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Blog / 26 May 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कातकारी जनजाति (Katkari Tribe)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कातकारी जनजाति (Katkari Tribe)



कातकारी एक भारतीय जनजाति है जो ज़्यादातर महराष्ट्र राज्य में निवास करती है। ये एक अधिसूचित जनजाति है। इन्हे और भी कई नामों से बुलाया जाता है जैसे कठकारी ,काठोडी और काठोड़िया। ये आमतौर पर कातकारी भाषा बोलते हैं जो मराठी और कोंकणी भाषा का मिला जुला रूप है। हालांकि इनमे से कई मराठी भाषा भी बोलते दिखाई देते हैं। महाराष्ट्र में कातकारी जनजातीय समूह विशेष तौर पर निर्बल जनजातीय समूहों की श्रेणी में आता है। कातकारी जनजाति को कमज़ोर जनजातीय समूह में रखने की वजह उनका इतिहास है। कातकारी जनजाति अंग्रेज़ी राज में एक घुमक्कड, जंगलों में रहने वाली जनजाति के रूप में मशहूर थी जिसे अंग्रेज़ों ने 1871 के अपराधी जनजातीय कानून के तहत रखा हुआ था। आज़ादी के इतने साल के बावजूद कातकर जनजाति पर लगा आपराधिक जनजाति का धब्बा अभी तक कायम हैं।

आज के DNS में हम आपको बताएँगे कातकारी जनजाति के बारे में और जानेंगे की क्यों ये जनजाति आज अपने घरों से पलायन करने को मज़बूर है।

कतकारी जनजाति के लोग एक वक़्त पर महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट के जंगलों में रहा करते थे। कतकारियों को उस दौर में वाघमारे के नाम से भी जाना जाता था। वाघमारे का शाब्दिक अर्थ होता है जिसने शेर का शिकार किया है। कतकारी नाम इस जनजाति को देने की वजह उनके द्वारा किया जाने वाला कत्थे का व्यापार था। आज के दौर में यह जनजाति रायगढ़ के पहाड़ी और जॅंगली इलाकों और ठाणे जिले के कुछ भागों में पायी जाती है। इस जनजाति के कुछ लोग गुजरात राज्य के दक्षिणी भाग में पहाड़ी क्षेत्र में रहते हैं। इसके अलावा इनकी मौजूदगी नासिक पुणे और धुले ज़िले के जंगलों में भी पायी जाती है। महाराष्ट्र में कातकारी जनजाति को विशिष्ट रूप से निर्बल जनजातीय समूहों के अंतर्गत रखा गया है।

निर्बल जनजातीय समूहों के बारे में आपको बताएं तो कुछ ऐेसे जनजातीय समुदाय हैं जो खेती की पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं, स्थिर या कम हो रही जनसंख्या वृद्धि का सामना करते हैं, उनमें साक्षरता और आजीविका का स्तर अत्यधिक निम्न है। 18 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में ऐसे 75 समूहों की पहचान की गई है और उन्हें विशिष्ट रूप से निर्बल जनजातीय समूहों (पीवीटीजीएस) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

आज के दौर में कातकारी समुदाय के लोग अपनी आजीविका और आवास के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। कातकारी समुदाय के ज़्यादातर लोग बंधुआ मज़दूर हैं जिनके पास न तो ज़मीन है और न ही कोई रोज़गार। इनमे से ज़्यादातर लोग ईंट के भट्ठों या मुंबई के पर मज़दूरी करते हैं। इनमे से कई लोग महाराष्ट्र के ओद्योगिक इलाकों में मज़दूरी करते हुए भी पाए जाते हैं।

कातकारी जनजाति की घटती आबादी की वजह से इन्हे कुछ ऐसी जनजातियों की सूची में रखा गया है जो भारत में बड़ी तेज़ी से विलुप्त हो रही है या विलुप्त होने की कगार पर हैं।

रायगढ़ और थाने ज़िलों में तकरीबन एक तिहाई कातकारी बस्तियां यहां मौजूद गावों के बाहरी इलाकों में देखी जा सकती हैं। हाल के कुछ सालों में मुंबई और इसके आस पास के इलाकों में तेज़ी से हो रहे ओद्योगिकीकरण के चलते ज़मीन की कीमतों में इज़ाफ़ा हुआ है। इसकी वजह से यहाँ ज़मीन के मालिकों ने अपनी ज़मीनें बेंची। तेज़ी से बढ़ते शहर और उद्योगों की वजह से कतकारी समुदाय के पलायन का खतरा बढ़ा है। कतकारी समुदाय के कई लोग या तो ज़मीनें छोड़कर खुद से चले गए हैं या उन्हें जबरन बेदखल कर दिया गया है। कई मामलों में उनकी ज़मीनों और घरों पर बलात कब्ज़ा भी किया गया है।

कातकारी समुदाय से ली गयी सेवाओं के बावजूद इनके समुदाय को गाँव में इज़्ज़त नही दी जाती है। इनके समुदाय के लोगों को अछूत समझा जाता है और उन्हें समाज की मुख्य धरा में नहीं शामिल किया जाता है। यहां तक की इनके रहन सहन और खाने पीने की आदतों के चलते इन्हे अक्सर सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ता है। कतकारी समुदाय के लोग अपनी रोज़ी रोटी के लिए कई धंधों पर निर्भर हैं जिसमे कत्थे का व्यापार , लकड़ी और जंगल से निकले हुए अन्य उत्पाद , मछली पकड़ना , और किसानों के खेतों में मज़दूरी करना शामिल है। आज़ादी के बाद कत्थे के व्यापार में काफी गिरावट आयी जिसकी वजह सरकार द्वारा कत्थे के पेड़ काटने पर लगाया गया प्रतिबन्ध था। इसके बाद वन विभाग ने इनके द्वारा की जाने वाली झूम कृषि पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। इसकी वजह से कतकारी जनजाति का एक बड़ा हिस्सा जंगल छोड़कर काम की तलाश में बाहर शहरों की और जाने लगा। 1950 की शुरुआत में कतकारी परिवार अपनी पुश्तैनी ज़मीन छोड़कर गाँवों और शहरों में बसने लगे। कतकारी समुदाय की कई छोटी बड़ी बस्तियां आज भी रायगढ़ और ठाणे ज़िले के बाहरी इलाकों में देखी जा सकती हैं।

कतकारी लोगों में एक कहावत मशहूर है - हम शेर के मुंह में हाथ डालकर शेर के दांत गिनते हैं। हम हैं कतकारी।

जंगल से बेदखल होने के बाद जंगल के संसाधनों की जानकारी कतकारियों के साथ ही चली गयी। जनागल के करीब रहने वाले कतकारी समुदाय के लोग आज भी 60 अलग अलग तरीके के पौधों और 75 तरीके के जानवरों और पक्षियों को खाते हैं। मिसाल के तौर पर कतकारी समुदाय की औरतें गर्मी के महीने में दो पत्थरों को घिसकर बिजली कड़कने की आवाज़ पैदा करती हैं जिससे केकड़े अपने बिलों से बाहर आ जाते हैं और वे उनका शिकार कर लेती हैं।

कतकारियों के सामाजिक बहिष्कार सबसे बड़ी वजह उनके खान पान की आदतें हैं। कतकारी समुदाय भारत की उन चंद जनजातियों में से एक है जो आज भी चूहों को अपने खाने में शामिल करती हैं। कतकारी जनजाति चूहों को समर्पित एक सांस्कृतिक त्यौहार भी मनाती हैं जिसे उंदीर नवमी के नाम से जाना जाता है। मराठी भाषा में उंदीर का अर्थ चूहा होता है। उंदीर नवमी के अलावा कातकारी लोग होली दिवाली मल्हार कोली , गौरी और पितृ अमावस्या जैसे त्यौहार भी मनाते हैं।

तमाम कानूनों और आदेशों के बावजूद भी कातकारी आज भी अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। बढ़ते शहर और उद्योग धंधों ने कातकारी जनजाति के लोगों को अपनी संस्कृति से दूर कर दिया है। जंगलों में कड़े कानूनों के चलते उनकी रोज़ी रोटी भी छिनती जा रही हैं। इसके अलावा उनके रहन सहन और खान पान के चलते उन्हें समाज की मुख्य धारा में भी शामिल नहीं किया जाता है ऐसे में उनके वज़ूद पर सवालिया निशान लगना लाज़मी है।