रोटोकाल के स्वीकार के बाद से अब तक इसकी 29 ‘MOP सम्मेलन’ हो चुके है।

जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:

  • हेलसिंकी (1989) - यह प्रथम सम्मेलन था।
  • लंदन (1990)
  • नैरोबी (1991)
  • कोपेनहेगन (1992)
  • माण्ट्रियल (1997)
  • बीजिंग (1999)
  • बैंकाक (2010) - यह मांण्ट्रियल प्रोटोकाल की 22वीं MOP थी, जिसमें ‘HCFC गैसों’ के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया गया था।
  • दुबई (2015) - इसमें ‘दुबई पाथ वे’ को अपनाया गया।

किगाली समझौता

  • किगाली (2016) -इस समझौते में ओजोन क्षरण के लिए जिम्मेदार गैसों के अलावा ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों को ‘माण्ट्रियल प्रोटोकाल’ में संशोधन कर शामिल किया गया। यह संशोधित माण्ट्रियल प्रोटोकाल 2019 से सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी हो जायेगा। सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों को ‘HFCs’ की कटौती की अलग-अलग समय सीमा के साथ तीन समूहों में विभाजित किया गया। प्रथम समूह में अमेरिका जैसे विकसित देशों को रखा गया जबकि तीसरे समूह में भारत, ईरान, पाकिस्तान और सउफदी अरब जैसे विकासशील देशों को रखा गया है। तीसरे समूह के देशों को 2020 तक ‘HFCs’ के उपयोग को स्थिर कर 2047 तक इसे 2023 के स्तर से 15% तक कम करना है। 10- माण्ट्रियल (2017) - यह ‘माण्ट्रियल प्रोटोकाल’ के संबंध में 29वीं MOP थी, जो कनाडा के माण्ट्रियल शहर में आयोजित हुयी।

  • खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों, हाइड्रोफ्रलोरोकार्बन गैस के उत्सर्जन में कटौती पर ऐतिहासिक समझौता
  • रवांडा (Rwanda) के नगर किगाली में अक्टूबर 2016 को 197 देशों ने ग्रीनहाउस गैस समूह के प्रबल गैसों को रोकने के लिए समझौता किया है। ऐसा करने से शताब्दी के अंत तक विश्व के तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आ जाने की उम्मीद है।

हाइड्रोफ्रलोरोकार्बन क्या है?

  • यह ग्रीनहाउस परिवार की ऐसी गैस है, जो घरों एवं कारों में ठंडक देने वाले उपकरणों में प्रयोग की जाती है।
  • 1 किग्रा. कार्बन डाइआक्साइड की तुलना में यह गैस 14,800 गुना अधिक गर्मी बढ़ाती है।
  • विश्व में बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों में इसका अनुपात सबसे ज्यादा है। इसका उत्सर्जन प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत बढ़ रहा है।

समझौते की विशेषता क्या है?

  • भारत, चीन एवं अमेरिका जैस देशों ने 2045 तक एचएपफसी के प्रयोग में 85 प्रतिशत कमी करने का संकल्प किया है।
  • इस समझौते में 1987 के मोंन्ट्रियल समझौते में एक प्रकार से सुधार किया गया है। पहले जहां महत्त्वपूर्ण देश ओजोन परत का नाश करने वाली गैसों के नियंत्राण तक ही सीमित थे, वे अब ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी गैसों के नियंत्राण की बात कर रहे हैं। यह समझौता एक तरह से पेरिस समझौते की ही पुष्टि है, जिसमें सन् 2100 तक विश्व के तापमान में 2° सैल्सियस की कमी करने का प्रस्ताव पारित किया गया था।
  • इस समझौते में शामिल सभी देशों ने एचएफसी पर नियंत्राण के लिए अलग-अलग समय सीमा रखी है। भारत ने अपनी समय सीमा 2028 रखी है।
  • इस समझौते में अभी एच.एफ.सी के 19 प्रकारों में से केवल एक प्रकार एच.एफत्र.सी-23 को ही चरणबद्ध तरीके से हटाने की बात कही गई है।
  • इस समझौते में दी गई समय सीमा का पालन न करने वाले देशों को दंड दिए जाने का भी प्रावधान रखा गया है।
  • समझौते के बिन्दुओं की पूर्ति के लिए विकसित देश पर्याप्त धनराशि मुहैया कराएंगे। साथ ही एच.एफ.सी के विकल्प के लिए शोध एवं अनुसंधान को वरीयता पर रखा गया है।

भारत की भूमिका

  • समझौते में भारत ने 2024-2026 की बेसलाइन पर 2031 तक एचएफसी को फ्रीज करने का लक्ष्य रखा है। इसका अर्थ है कि वह 2024-2026 में जितनी एचएफसी का उत्सर्जन कर रहा होगा, उसे 2031 के बाद बिल्कुल बढ़ने नहीं देगा।
  • भारत जैसे कई विकासशील देश एचएफसी के उत्सर्जन को खत्म करने के लिए समय सीमा बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं, क्योंकि एचएफसी के विकल्प के रूप में प्रयुत्त रेफ्रीजरेटर का पेटेंट मूल्य बहुत अधिक है।
  • रेफ्रीजरेटर का निर्माण करने वाली कंपनियों को प्रति किलो एचएफसी 23 को नष्ट करने में 19 रुपये की लागत आएगी। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ये कंपनियां इसका बोझ उपभोत्तफाओं पर डालेगी। हालांकि भारत ने विकसित देशों से मांग की है कि वे हमारी रेफ्रीजरेटर कंपनियों को वैकल्पिक रेफ्रीजरेटर की कीमत का बोझ उठाने में सहयोग दें।
  • विश्लेषकों का अनुमान है कि किगाली समझौते से भारत के आर्थिक विकास के भविष्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

निष्कर्ष

  • आज विश्व अनेक पर्यावरणीय समस्याओं जैसे ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का ह्रास, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संकट आदि से जूझ रहा है। ये समस्याएँ मानव के अंधा धुंध विकास का ही परिणाम है।
  • 1960 के दशक से मानव जाति इन समस्याओं के प्रति सजग हुई। अब पर्यावरण संकट एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन गया जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता महसूस की गई। इसी संदर्भ में 5 जून, 1972 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टोकहोम में पहला विश्व पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया।
  • यहाँ पहली बार विश्व समुदाय ने वायु प्रदूषण, रासायनिक विषैलेपन, परमाणु तथा सागरीय प्रदूषण पर चर्चा की। स्टाकहोम सम्मेलन एक ऐसी घटना थी जिसने पर्यावरण को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अहम मुद्दा बना दिया।
  • इसने पर्यावरण संकट पर विकसित तथा विकासशील देशों को एक ही मंच पर लाकर खड़ा कर दिया। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप ही पर्यावरण राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय ऐजेन्डे का एक अहम मुद्दा बना। स्टाकहोम सम्मेलन पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्रा में मिल का पत्थर साबित हुआ है।
  • इससे प्रेरणा लेकर ही अन्य सम्मेलनों जैसेः रियो सम्मेलन, क्योटो सम्मेलन, जोहान्सबर्ग सम्मेलन तथा बाली सम्मेलन ने अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसकी एजेंसियों के लिए पर्यावरण की सुरक्षा एक मुख्य चिंता का विषय बन गया है।
  • पर्यावरण सम्मेलनों में, प्रदूषण की मात्रा को यथासंभव कम करने की दिशा में कार्य किया जा रहा है ताकि यह धरती सभी प्राणियों के रहने के लिए पहले की अपेक्षा अधिक सुरक्षित स्थान बन जाए।
  • पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने में सभी देशों का सहयोग आवश्यक है। इस संदर्भ में उत्तर-दक्षिण विभाजन एक बड़ी चुनौती है। विषय की गंभीरता को देखते हुए आज आवश्यकता है कि विकसित देश इस दिशा में एक सार्थक भूमिका निभाए। पर्यावरणीय संकट से निपटने में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को एक मजबूत नेतृत्व प्रदान किया है।
  • यह उसके प्रयासों का ही फल है कि आज सभी देश समस्या के समाधान के लिए एक मंच पर आ गये हैं। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत का ह्रास तथा जैव-विविधता संकट के समाधान पर सभी देश एकजुट हैं। विश्व समुदाय संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में पर्यावरण संकट से मानव जाति के अस्तित्व को बचाने में प्रयासरत हैं।