Home > Art-and-Culture

Blog / 27 Aug 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: भारत की चित्रकला (Sculpture and Painting: Paintings of India)

image


(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: भारत की चित्रकला (Sculpture and Painting: Paintings of India)


परिचय

भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में इसके अवशेष मिलते हैं। भोपाल के निकट भीमबेटका में गुफा चित्रें का सबसे प्राचीनतम संग्रह मिला है, जो नवपाषाण युग का है। इन चित्रें में मनुष्य के दैनिक क्रियाकलापों को दिखाया गया है। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि भारत में जहाँ से मानव विकास की कहानी शुरू होती है, भारतीय चित्रकला की जीवन यात्र वहीं से प्रसूत होती है। पर्सी ब्राउन के अनुसार, ऐसे प्राचीनतम चित्र, जिनका काल निर्धारण किया जा सकता हैं, सरगुजा में रामगढ़ पहाड़ी की जोगीमारा गुफाओं की दीवारों पर मिलते हैं। एक अनुमान के अनुसार ये भित्तिचित्र ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनाये गये थे।

प्राचीन भारतीय साहित्य में भी चित्रकला के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त होती है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि सभी कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है तथा यह धर्म, काम, अर्थ, मोक्ष को देने वाली है। समरांगणसूत्रधार में भी इसी बात की पुष्टि करते हुए बताया गया है कि चित्र सभी शिल्पों का मुख्य एवं संसार का प्रिय है। वात्सायन के कामसूत्र में 64 कलाओं का उल्लेख है, जिनमें चित्रकला का चौथा स्थान है। कालिदास के ग्रंथों-रघुवंश, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र, अभिज्ञान शाकुंतलम आदि से भी चित्रकला के विषय में जानकारी मिलती है।

चित्रकला से तात्पर्य उन विविध प्रकार की चित्रकारियों से है जो भवनों की दीवारों, छतों, स्तंभों, पर्वत गुफाओं आदि पर अंकित मिलती हैं। पत्थर, चट्टान, धातु आदि के फलक पर जो चित्र या आकृतियाँ उकेर कर बनायी जाती हैं, उन्हें भी चित्रकला से सम्बन्धित किया जाता है।

रूप-भेद

रूप-भेद का अर्थ है ऐसी आकृति जिसकी किसी दूसरी आकृति से समानता न हो। वस्तु के भीतर जो सौंदर्य है उसको हम अपने अनुमान, चिंतन और भावनाओं द्वारा पहचान सकते है। इसी विभिन्नता को एक में संजोकर रखना ही रूप-भेद है। किसी भी चित्र में रूप-रेखाएं जितनी भी स्पष्ट, स्वाभाविक और सुंदर होंगी, चित्र उतना ही सुंदर बन पाएगा। किसी भी चित्र रचना में यह विशेष गुण होना आवश्यकता है। रूप-भेदों से अनभिज्ञ होने के कारण चित्र की वास्तविकता को नहीं आंका जा सकता।

प्रमाण

प्रमाण का अर्थ है चित्र की सीमा तथा लम्बाई-चौड़ाई का निर्धारण करना। प्रमाण के द्वारा ही मूल वस्तु की यथार्थता का ज्ञान उसमें भरा जा सकता है। देवी-देवताओं और मनुष्यों के चित्रें में क्या अंतर होना चाहिए- ये सभी बातें प्रमाण द्वारा ही निर्धारित की जा सकती हैं।

भाव

भाव चित्र की अनुभूति से उभरते हैं। स्वभाव, मनोभाव और उसकी व्यंग्यात्मक प्रक्रिया का भाव ही हमारे शरीर में अनेक स्थितियां पैदा करता है। भाव-व्यंजन के दो रूप हैं- प्रकट और अप्रकट।

लावण्य-योजना

लावण्य, सौदर्य में लुभावनापन होने को कहते हैं। भाव जिस प्रकार मनुष्य के भीतरी सौंदर्य का बोधक है उसी प्रकार लावण्य चित्र के बाहरी सौंदर्य का बोधक है। लावण्य-योजना के द्वारा ही चित्र को नयनाभिराम बनाया जा सकता है। लावण्य मानों कसौटी पर सोने की रेखा है अथवा साड़ी पर एक सुंदर किनारी।

सादृश्य

किसी मूल वस्तु की नकल अथवा उसकी दूसरी आकृति बनाना अथवा उसकी समानता का नाम ही सादृश्य है। हम जिस वस्तु का चित्रण करते हैं उसमें यदि मूल वस्तु के गुण-दोष समाहित न हों तो वह वास्तविक कृति नहीं कही जा सकती। स्पष्ट रूप से समझने के लिए कहा जा सकता है कि यदि किसी चित्रकार को कृष्ण व राम के चित्र बनाने हैं तो उसे उन दोनों की विशेषताओं का ज्ञान होना आवश्यक है। इस प्रकार राम और कृष्ण के चित्र में विशिष्ट भिन्नता यह होगी कि कृष्ण का मुकुट मोरपंख का होगा जबकि राम का मुकुट इस प्रकार का नहीं होगा।

वर्णिका-भंग

चित्र में अनेक रंगों की मिली-जुली भंगिमा को वर्णिका-भंग कहते हैं। वर्णिका-भंग के द्वारा ही चित्रकार को इस बात का ज्ञान होता है कि किस स्थान पर किस रंग को भरना चाहिए। भारतीय कला की विधाओं में चित्रकला का विशिष्ट स्थान रहा है। चित्रकला केवल हमारी ऐतिहासिक ही नहीं, समसामयिक निर्देशक भी होती है। प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक भारत में चित्रकला की परंपरा अक्षुण्ण रही।