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Blog / 28 Sep 2020

(इनफोकस - InFocus) लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट - 2020 (Living Planet Report 2020)

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(इनफोकस - InFocus) लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट - 2020 (Living Planet Report 2020)



सुर्ख़ियों में क्यों?

  • हाल ही में, ‘वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर’ द्वारा ‘लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट-2020’ जारी किया गया.
  • रिपोर्ट के मुताबिक, पिछली आधी सदी में कशेरुक यानी Vertebrate प्रजातियों की आबादी में बड़े पैमाने पर गिरावट दर्ज की गई है।
  • आपको बता दें कि ऐसे जीव-जंतु जिनमें रीढ़ की हड्डी मौजूद होती है, उन्हें कशेरुक कहते हैं।

महत्वपूर्ण बिंदु

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड फॉर नेचर एक अंतर्राष्ट्रीय NGO है, जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए काम करता है। अप्रैल, 1961 में स्थापित इस संगठन का मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के रुए मौवेर्नी में स्थित है। संगठन का मकसद वन्यजीवों का संरक्षण और पर्यावरण पर मानव के प्रभाव को कम करना है।

  • साल 1998 से यह संस्था हर 2 साल पर 'लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट' प्रकाशित करती है।
  • ‘लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट-2020’ को तैयार करने के लिए ‘लिविंग प्लैनेट इंडेक्स’ का इस्तेमाल किया गया है।
  • यह इंडेक्स स्थलीय, मीठे पानी और समुद्री जगहों में कशेरुक प्रजातियों की आबादी के रुझान के आधार पर दुनिया की जैव विविधता की स्थिति का आकलन करता है।
  • इसे ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन द्वारा जारी किया जाता है।
  • साल 1826 में स्थापित ‘ज़ूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन’ वन्यजीव संरक्षण के लिये काम करने वाली एक ‘इंटरनेशनल कंज़र्वेशन चैरिटी’ संस्था है।
  • इंडेक्स में साल 1970 से साल 2016 के बीच 4000 से ज्यादा कशेरुक प्रजातियों के करीब 21,000 जीवों को ट्रैक करके रिपोर्ट को तैयार किया गया है।

रिपोर्ट के क्या निष्कर्ष रहे?

  • रिपोर्ट में साल 1970 से 2016 के बीच वैश्विक कशेरुकी प्रजातियों की आबादी में औसतन 68 फ़ीसदी की गिरावट की बात कही गई है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह गिरावट 45 फ़ीसदी है।
  • अमेरिका के उष्णकटिबंधीय उप-भागों के लिये लिविंग प्लैनेट इंडेक्स में 94 फ़ीसदी की गिरावट दुनिया के किसी भी क्षेत्र में दर्ज की गई सबसे बड़ी गिरावट है।
  • मीठे जल की प्रजातियों की आबादी में साल 1970 के बाद से औसतन 84 फ़ीसदी की कमी आई है।
  • मीठे जल की प्रजातियों की आबादी स्थलीय या समुद्री प्रजातियों के मुकाबले ज्यादा तेज़ी से घट रही है।
  • आकार के हिसाब से देखें तो मेगाफौना (Megafauna) या बड़ी प्रजातियाँ ज्यादा असुरक्षित हैं, क्योंकि वे मानवजनित खतरों और अंधाधुंध दोहन की शिकार हैं।
  • साल 1970 के बाद से पारिस्थितिकी पदचिह्न यानी Ecological Footprint पृथ्वी के पुनरुत्पादन की दर से ज्यादा हो चुकी है। आसान शब्दों में कहें तो प्रकृति जितना जैव संसाधन पैदा कर रही है या फिर उसका पुनरुत्पादन कर रही है, उसके मुकाबले इन जैव संसाधनों की माननीय खपत ज्यादा है।
  • मौजूदा वक्त में, मानव की मांग पृथ्वी की पारिस्थितिकी के पुनरुत्पादन की दर के मुकाबले 1.56 गुना ज्यादा है।

जैव विविधता के लिये खतरे की घंटी

जैव विविधता के लिहाज से यह रिपोर्ट कई समस्याओं की तरफ इशारा कर रही है, जिनमें जीव-जंतुओं के प्राकृतिक आवास का नष्ट होना, संसाधनों का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियों और रोगों का पैदा होना और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं.

आगे क्या किया जा सकता है?

  • जाहिर है कि मानवता का अस्तित्व तभी तक संभव है जब तक हमारी प्राकृतिक प्रणालियां या व्यवस्थाएं दुरुस्त हैं. इसके बावजूद हम एक खतरनाक गति से प्रकृति को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
  • प्रकृति और मानवीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आज समय की मांग है कि जैव-विविधता क्षरण के वक्र Curve को मोड़ा जाए.
  • इसके लिए एक नए वैश्विक समझौते की जरूरत है, और इस समस्या की राजनीतिक प्रासंगिकता भी बढ़नी चाहिए.
  • इस उद्देश्य के लिए राज्य और गैर-राज्य भागीदारों द्वारा एकजुट होकर प्रयास करना चाहिए।

गौरतलब है कि सतत् विकास एवं जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के तहत साल 2030 के एजेंडे को हासिल करने के लिये प्राकृतिक प्रणालियों में गिरावट के मद्देनज़र ऐसा समझौता जरूरी भी है।