(इनफोकस - InFocus) दल बदल कानून (Anti Defection Law)
सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, मिजोरम के निर्दलीय विधायक लालदुहोमा की विधानसभा सदस्यता समाप्त कर दी गई। लालदुहोमा 2018 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय विधायक के तौर पर निर्वाचित हुये थे। लेकिन बाद में उन्होंने ‘जोराम पीपल्स मूवमेंट’ ज्वाइन कर लिया था। मिजोरम के विधान सभा स्पीकर के मुताबिक़ लालदुहोमा ने संविधान की दसवीं अनुसूची के पैरा 2 (2) का उल्लंघन किया है। ग़ौरतलब है कि लालदुहोमा दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित होने वाले पहले लोकसभा सांसद भी रहे थे।
किन परिस्थितियों में बना दल-बदल कानून?
पार्टी की अदल-बदल कोई नयी बात नहीं है। साल 1967 में देश के 16 राज्यों में चुनाव हुए थे, जिसमें से सिर्फ एक राज्य में कांग्रेस की सरकार बन पाई थी। इसका कारण वे MLAs थे जिन्होंने उस समय कांग्रेस को छोड़ कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर ली थी। उस साल विधान सभा के 1900 सदस्य और संसद के 142 सदस्यों ने पार्टी बदली थी। इनमें से हरियाणा के एक MLA गया राम ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली थी। तभी से "आया राम, गया राम" मुहावरा दलबदलुओं के लिए इस्तेमाल होने लगा।
- इसी सम्बन्ध में, दलबदल को रोकने के लिए 52वें संशोधन के ज़रिए एक कानून बनाया गया, जिसे 1 मार्च 1985 से लागू कर दिया गया।
- ये कानून संविधान में 10वीं अनुसूची के रूप में डाला गया था। यह संसद और राज्य विधानसभा दोनों पर लागू होता है।
- संविधान के अनुच्छेद 190(3) के मुताबिक़, दल-बदल क़ानून के तहत किसी विधायक की अयोग्यता के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार केवल स्पीकर को होता है।
- शुरुवात में स्पीकर का फैसला ही अंतिम माना जाता था जिस पर किसी भी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता था। लेकिन किहोतो होलोहान मामले के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस आधार को असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
किस आधार पर कोई विधायक अयोग्य घोषित किया जाता है?
यदि किसी राजनैतिक दल का विधायक अपनी इच्छा से अपनी पार्टी छोड़ दे; या यदि कोई विधायक सदन में अपनी पार्टी के निर्देशों से विपरीत जा कर मत दे या मतदान में अनुपस्थिति रहे या फिर 15 दिनों के अंदर उसे अपने पार्टी से क्षमादान ना मिल पाए।
- यदि कोई निर्दलीय सदस्य, बिना किसी राजनीतिक दल का उम्मीदवार होते हुए चुनाव जीत जाए और उस चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले, तो ये विधायक अयोग्य हो जाता है।
- या फिर, यदि कोई नाम-निर्देशित सदस्य सदन में अपने शपथ ग्रहण के 6 महीने बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण कर ले।
- हालांकि यदि कोई सदस्य सदन के स्पीकर के पद के लिए चुने जाने पर अपनी इच्छा से दल की सदस्यता त्याग दे तो उसे अयोग्य नहीं माना जाएगा।
- साथ ही, यदि किसी दल के दो-तिहाई सदस्य एक साथ पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं तो भी उन्हें दल-बदल क़ानून के तहत अयोग्य क़रार नहीं दिया जा सकता है।
इस कानून के फायदे और नुकसान
ये कानून राजनीतिक संस्था में स्थिरता प्रदान करते हुए सदस्यों को पार्टी बदलने से रोकता है। साथ ही, ये न केवल सदस्यों को दूसरे दलों में शामिल होने से रोकता है बल्कि, मौजूदा दल में टूट जैसे लोकतांत्रिक तरीके से विधायकों को दूसरी पार्टी में शामिल होने या खुद अपनी पार्टी बनाने का अवसर भी प्रदान करता है। राजनीतिक स्तर पर ये कानून भ्रष्टाचार को कम करते हुए अनियमित चुनावों में होने वाले ख़र्चों को भी रोकता है।
- बात अगर इस क़ानून के नुकसान की करें तो यह पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और विधायक की स्वेच्छा को ख़तम करता है। ऐसे में, विधायक अपने विचार प्रदर्शित नहीं कर पाते हैं।
- साथ ही, इसके तहत असहमति और दल-परिवर्तन में कोई अंतर स्पष्ट नहीं किया गया है। विधायक की असहमति का अधिकार तथा सद्विवेक की स्वतंत्रता पर इस कानून ने एक तरह से प्रतिबंध लगा दिया है।
- इस कानून में निर्दलीय और नाम-निर्देशित सदस्यों के बीच तार्किक अंतर नहीं माना गया है। जहाँ निर्दलीय सदस्यों को दल ग्रहण करने पर निरर्हता है वहीँ नाम-निर्देशित सदस्यों द्वारा दल ग्रहण करने पर कोई आपत्ति नहीं।
आगे क्या किया जा सकता है?
कथित तौर पर तो पीठासीन अधिकारी निष्पक्ष हो कर फैसले लेता है लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है। सदन में चुना गया अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी से होता है, ऐसे में उसके फैसले की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। इसलिए एक ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष के रूप में चुना जाए जो किसी भी पार्टी से संबंध न रखता हो। स्पीकर के हाथों फैसला ना छोड़ कर, विधायकों के इस्तीफ़े का मामला किसी स्वतंत्र एजेंसी मसलन चुनाव आयोग को दिया जाए।