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Blog / 03 May 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कैसे मिलता है जीआई टैग? (How is GI Tag Given?)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कैसे मिलता है जीआई टैग? (How is GI Tag Given?)



हाल ही में काश्मिरी केसर समेत मणिपुर के चाक हाओ चावल और गोरखपुर टेराकोटा को जी आई टैग दिया गया । आज के DNS में हम जानेंगे की क्या है कश्मीरी केसर , चाक हाओ , और गोरखपुर टेराकोटा । साथ ही जानेंगे जी आई टैग क्या है , यह क्यों दिया जाता है , इसे देने से क्या फायदे हैं।

कश्मीरी केसर को भूगोलिक संकेतांक या ज्योग्राफिकल इंडिकेटर के टैग से नवाज़ा गया है कश्मीरी केसर की खेती जम्मू कश्मीर के करेवा में की जाती है। करेवा यहाँ आम तौर पर पाए जाने वाले पहाड़ी मैदानों को कहा जाता है जहाँ की मिट्टी काफी उपजाऊ होती है । केसर को कश्मीर में पुलवामा , बड़गाम किश्तवार और श्रीनगर में उगाया जाता है । जी आई टैग को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री द्वारा दिया जाता है । कश्मीरी केसर को जी आई टैग देने के लिए जामु कश्मीर सरकार के कृषि निदेशालय द्वारा आवेदन दायर किया गया था और इसमें शेरे कश्मीर कृषि विज्ञानं एवं तकनीकी विश्वविद्यालय और पम्पोर के डूसू स्थित केसर शोध संस्थान ने भी मदद की थी । पूरी दुनिया में केसर उगाने के मामले में ईरान पहले पायदान पर आता है । ईरान के बाद काश्मिरी केसर की पूरी दुनिया में काफी मांग है । जी आई टैग मिलने के बाद केसर को विश्व व्यापार में और अधिक तरजीह मिल जाएगी।

कश्मीर केसर को पूरे विश्व में मसालों के तौर पर उगाया जाता है । यह सेहत के लिए काफी अच्छा माना जाता है और इसे प्रसाधन और दवाइयों के बनाने में इस्तेमाल किया जाता है ।केसर को कश्मीर के पारम्परिक व्यंजनों से जोड़ा जाता है इसके अलावा इसके ज़रिये कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत की भी पहचान होती है

काश्मिरी केसर की सबसे ख़ास बात इसके लम्बे और मोठे वर्तिकाग्र , इसका गहरा लाल रंग , बेहतरीन खुशबू कड़वा स्वाद और इसके रसायन मुक्त प्रसंस्करण है

कश्मीर में पाया जाने वाला केसर एक मात्र ऐसा केसर है जिसे समुद्र तल से १६०० से १८०० मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है ।इस वजह से दुनिया भर में उगाई जाने वाली तमाम केसर की प्रजातियों में यह सबसे ख़ास प्रजाति है।

कश्मीर में पाया जाने वाला केसर तीन तरह का होता है - लच्छा केसर , मोंगरा केसर और गुच्ची केसर । लच्छा केसर में वर्तिकाग्र फूल से अलग होकर सूख जाते हैं जबकि मोंगरा केसर में वर्तिकाग्र फूल से अलग कर उन्हें सुखाया जाता है और बाद में उन्हें प्रसंस्कृत किया जाता ।

कश्मीर में केसर उगाने की परंपरा मध्य एशियाई लोगों ने पहली शताब्दी ईसा पूर्व शुरू की थी । प्राचीन संस्कृत साहित्य में केसर को बहुकम के नाम से जाना जाता था ।

इससे पहले मणिपुर में पैदा होने वाले काले चावल जिसे यहाँ चाक-हाओ (चक-हो) के नाम से जाना जाता है और गोरखपुर टेराकोटा को भी जी आई टैग दिया गया था । चाक-हाओ को GI टैग देने के लिये 'चाक-हाओ उत्पादक संघ' ने आवेदन भरा था और इसे मणिपुर सरकार के कृषि विभाग और उत्तर पूर्व क्षेत्रीय कृषि विपणन संघ ने अपनी मान्यता दी थी । जबकि गोरखपुर टेराकोटा के लिये आवेदन उत्तर प्रदेश के 'लक्ष्मी टेराकोटा मुर्तिकला केंद्र', द्वारा दायर किया गया था। GI रजिस्ट्री के डिप्टी रजिस्ट्रार चिन्नाराजा जी नायडू ने ने इन दोनों उत्पादों को GI टैग देने की पुष्टि की है।

चाक-हाओ एक सुगंधित चिपचिपा चावल है जिसकी मणिपुर में सदियों से खेती की जा रही है। चावल की इस किस्म में विशेष प्रकार की सुगंध होती है। इसका उपयोग सामान्यत: सामुदायिक दावतों में किया जाता है तथा इन दावतों में चाक-हाओ की खीर बनाई जाती है। चाक-हाओ का पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में भी उपयोग किया जाता है। चावल की इस किस्म में रेशेदार फाइबर की अधिकता होने के कारण इसे पकाने में चावल की सभी किस्मों से अधिक, लगभग 40-45 मिनट का समय लगता है। वर्तमान में मणिपुर के कुछ हिस्सों में चाक-हाओ की पारंपरिक तरीके से खेती की जाती है। परंपरागत रूप से या तो बीजों को भिगोकर सीधे खेतों में बुवाई की जाती है या चावल की सामान्य कृषि के समान धान के खेतों में नर्सरी में उगाए गए चावल के पौधों की रोपाई की जाती है।

गोरखपुर का टेराकोटा कार्य सदियों पुरानी कला है जिसमें जहाँ स्थानीय कारीगरों द्वारा विभिन्न जानवरों जैसे कि घोड़े, हाथी, ऊँट, बकरी, बैल आदि की मिट्टी की आकृतियाँ बनाई जाती हैं।

पूरा काम नग्न हाथों से किया जाता है तथा रंगने के लिये प्राकृतिक रंग का उपयोग करते हैं, जिसकी चमक लंबे समय तक रहती है। 1,000 से अधिक प्रकार के टेराकोटा के प्रकार यहाँ बनाए जाते हैं।

जीआई टैग या भौगोलिक संकेत (Geographical Indication) किसी भी उत्पाद के लिए एक प्रतीक चिन्ह के समान होता है।

यह उत्पाद की विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति, विशेष गुणवत्ता और पहचान के आधार पर दिया जाता है। जीआई टैग उस उत्पाद की गुणवत्ता और उसकी विशेषता को दर्शाता है। किसी उत्पाद के जीआई टैग के लिए आवश्यक है कि “उत्पाद का उत्पादन या प्रोसेसिंग उसी क्षेत्र में होना चाहिए जहाँ के लिए जीआई टैग लिया जा रहा है।”

भारत में जीआई टैग को किसी विशेष फसल, प्राकृतिक और निर्मित उत्पादों को प्रदान किए जाते हैं। कई बार जीआई टैग को एक से अधिक राज्यों में पाई जाने वाली फसलों या उत्पादों को प्रदान की जाती है। उदाहरण के लिए- बासमती चावल जीआई टैग के तहत बासमती चावल पर पंजाब हरियाणा दिल्ली हिमाचल प्रदेश उत्तराखंड इत्यादि राज्य का अधिकार है। भारत में सबसे पहले दार्जिलिंग की चाय को 2004 में जीआई टैग प्राप्त हुआ था। भारत के कुछ महत्वपूर्ण उत्पाद जिन्हें जीआई टैग प्राप्त है- महाबलेश्वर-स्ट्रॉबेरी, जयपुर -ब्लू पोटरी, बनारसी साड़ी, तिरुपति के लड्डू, मध्य प्रदेश के झाबुआ के कड़कनाथ मुर्गा, कांगड़ा की पेंटिंग, नागपुर का संतरा, कश्मीर की पाश्मीना, हिमाचल का काला जीरा, छत्तीसगढ़ का जीराफूल और ओडिशा की कंधमाल हल्दी इत्यादि।

औद्योगिक संपत्ति के संरक्षण हेतु जीआई टैग को पेरिस कन्वेंशन के अंतर्गत बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआर) के रूप में शामिल किया गया था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीआई टैग का विनियमन विश्व व्यापार संगठन( डब्ल्यूटीओ) के द्वारा किया जाता है। भारत में जीआई टैग का विनियमन वस्तुओं के भौगोलिक सूचक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम 1999 के अंतर्गत किया जाता है। वस्तुओं के भौगोलिक सूचक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 15 सितंबर, 2003 से लागू हुआ था। जीआई टैग का अधिकार हासिल करने के लिए चेन्नई स्थित जी आई डेटाबेस में अप्लाई करना पड़ता है। एक बार जीआई टैग का अधिकार मिल जाने के बाद 10 वर्षों तक जीआई टैग मान्य होते हैं। इसके उपरांत उन्हें फिर रिन्यू कराना पड़ता है।

जीआई टैग किसी क्षेत्र में पाए जाने वाले उत्पादन को कानूनी संरक्षण प्रदान करता है। जीआई टैग के द्वारा उत्पादों के अनधिकृत प्रयोग पर अंकुश लगाया जा सकता है। यह किसी भौगोलिक क्षेत्र में उत्पादित होने वाली वस्तुओं का महत्व बढ़ा देता है। जीआई टैग के द्वारा सदियों से चली आ रही परंपरागत ज्ञान को संरक्षित एवं संवर्धन किया जा सकता है। जीआई टैग के द्वारा स्थानीय उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में मदद मिलती है। इसके द्वारा टूरिज्म और निर्यात को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।