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Blog / 07 Aug 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: मथुरा कला शैली "भाग - 4" (Sculpture and Painting: Mathura Style of Architecture and Sculpture "Part - 4")

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: मथुरा कला शैली "भाग - 4" (Sculpture and Painting: Mathura Style of Architecture and Sculpture "Part - 4")


परिचय

मूर्तिकला स्वयं में ही एक अदभुत कला है जहाँ भक्त और भगवान के बीच कड़ी यह मूर्ति बन जाती है भक्त अपनी श्रद्धा एवं विश्वास से उस मूर्ति में ही अपने भगवान को देखने लगता है यह उसकी आस्था का विषय है और इसी आस्था के कारण वह अपनी कल्पना से भगवान की अलग-अलग मूर्तियों को गढ़ता है। इसका साक्ष्य इतिहास के कई कालों में देखने को मिलता है।

इसी क्रम में मूर्तिकला के अपने अगले विशेषांक में हम आज मथुरा कला शैली के बारे में जानने का प्रयास करेंगे-

मथुरा कला शैली

मथुरा कला शैली का उद्भव संभवतः ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के अंत में कुषाण काल में हुआ। कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के काल में मथुरा कला का सर्वोत्कृष्ट विकास हुआ। इस शैली में उत्कृष्ट कलाकृतियों का निर्माण हुआ जिनकी ख्याति चीन तक पहुँची।

मथुरा शैली की प्रारंभिक मूर्तियों में बुद्ध और बोधिसत्वों की गढ़ी हुई प्रसन्न आकृतियाँ हैं, जिनमें आध्यात्मिकता का आभास नहीं था, परंतु उत्तर काल में उनमें सौन्दर्य और धार्मिक भावना का विकास हुआ। यद्यपि मथुरा शैली प्रारंभिक भारतीय परम्परा की बहुत ऋणी है, तथापि उसने उत्तर - पश्चिम का भी अनुकरण किया और एक से अधिक यूनानी-रोमन चेष्टाओं को ग्रहण किया।

मथुरा के मूर्तिकारों ने अपनी बौद्ध मूर्तियों के लिए एक ओर तो प्रारंभिक शताब्दियों की हष्ट-पुष्ट यक्ष की मूर्तियों से और दूसरी ओर ध्यान मुद्रा में जैन तीर्थकरों से प्रेरणा प्राप्त की।

मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी मुद्रा में बनी हुई मूर्तियाँ मिली हैं। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है। बुद्ध मूर्तियों में कटरा से प्राप्त मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में बोधिसत्व की संज्ञा दी गई है। इसमें बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किये हुए दिखाया गया है।

वे बोधिवृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान हैं तथा उनका दायाँ हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। उनकी हथेली और तलवों पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिन्ह बनाये गये हैं। मूर्ति के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल दिखाया गया है। समग्रतः यह मूर्ति कलात्मक रूप से अत्यंत प्रसंशनीय है।

बुद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त मैत्रेय, कश्यप, अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्वों की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिलती हैं। मैत्रेय को अभय मुद्रा में अथवा दाये हांथ में कमल नाल लिए हुए तथा बायें हाथ में अमृत घट लिए हुए दिखाया गया है। बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें भी स्तभों पर मिलती हैं।

जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्त्तन, महापरिनिर्वाण जैसी जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अंकन किया गया है। मथुरा के कलाकारों ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीकों को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया। यही कारण है कि मथुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गांधार मूर्तियों के लक्षण दिखायी देते हैं, जैसे-कुछ मूर्तियों में मूँछ तथा चप्पल दिखायी गयी है।
मथुरा के शिल्पियों ने बुद्ध-बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त हिन्दू एवं जैन मूर्तियों का भी निर्माण किया था। हिन्दू देवताओं में विष्णु, सूर्य, शिव, कुबेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमायें अत्यंत सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। मथुरा तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रें से अब तक चालीस से भी अधिक विष्णु मूर्तियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। अधिकांश चतुर्भुजी हैं।

विष्णु के अवतारों से संबंधित मूर्तियाँ प्रायः नहीं मिलती। शिव प्रतिमायें लिंग तथा मानव दोनों रूपों में मिलती हैं। शिव लिंग कई प्रकार के हैं जैसे- एक मुखी, दो मुखी, चार मुखी, पाँच मुखी आदि। शिव के साथ उनकी अर्धांगिनी पार्वती की प्रतिमा पहली बार संभवतः मथुरा में ही कृषाण कलाकारों द्वारा बनाई गयी थ।

मथुरा में इस समय पाशुपात सम्प्रदाय के अनुयासी बड़ी संख्या में निवास करते थे। मथुरा कला में सूर्य प्रतिमाओं का भी निर्माण किया गया। मानव रूप में सूर्य को लम्बी कोट, पतलून तथा बूट पहने हुए दो या चार घोड़ों के रथ पर सवार दिखाया गया है।

जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं - खड़ी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं तथा बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्मासन में हैं। खड़ी मुद्रा (कायोत्सर्ग) की मूर्तिया पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजाएं घुटनों के नीचे तक फैली हुई हैं तथा भौहों के बीच केशपुंज बनाया गया है।

बैठी हुई (पदमासन) मूर्तियाँ ध्यान मुद्रा में हैं तथा इनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाए गए हैं। इसी प्रकार मथुरा और उसके आस-पास जैन तीर्थंकरों की पाषाण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुंदर नमूने मिलते हैं। बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा से कनिष्क की सिररहित मूर्ति मिली है जिस पर ‘महाराज राजाधिराजा देवपुत्रे कनिष्को’ अंकित है। यह खड़ी मुद्रा में है तथा 5 फुट 7 इंच ऊँची है।

राजा घुटने तक कोट पहने हुए है, उसके पैरों में भारी जूते हैं, दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह बायें हाथ में तलवार पकड़े हुए है। कला की दृष्टि से यह प्रतिमा उच्चकोटि की है, जिसमें मूर्तिकार को सम्राट् की पाषाण मूर्ति बनाने में अद्भुत सफलता मिली है। शिल्प की दृष्टि से इसे सम्राट का यथार्थ रूपांकन कहा जा सकता है।

यह सत्य है कि मथुरा कला शैली में बनी कुछ मूर्तियों पर यूनानी प्रभाव परिलक्षित होता है लेकिन अब यह स्पष्टतः सिद्ध हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गांधार से सर्वथा स्वतंत्र थीं तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय ही था।

वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार सर्वप्रथम मथुरा में ही बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया जहाँ इनके लिए पर्याप्त धार्मिक आधार था। उनके अनुसार मूर्ति की कल्पना धार्मिक भावना की तुष्टि के लिए ही होती है।

मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  • इस कला शैली में बनी मूर्तियों का निर्माण सफेद चित्ती वाले लाल रवादार पत्थर से किया गया है।
  • स्त्री मूर्ति के नेत्रें में चंचलता की छाप दिखायी देती है। नेत्रें के कटाक्ष और बाकपन में भारतीयता स्पष्ट झलकती है।
  • मथुरा कला की बुद्ध मूर्ति सिंहासनासीन तथा खड़ी आकृति में निर्मित है। खड़ी मूर्तियों के पैरों के नीचे सिंह की आकृति पायी जाती है।
  • इस शैली में निर्मित मूर्तियों में कम-से-कम अलंकरण तथा वस्त्रें का प्रयोग मिलता है।
  • जैन मूर्तियों के वक्ष स्थल पर पवित्र मांगलिक चिन्ह श्री वत्स अंकित मिलता है।

मथुरा कला शैली में आभूषणों से लदी स्त्रियाँ, जिनकी आकृतियाँ नितम्ब पर अत्यंत चौड़ी तथा कमर पर पतली हें, चपल मुद्रा में खड़ी हुई सिन्धु सभ्यता की नर्तकी बाला का स्मरण कराती हैं। वास्तव में मथुरा की कलाकृतियाँ वैदेशिक प्रभाव से मुक्त हैं तथा इस कला में भरहुत और साँची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढ़ाया गया है। अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं कलात्मक सृजन के कारण मथुरा कला का भारतीय कला में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

अगले अंक में मूर्तिकला से जुड़े कुछ अन्य रोचक जानकारियों को लेकर हम शीघ्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत होंगे।