(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) मातंगिनी हज़ारा : हर गोली पर वन्दे मातरम् (Matangini Hazaraa : Vande Mataram on Every Bullet)
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ऐसी तमाम महिलाएं सामने आईं, जिन्होंने अपने कौशल से स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी। कुछ महिलाएं उदारवादी कानूनी मार्ग पर चल कर योगदान कर रही थीं तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों के ज़रिए। इन्हीं में एक महान वीरांगना थीं मातंगिनी हाजरा।
DNS में आज हम आपको मातंगिनी हाजरा के बारे में बताएँगे और साथ ही समझेंगे उनके जीवन से जुड़े कुछ अन्य महत्वूर्ण पक्षों को भी ……
मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर, 1870 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल और मौजूदा बांग्लादेश के मिदनापुर जिले के होगला गांव में हुआ था। उन्हें बाल विवाह का दंश झेलना पड़ा और बेहद ग़रीबी के चलते उनका विवाह मात्र 12 साल की उम्र में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया।
1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान मातंगिनी का राष्ट्रवादी चरित्र मुखर रूप में सामने आया। बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध की रणनीति के उस दौर में उन्होंने गांधीवादी कार्य पद्धति में अपनी पूरी आस्था बनाए रखी। उस समय की भारतीय महिलाओं के सामने उन्होंने सूत कातने और खादी वस्त्रों को पहनने की दिशा में एक मिसाल पेश किया था।
मातंगिनी हाजरा ने गाँधीजी के 'नमक सत्याग्रह' में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। 1932 में उनके गाँव में एक जुलूस निकला। उसमें कोई भी महिला नहीं थी। यह देखकर मातंगिनी ने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उस जुलूस का स्वागत किया और उसमे शामिल हो गईं।
इसके साथ ही वे गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की सक्रिय महिला सहभागी भी थीं। 17 जनवरी, 1933 को ‘करबन्दी आन्दोलन’ को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं और उन्होंने काले झंडे पूर्ण निर्भीकता के साथ दिखाए भी। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई दरबार तक पहुँच गयीं।
इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह महीने का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया।
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान भी इनकी भूमिका अप्रतिम रही। 29 सितंबर 1942 को अंग्रेजों के खिलाफ एक जुलूस निकाला गया था, जिसमें 6000 से ज़्यादा आंदोलनकारी मौजूद थे। इसमें ज़्यादातर महिलाएं शामिल थीं। वहीं इस जुलूस की अगुवाई 71 वर्षीय मातंगिनी हाजरा कर रही थीं। प्रदर्शनकारियों ने तामलूक थाने पर धावा बोलने की योजना बनाई थी। उनका मकसद थाने को अपने कब्जे में करना था। जैसे ही जुलूस शहर में पहुंचा ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें लागू भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत रुकने का आदेश दिया। जब जनता ने पुलिस का आदेश नहीं माना तो पुलिस ने कार्यवाही करनी शुरू कर दी. इससे जुलूस की भीड़ तितर-बितर हो गई। ऐसे में, मातंगिनी अपने हाथ में तिरंगा लिए आगे की ओर बढीं। वे पास के ही एक चबूतरे पर खड़े होकर वंदेमातरम के नारों को बुलंद करने लगी। अचानक एक गोली उनके बायें हाथ में लगी। उन्होंने तिरंगे झण्डे को गिरने से पहले उसे अपने दाएं हाथ में थाम लिया। लेकिन तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और फिर तीसरी उनके माथे पर लगी। भारत माँ की यह वीरांगना भारत माँ के चरणों में शहीद हो गयी।
इस बलिदान से पूरे इलाके में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन के भीतर ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर ली। इस स्वाधीन सरकार ने करीब 21 महीने तक काम किया। दिसम्बर, 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी ने अपने प्रवास के समय तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया था। इतिहास में इन्हें ‘गाँधी बूढ़ी’ अथवा ‘ओल्ड लेडी गाँधी’ के नाम से भी जाना जाता है.