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Blog / 10 Oct 2019

(Wide Angle with Expert) अफ़ग़ान संकट: अफ़ग़ानिस्तान, पकिस्तान का तालिबानीकरण (भाग - 3) - द्वारा विनय सिंह (Afghan Crisis: Dominance of Taliban in Afghanistan and Pakistan "Part - 3" by Vinay Singh)

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(Wide Angle with Expert) अफ़ग़ान संकट: अफ़ग़ानिस्तान, पकिस्तान का तालिबानीकरण (भाग - 3) - द्वारा विनय सिंह (Afghan Crisis: Dominance of Taliban in Afghanistan and Pakistan "Part - 3" by Vinay Singh)


विषय का नाम (Topic Name): अफ़ग़ान संकट: अफ़ग़ानिस्तान, पकिस्तान का तालिबानीकरण (भाग - 3) (Afghan Crisis: Dominance of Taliban in Afghanistan and Pakistan "Part - 3")

विशेषज्ञ का नाम (Expert Name): विनय सिंह (Vinay Singh)


अपनी पिछली कक्षाओं में हमने अफगान संकट की पृष्ठभूमि को समझा और साथ ही, जाना कि किस तरह अफ़ग़ानिस्तान दुनिया की बड़ी महाशक्तियों की रणभूमि बनकर रह गया। ‘अफगान संकट’ की इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी में हम समझेंगे कि किस तरह यहां पर अलक़ायदा और तालिबान जैसे समूहों का उदय हुआ और इनका क्या प्रभाव पड़ा।

डूरंड लाइन

पश्तनू आमू दरिया से लेकर सिंध तक फैले हुए थे। पश्तूनों के इस विस्तार को देखते हुए अंग्रेजों का ऐसा मानना था कि ये लोग कहीं तक भी आगे बढ़कर अराजकता फैला सकते थे। इस समस्या को देखते हुए अंग्रेजों ने 1893 में अफग़ानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच एक सीमा रेखा खींच दिया। इस सीमा रेखा को ‘डूरंड लाइन’ नाम दिया गया। डूरंड लाइन के तहत आधा पश्तून और आधा बलूचिस्तान का इलाक़ा ब्रिटिश भारत में शामिल हो गया और अफ़गानिस्तान एक अलग देश के रूप में स्थापित हो गया।

तत्कालीन ब्रिटिश भारत और अफग़ानिस्तान के बीच मौजूद यह सीमा रेखा वहां की स्थानीय जनता को मानसिक तौर पर स्वीकार नहीं था। कमोबेश आज भी यह रेखा अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच विवाद के एक जड़ के रूप में बनी हुई है। इन्हीं विवादों के कारण 21वीं सदी में यह क्षेत्र अपराध, मादक पदार्थ और अन्य तरह की उपद्रवी गतिविधियों का केंद्र बन गया।

दो महत्वपूर्ण टर्निंग पॉइंट्स: 1947 और 1978

साल 1947: साल 1947 में भारत का विभाजन हो गया। उस समय की डूरंड लाइन जो ब्रिटिश भारत और अफग़ानिस्तान के बीच सीमा रेखा थी, 1947 में पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच की सीमा रेखा बन गई। पाकिस्तान का वर्तमान खैबरपख्तूनख्वा प्रांत अविभाजित भारत का पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत कहा जाता था। 1946 के चुनाव के दौरान इस इलाके में कांग्रेस की सरकार बनी थी। ध्यातव्य हो कि मुस्लिम लीग ने इस चुनाव को ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के आधार पर ही लड़ा था। ऐसे में, वहां पर कांग्रेस की सरकार का बनना यह इंगित करता था कि पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत ने अखंड भारत की संकल्पना को स्वीकार किया था। सन 1948 में कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया जिसमें कश्मीर का कुछ इलाक़ा पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में आ गया। परिणामस्वरूप भारत का अफ़गानिस्तान के साथ भौगोलिक संपर्क टूट गया।

साल 1978-79: इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान और इसके आसपास के इलाके में निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई। जिनका अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास पर काफी प्रभाव देखा जा सकता है।

  • ईरान में इस्लामी क्रांति
  • पाकिस्तानी जनरल ज़िया उल हक द्वारा ज़ुल्फ़िकार अली को फांसी दिया जाना
  • USSR का अफ़ग़ानिस्तान में आक्रमण

दरअसल 1978-79 के पहले ईरान में राजतंत्र था और वहां पर शाह की सरकार थी। लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद अमेरिका समर्थित शाह की सरकार को हटाकर वहां पर लोकतंत्र बहाल करने की कोशिश की गई। उसके बाद जो नई सरकार वहां पर बनी वह तथाकथित तौर पर अमेरिका विरोधी यानी सोवियत संघ समर्थित सरकार मानी जाने लगी। ईरान की इस नई सरकार पर आरोप लगने लगा कि यह पूरे मध्य एशिया में इजरायल विरोधी और अमेरिका विरोधी भावनाएं भड़का रहा है, जिसमें सोवियत संघ का समर्थन भी शामिल है। चूँकि यह पूरा इलाका ऊर्जा की दृष्टि से काफी समृद्ध है इसलिए यहां पर अमेरिका और सोवियत संघ समेत बड़ी महाशक्तियों की रुचि स्वाभाविक थी।

इन सभी परिस्थितियों को समझते हुए अमेरिका ने ‘डिवाइड एंड रूल’ का कार्ड खेला और पूरे इलाके में ‘शिया बनाम सुन्नी’ को हवा देना शुरू कर दिया। साथ ही, अमेरिका ने ईरान के खिलाफ ‘घेरेबंदी की नीति’ प्रारंभ कर दी। पश्चिम की तरफ़ से अमेरिका ने इराक़ का समर्थन करते हुए इराक-ईरान युद्ध को भड़का दिया और पूर्व की तरफ से सुन्नी बाहुल्य देश पाकिस्तान के माध्यम से चरमपंथी समूहों को समर्थन देना चालू कर दिया। उस वक़्त पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक की सरकार ने अपनी तत्कालीन परिस्थितियों के चलते इस अमेरिकी मदद को बड़े ही खुले हृदय से स्वीकार किया। दूसरी तरफ अफग़ानिस्तान में सोवियत संघ प्रवेश कर चुका था, इसलिए पश्तूनों ने भी सोवियत संघ को भगाने के उद्देश्य से अमेरिकी मदद को बखूबी स्वीकार किया। दरअसल जनरल जिया उल हक द्वारा अमेरिकी मदद को स्वीकार करने के पीछे उनके निम्नलिखित तीन उद्देश्य पूरे हो रहे थे:

  • पाकिस्तान की सैन्य शासन को अंतरराष्ट्रीय वैधता प्राप्त होना
  • सेना की गौरव वापसी
  • बड़े पैमाने पर अमेरिका द्वारा वित्तीय सहायता मिलना
  • डूरंड लाइन की समस्या से जनता का ध्यान भटकाना

इन सभी घटनाओं का क्या परिणाम हुआ?

80 के दशक में उपर्युक्त घटनाओं का पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर एक बड़ा प्रभाव देखने को मिला। दरअसल इस दौरान एक तरफ अफ़ग़ानिस्तान में एक सोवियत संघ समर्थित सरकार थी दूसरी तरफ मुजाहिद्दीन यानी जेहादी लड़ाके थे, जो इस सरकार को हटाकर एक इस्लामिक सत्ता की स्थापना करना चाहते थे। इन मुजाहिद्दीनों को अमेरिका और खाड़ी देशों का समर्थन मिल रहा था। खाड़ी देश और अमेरिका इन लड़ाकों को हथियार और वित्त आदि की आपूर्ति कर रहे थे। दिलचस्प बात यह है कि मुजाहिद्दीनों को इन खाड़ी देशों से न केवल हथियार और वित्त की आपूर्ति हो रही थी, बल्कि उन्हें वहाँ से सलाफी और वहाबी जैसी से अतिकट्टरतावादी विचारधारा की भी प्रेरणा मिल रही थी। इस तरह यह पूरा क्षेत्र संघर्ष की आग में जलने लगा था।

सोवियत संघ विरोधी यह संघर्ष अमेरिका पर कैसे केंद्रित हो गया?

साल 1990-91 तक सोवियत संघ का विघटन हो जाता है और दूसरी तरफ इसकी सेनाएँ अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौटने लगती हैं। इस तरह, इस इलाके में साम्यवाद विरोधी संघर्ष कमजोर पड़ने लगता है और अमेरिका की रुचि भी कम होने लगी थी। लेकिन तब तक पश्तून लड़ाकों को ‘इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफ़ग़ानिस्तान’ की स्थापना करने का उद्देश्य मिल चुका था। इसी उद्देश्य से उन्होंने साल 1994 में तालिबान नामक एक संगठन की स्थापना भी कर ली और सत्ता हथियाने के लिए सशस्त्र विद्रोह का रास्ता चुना। दूसरी तरफ पश्तून के अलावा दूसरे समूहों ने सत्ता में भागीदारी पाने के लिए ‘उत्तरी गठबंधन’ नामक एक अलग संगठन का निर्माण किया। इन पूरी परिस्थितियों ने अफ़ग़ानिस्तान में एक दीर्घकालिक गृह युद्ध को बढ़ावा दे दिया।

अलक़ायदा और तालिबान में मूलभूत अंतर: सामान्यतः अल-कायदा और तालिबान को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह दोनों संगठन एक दूसरे से अलग भी हैं और इनमें कुछ समानता भी है। जहां तालिबान सशस्त्र विद्रोह का रास्ता अपनाता है तो वहीं अल-कायदा आतंकवाद के रास्ते पर चल रहा है। इसके अलावा तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान में केंद्रित हैं, जबकि अल-कायदा की वैश्विक धमक देखी जा सकती है। अल-कायदा का उद्देश्य पूरी दुनिया में हिंसा के रास्ते शरियत व्यवस्था लागू करना है। अल-कायदा की 9/11 की घटना ने अमेरिका और इन लड़कों के बीच के तनाव को और बढ़ा दिया। बहरहाल इन दोनों संगठन का उद्देश्य जो भी हो, लेकिन उनका बेस अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर बन चुका है जिसका परिणाम इस पूरे इलाके में अशांति और उपद्रव के रूप में देखा जा सकता है।