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Blog / 20 Jul 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) हरेला: प्रकृति से जुड़ा लोक पर्व (Harela : Folk Festival Linked with Nature)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) हरेला: प्रकृति से जुड़ा लोक पर्व (Harela : Folk Festival Linked with Nature)



उत्तराखंड,जिसे देवताओं की भूमि या देव भूमि के नाम से जाना जाता है। उत्तरखंड शुमार है देश के उन चुनिन्दा जगहों में जोअपनी वैविध्य और नैसर्गिक सौंदर्य के चलते न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के सैलानियों को भी अपनी ओर खींचता रहा है। उत्तरखंड को अपने शांत वातावरण, मनमोहक दृश्यों और खूबसूरती की वजह से अगर धरती का स्वर्ग कहा जाए तो इसमें कोई ताजुब की बात नहीं। आकाश को चूमते ऊंचे पहाड़ हों या धरती की गोद में फ़ैली घाटियां उत्तराखंड में आकर ऐसा लगता है की MAANO प्रकृति अपने जीवंत रूप में यहां प्रकट हो गयी है।

देव भूमि उत्तराखंड में जितनी विविधता यहां की ज़मीन में है उतना ही समृद्ध है यहां की परम्पराएं और लोगों का रहन सहन। इंसानी विविधता की पहचान यहाँ होने वाले त्योहारों में भी दिखाई देती है साथ ही यहां के त्योहारों में यहाँ के लोगों और प्रकृति के बीच का अटूट रिश्ता भी दिखाई देता है। हमारे पूर्वजों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहार और सामान्य जीवन नियम बनाये, उनमें व्यवहारिकता और विज्ञान का पूरा समागम देखने को मिलता है । इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक त्यौहार है-हरेला।उत्तराखण्ड के अनेक लोक पर्वो में जो विशेषताएं मिलती हैं उनमें मुख्य बात इन पर्वां का प्रकृति,खेती-बाड़ी व पशुपालन के साथ गहनता से जुड़ना है। यही वजह है की यहां के पर्वतीय क्षेत्रों विशेष तौर पर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की यह परम्परा सदियों से चलती आ रही है। स्थानीय समाज में हरेला बहुत ही लोकप्रिय पर्व है। उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस ऋतु पर्व को अन्य स्थानीय उत्सवों में सर्वापरि स्थान मिला हुआ है।

कुमाऊं अंचल में हरेला पर्व श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। पहाड़ में सौरपक्षीय पंचांग का चलन होने से ही यहां संक्रांति से नए माह की शुरुआत मानी जाती है। अन्य त्यौहार जहां साल में एक बार मनाये जाते हैं, वहीं हरेला पर्व सावन के अलावा आश्विन और चैत्र माह में भी मनाया जाता है। कुमाऊं के ज्यादतर इलाकों मेंआम तौर पर सावन वाला हरेला ही मनाया जाता है।

हरेला का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये श्रावण को हरेला मनाया जाता है। हरेला त्यौहार एक तरह से देखें तो हर नयी ऋतू शुरू होने की सूचना देता है।

उत्तरखंड कई धार्मिक मान्यताओं के चलते भगवान शिव की स्थली कहा जाता है। इसलिये श्रावण मास के हरेला का महत्व भी इस क्षेत्र में विशेष ही होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।

हरेला शब्द का स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या ग्राम के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में रोपित कर दिया जाता है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके पश्चात फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया 5-6 बार अपनाई जाती है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। 9 वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है, इसके बाद घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं।

इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते है। घर में मौजूद सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, साथ ही देश-परदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारो-नातेदारों को भी अक्षत-चन्दन-पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।

हरेला घर मे सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा।

वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से द्याप्ता थान (स्थानीय ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं। यह भी परम्परा है कि यदि हरेले के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक हरेला बोया नहीं जाता है। एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जायेगा।

उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

उत्तराखंड में मनाया जाने वाला त्यौहार दरसल में यहाँ के लोगों को ये एहसास कराता है की उनका वज़ूद हमारी प्रकृति से ही है जिसका सम्मान करना हमारा फ़र्ज़ है। प्रकृति हमें किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ देती है इसलिए हमारा ये उत्तरदायित्व है की हम प्रकृति से उतना ही ले जितनी हमारी ज़रुरत है न की इसके संसाधनों का मनमाने तरीके से दोहन करें। समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार भी पिछले साल से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की कवायद कर रही है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये स्कूली बच्चों व आम जनता के मध्य जन चेतना और जागरूता पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं जो कि एक नितान्त सकारात्मक पहल है।