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Blog / 22 Aug 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) तलाक के लिए समान आधार की मांग क्यों? (Demand for Common Grounds to Divorce)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) तलाक के लिए समान आधार की मांग क्यों? (Demand for Common Grounds to Divorce)



देश के सभी नागरिकों के लिए तलाक के समान आधार के प्रावधान हों इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से संविधान की भावना और अंतरराष्ट्रीय समझौतों के अनुरूप इसकी मांग की गई है।

हाल ही में भाजपा नेता और अधिवक्‍ता अश्‍व‍िनी कुमार उपाध्याय ने इस बारे में जनहित याचिका दाखिल की है। याचिका में सुप्रीमकोर्ट से तलाक के कानूनों में विसंगतियों को दूर करने के लिए कदम उठाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश दिए जाने की मांग की गई है....

याचिका में कहा गया है कि शीर्ष अदालत तलाक के मसले पर धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर पूर्वाग्रह नहीं रखते हुए सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश जारी करे। यह भी मांग की गई है कि सुप्रीमकोर्ट यह घोषणा करे कि तलाक के पक्षपातपूर्ण आधार अनुच्छेद 14, 15, 21 का उल्लंघन करते हैं। ऐसे में सभी नागरिकों के लिए तलाक के समान आधार के बारे में दिशानिर्देश जारी किया जाए।

याचिका में कहा गया है कि अदालत विधि आयोग को तलाक संबंधी कानूनों का अध्ययन करने और तीन महीने के भीतर अनुच्छेद 14, 15, 21 और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप सभी नागरिकों के लिए तलाक के समान आधारों (Uniform Grounds of Divorce) का सुझाव देने का निर्देश जारी करे।

वहीँ याचिका में ये भी कहा गया है कि हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन समुदाय के लोगों को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत तलाक के लिए आवेदन करना पड़ता है।

वहीं मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों में तलाक के लिए के अपने पर्सनल लॉ हैं। यहां तक कि यदि पति पत्‍नी में कोई एक विदेशी नागरिक है तो उसे विदेशी विवाह अधिनियम 1969 उनहत्तर के तहत तलाक की अर्जी देनी होगी। ऐसे में तलाक का आधार लिंग और धर्म के आधार पर तटस्थ नहीं है। इसलिए तलाक के समान आधार (uniform grounds of divorce) के प्रावधान होने चाहिए।

एक नज़र हिंदू विवाह अधिनियम,1955 में तलाक़ के आधार पर

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 पचपन के तहत विवाह विच्छेद की प्रक्रिया दी गई है जो कि हिंदू, बौद्ध, जैन तथा सिख धर्म के अनुयायियों पर लागू होती है।
  • इस कानून की धारा-13 के तहत तलाक़ इनमे से किसी एक आधार पर दिया जा सकता है
  • अगर पति या पत्नी में से कोई भी किसी अन्य व्यक्ति से विवाहेतर संबंध स्थापित करता है तो इसे विवाह विच्छेद का आधार माना जा सकता है।
  • पति या पत्नी को उसके साथी द्वारा शारीरिक, यौनिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है तो क्रूरता के तहत इसे विवाह विच्छेद का आधार माना जा सकता है।
  • अगर पति या पत्नी में से किसी ने अपने साथी को छोड़ दिया हो तथा विवाह विच्छेद की अर्जी दाखिल करने से पहले वे लगातार दो वर्षों से अलग रह रहे हों।
  • अगर पति पत्नी में से किसी एक ने कोई अन्य धर्म स्वीकार कर लिया हो।
  • पति या पत्नी में से कोई भी असाध्य मानसिक स्थिति तथा पागलपन से ग्रस्त हो और उनका एक-दूसरे के साथ रहना असंभव हो।
  • इसके अलावा अधिनियम की धारा-13B के तहत आपसी सहमति से विवाह को ख़त्म किया जा सकता है
  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 चौवन (Special Marriage Act, 1954) की धारा-27 में इसके तहत कानून के मुताबिक़ हुई शादी के लिए तलाक़ के प्रावधान दिए गए हैं

इस्लाम में तलाक़ के नियम

  • भारत में मुस्लिम धर्म में निकाह या शादी एक तरह का समझौता है जो पति पत्नी के बीच होता है। शादी को तोड़ने या ख़त्म करने के लिए पति के पास तलाक़ का जबकि पत्नियों के पास खुला का विकल्प होता है। इसके अलावा दोनों की सहमति से शादी तोड़ने को मुबारत कहा जाता है
  • तलाक़ मुस्लिम व्यक्ति को अपनी पत्नी को छोड़ने के लिए एक कानूनी हक़ देता है। इसके लिए उसे सिर्फ तलाक़ कहना पड़ता है। हालाँकि कुछ मुस्लिम समूह तीन तलाक़ या तलाक़ ए बिद्दत को तवज़्ज़ो देते हैं जिसमे एक ही बार में तीन बार तलाक़ शब्द कहने पर शादी को तोड़ा जा सकता है। हालांकि अब केंद्र सरकार ने तीन तलाक़ को अपराध की श्रेणी में डाल दिया है।
  • कुछ अन्य मुस्लिम समूह तलाक़ ए हसन की प्रक्रिया अपनाते हैं इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक़ कहता (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) है. यहां शौहर को इज़ाज़त होती है कि वह इद्दत की समयावधि खत्म होने के पहले तलाक़ वापस ले सकता है. यह तलाक़शुदा जोड़ा चाहे तो भविष्य में फिर से शादी कर सकता है. इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक़ कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है. तलाक़शुदा जोड़ा फिर से शादी तब ही कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ले और उसे तलाक़ दे. इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है.
  • पति तलाक़ कहने के लिए अपनी पत्नी या किसी तीसरे व्यक्ति को भी शक्तियां दे सकता है। इस प्रक्रिया को तलाक़ ए तफ़वीज़ कहा जाता है। हालांकि मुस्लिम पुरुष को तलाक़ की वजह बताना ज़रूरी नहीं है।
  • शरीयत कानून की धारा 5 मुस्लिम औरतों के तलाक़ लेने से सम्बंधित है। हालांकि बाद में ये धारा हटाकर इसकी जगह मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 उनतालीस लाया गया। मुस्लिम महिला कानूनन अदालत में तलाक़ के लिए जा सकती है।

ईसाईयों के लिए तलाक़ के नियम

  • सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में ये कहा गया की चर्च के पास तलाक पर फैसला देने का हक़ नहीं है. सिर्फ कोर्ट ही तलाक पर फैसला दे सकती है. ईसाई धर्म में शादी को जीवनभर का साथ माना जाता है. लेकिन तलाक की नौबत आने पर चर्च शादी को खत्म करने का तरीका बता सकता है. चचर्च में शादी तो रद्द हो सकती है लेकिन तलाक नहीं लिया जा सकता है.
  • चर्च भारतीय कानून को मानता है इसलिए शादी और तलाक जैसे मामलों में भारतीय कानून ही लागू होता है. क्रिश्चियन डिवोर्स एक्ट 1872 पहले से था लेकिन इसमें 2001 में संशोधन किया गया। अगर कोई व्यक्ति ईसाई धर्म को मानना छोड़ दे तो पत्नी तलाक के लिए अर्जी दे सकती है। ईसाई शादियां भी स्पेशल मैरिज एक्ट में पंजीकृत कराई जाएंगी। अदालत में भी इसका तरीका वही है बस यहां हिन्दू मैरिज एक्ट की जगह क्रिश्चियन डिवोर्स एक्ट 1872 का प्रावधान है।

स्पेशल मैरिज एक्ट या विशेष विवाह अधिनियम

  • अगर दो अलग-अलग धर्मों के लोग शादी करें तो इस शादी को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत पंजीकृत कराना होता है. स्पेशल मैरिज कोर्ट में या रीति-रिवाज से हो सकती है. दोनों में से किसी एक धर्म के रीति-रिवाज से शादी होना जरूरी है. अब जब शादी स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत हो रही है तो तलाक भी इसी एक्ट के तहत होगा. कोई भी दो धर्म के लोग जिनकी शादी हुई है इसके तहत तलाक ले सकते हैं.
  • इस तरह भारत में अलग धर्म होने के कारण विवाह और तलाक़ से जुड़े कानून भी अलग अलग हैं जिसकी वजह से संवैधानिक नियमों का उल्लंघन होता है। इसके मद्देनज़र सिर्फ एक कानून का होना बेहद ज़रूरी है ताकि जटिल व्यवस्थाओं को सरल बनाया जा सके।