(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) CrPC की धारा 434-A (Section 433-A of CrPC)
हाल ही में, जस्टिस यू यू ललित की अध्यक्षता वाली एक न्यायिक खंडपीठ ने एक मामले को अपने से बड़ी खंडपीठ को सौंपने का फैसला लिया है. यह मामला हरियाणा सरकार की एक नीति की वैधता के बारे में है जो हत्या के अपराध के दोषी सजायाफ्ता कैदियों के समय पूर्व रिहाई से जुड़ा है।
डीएनएस में आज हम जानेंगे कि यह पूरा मामला क्या है और साथ ही समझेंगे इससे जुड़े कुछ दूसरे अहम पहलुओं को भी…….
साल 2019 में, हरियाणा सरकार ने अपने यहां कारागार में बंद कैदियों से जुड़ी एक क्षमा नीति लाई थी. इस नीति के मुताबिक, हत्या के मामले में आजीवन कारावास के सजायाफ्ता पुरुष कैदियों को 75 साल की उम्र होने और कम-से-कम 8 साल की सज़ा पूरी करने के बाद रिहा कर कर दिया जाएगा। इसके बाद उस नीति को लेकर कई लोगों द्वारा सवाल उठाया जाने लगा. इसलिए न्यायालय ने हरियाणा सरकार को नोटिस जारी कर अपनी नीति के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिये कहा था।
गौरतलब है कि न्यायालय एक हत्या के दोषी एक मामले पर सुनवाई कर रहा था. दोषी को न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई जा चुकी थी, लेकिन यह दोषी राज्य द्वारा गठित एक क्षमा नीति यानी रिमिशन पॉलिसी (Remission Policy) के लागू होने के बाद 8 साल की सज़ा पूरी होने पर रिहा हो गया था। अब अदालत की बड़ी खंडपीठ इस बात की परख करेगी कि कहीं हरियाणा सरकार की यह क्षमा नीति आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता यानी CrPC की धारा 433-A का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है। बता दें कि आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 433-A के मुताबिक, यदि किसी दोषी को उम्र कैद की सज़ा हुई है तो उसे कारावास से तब तक रिहा नहीं किया जा सकता है, जब तक वह कम-से-कम 14 साल की सज़ा पूरी न कर ले। इस प्रकार हरियाणा सरकार द्वारा बनाई गई नीति साफ तौर पर CrPC की धारा 433-A के खिलाफ है। हालांकि अभी इस पर अदालत का रुख स्पष्ट होना बाकी है
इसके अलावा इस नीति का इस्तेमाल करते हुए मामले से जुड़ा कोई भी तथ्य या सामग्री राज्यपाल के सामने पेश नहीं की गई. ऐसे में, राज्यपाल को अपराध की गंभीरता, अपराध करने का तरीका और समाज पर इसके प्रभाव जैसे पहलुओं पर विचार करने का अवसर नहीं मिला, जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-161 के मुताबिक राज्य के राज्यपाल को ही क्षमादान की शक्ति प्राप्त है। इस तरह हरियाणा सरकार की क्षमा नीति (Remission Policy) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के भी खिलाफ है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 के मुताबिक क्रमशः भारत का राष्ट्रपति और राज्य का राज्यपाल ही सजायाफ्ता व्यक्ति को क्षमा दान दे सकते हैं. इन प्रावधानों के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल को अधिकार है कि वे अपराध के लिये दोषी करार दिये गए व्यक्ति को क्षमादान यानी दंडादेश का निलंबन, प्राणदंड स्थगन, राहत और माफी दे सकते हैं। यहां एक बात दिलचस्प है कि राष्ट्रपति को संघीय कानून के खिलाफ या सैन्य न्यायालय द्वारा दंडित व्यक्ति के मामले में और मृत्यदंड पाए हुए व्यक्ति के मामले में क्षमादान देने का अधिकार है। जबकि राज्य के राज्यपाल को अधिकार है कि वह मृत्युदंड का निलंबन, दंड की समयावधि को घटाना और दंड का स्वरूप बदलने जैसे आदेश दे सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्षमादान की व्यवस्था के संविधान में क्यों की गई? दरअसल हमारी न्याय व्यवस्था को चलाने वाले जज भी इंसान ही होते हैं और स्वाभाविक है कि उनसे भी गलती हो सकती है. ऐसे में, समाधान का मकसद किसी निर्दोष इंसान को न्यायालय की गलती के चलते सजा से बचाना है।