(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: कुषाणकालीन मूर्तिकला और गांधार कला शैली "भाग - 3" (Sculpture and Painting: Kushan Period Sculpture and Gandhara Art Style "Part - 3")
परिचय
जब कोई कला के संदर्भ में बात करना है तो आमतौर पर उसका अभिप्राय दृष्टिमूल कला से होता है, जैसे-वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्र कला। प्राचीन कला में ये तीनों पहलू आपस में मिले हुए थे। प्राचीन साहित्य से पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में मूर्तिकला का विशेष स्थान रहा है अलग-अलग इतिहास काल में उस संस्कृति को परिलक्षित करती हुयी मूर्तिकला अपने आप में ही एक अदभुत दृश्य प्रस्तुत करती है। जहाँ एक तरफ मूर्ति को धर्म से जोड़ा जा सकता है वही दूसरी ओर यह अलग-अलग संप्रदायों के विश्वास का भी प्रतीक माना जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में अपनी Art & Culture के मूर्तिकला Series में हम आज कुछ अन्य कालों के विशिष्ट मूर्तिकलाओं का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
आइए सबसे पहले जानते हैं कुषाणकालीन मूर्तिकला के बारे में-
कुषाणकालीन मूर्तिकला
शुंग-सातवाहन काल के उपरांत कुषाणवंशीय शासकों के काल में भारतीय मूर्तिकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी। इस काल में मूर्तिकला की दो महान शैलियों - गांधार और मथुरा कला शैलियों का विकास हुआ। गांधार शैली पर यूनानी और रोमन प्रभाव परिलक्षित होता है। मथुरा शैली में देशी शैली का प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट है। गांधार (निचली काबुल घाटी और पेशावर के चारों ओर उत्तरी सिन्धु) और मथुरा शैली जो कि कुषाण राजाओं के समय में प्रस्फुटित हुई, बुद्ध की प्रथम मूर्तियों के निर्माण की कीर्ति में परस्पर स्पर्द्धा करती हैं। दरअसल दोनों ही कला शैलियों में बुद्ध की मूर्तियाँ बनायी गयीं और बौद्ध के जीवन से संबंधित विषयों का निरूपण किया गया। अनेक भारतीय विद्वानों का अब विश्वास है कि बुद्ध की मूर्ति सर्वप्रथम मथुरा में निर्मित हुई, जबकि अनेक प्रारंभिक यूरोपीय विद्वान गान्धार का समर्थन करते हैं।
इसी तरह हमारी अगली मूर्तिकला गांधार कला शैली है-
गांधार कला शैली
गांधार शैली रोमन साम्राज्य की कला से प्रभावित थी। जब इस शैली का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय तक प्रायः यूनानी बौद्ध कहे जाने वाले बैक्ट्रिया और उत्तरी भारत के यूनानी राज्य कभी के समाप्त हो चुके थे। दरअसल इस शैली के विकास का श्रेय सिकन्दर के यूनानी- बैक्ट्रियन उत्तराधिकारियों को नहीं है, अपितु पश्चिम से होने वाले व्यापार, रोम की बढ़ती हुई समृद्धि तथा पूर्व की ओर अग्रसर होने वाले सैन्य दल को है। कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों ने भी गांधार शैली को प्रोत्साहन दिया। नवीन धर्मनिष्ठ बौद्ध धर्म ने मूर्ति पूजा की माँग की और बुद्ध तथा बोधिसत्वों की असंख्य मूर्तियों का निर्माण हुआ। इस काल में बौद्ध धर्म और बौद्ध कला का बड़े पैमाने पर प्रसार-प्रसार और विकास हुआ।
इस शैली में बनी मूर्तियों की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैः
- सभी मानव मूर्तियों के हाथ-पैर की अंगुलियों में ग्रीक कला की वास्तविकता न होकर भारतीयता का भावपूर्ण लोच है।
- गांधार शैली में निर्मित मूर्तियाँ भूरे रंग के पत्थरों से निर्मित हैं। कुछ मूर्तियों का निर्माण काले स्लेटी पत्थर से भी किया गया है।
- इस शैली में मानव शरीर का यथार्थ अंकन है। मांसपेशियों के उतार-चढ़ाव स्पष्ट हैं। शरीर के अंगों का सूक्ष्म अंकन है।
- मूर्तियां ध्यान, पद्मासन, धर्मचक्र-प्रवर्तन, वरद तथा अभय आदि मुद्राओं में हैं।
- वस्त्रों का अंकन करते समय मोटे वस्त्रों के सिलवटों की ओर सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया है, जिससे वे प्राकृतिक दिखाते हैं।
- आँखों के अंकन में भारतीयता एवं बांकपन दृष्टिगोचर होता है। इनमें कटाक्ष है तथा पलक कुब्बदार (अडील) तथा भौंह नीचे से प्रारंभ होकर आँख की ओर प्रविलम्बित करती है जो पूर्णतः भारतीय है। यूनानी आँख बड़ी तो होती है पर उसमें कटाक्ष और बांकपन का अभाव परिलक्षित होता है।
- बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों में आध्यात्मिकता तथा भावुकता न होकर बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की ही प्रधानता दिखाई देती है। इनमें वह सहजता तथा भावात्मक स्नेह नहीं है जो भरहुत, साँची, बोधगया अथवा अमरावती के मूर्तियों में दिखाई देता है।
गांधार कला की अनेक कलाकृतियाँ बुद्ध के जीवन काल से जुड़ी हुई हैं अथवा बुद्ध की अन्य भावभंगिभाओं को लेकर बनायी गयी हैं। वास्तव में यह शैली तथागत बुद्ध के जीवन और कार्यों का सजीव चित्रण प्रस्तुत करती है। इस शैली पर यूनानी प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर होता है, लेकिन इस शैली की आत्मा भारतीय है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गांधार शैली में भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है। इसका विषय बौद्ध होने के कारण इसे यूनानी-बौद्ध कला के नाम से भी जाना जाता है।
गांधार मूर्ति कला की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति एक योगी के रूप में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति है। एक संन्यासी का वस्त्र पहने हुए उनका मस्तक आध्यात्मिक शक्ति बिखेरता हुआ प्रतीत होता है। शुद्धरूप से भारतीय प्रतीत होती यह मूर्ति यह दर्शाती है कि कला घरेलू और विदेशी तत्त्वों का मिला-जुला रूप है।
अगले अंक में मूर्तिकला से जुड़े कुछ अन्य रोचक जानकारियों को लेकर हम शीघ्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत होंगे।