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Blog / 22 Jul 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की संगीत कला "भाग - 3" (Music of India "Part - 3")

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की संगीत कला "भाग - 3" (Music of India "Part - 3")


मुख्य बिंदु:

भारत में धार्मिक मान्यतानुसार कहा जाता है कि संगीत पहले ब्रह्याजी के पास था। उन्होंने यह कला शिव जी को दी, जिनसे यह देवी सरस्वति को प्राप्त हुई। इसीलिए सरस्वति को संगीत की अधिष्ठात्री माना गया है। इसके अलावा एक अन्य मत के अनुसार सृष्टिकर्ता ने नारी सौन्दर्य में आकर्षण पैदा करने के लिए उसे संगीत से अलंकृत किया क्योंकि यदि नारी के अंदर संगीत न होता तो वह सृष्टि की जननी न बन पाती। हालांकि वैज्ञानिक मतानुसार संगीत की उत्पत्ति अफ्रीका से मानी जाती है क्योंकि मानव की उत्पत्ति भी वहीं से मानी जाती है और प्राचीन काल से ही लगभग सभी मानव समुदायों में संगीत किसी न किसी रूप में अस्तित्व में रहा है। इन सभी दृष्टिकोणों के मध्य संगीत की महत्ता अक्षुण्ण है और इतना तो निर्विवाद है कि संगीत के अभाव में जीवन का श्रृंगार न हो पाता।

प्रतिपादक

  • बड़े गुलाम अली खाँ
  • परवीन सुल्ताना
  • बेगम अख्तर
  • नैना दवी

दिल्ली घरानाः

तानरस खान और शब्बू खान इस घराने के प्रवर्तक माने जाते हैं। तानरस खान की तान बहुत मशहूर थी। इसके संस्थापक उस्ताद मम्मन खान थे।

भिण्डी बाजार घरानाः

भिण्डी बाजार घराने की सबसे विशिष्ट विशेषता ख्याल है, जो खुल आवाज की प्रस्तुति है। आवाज का उपयोग कर, साँस नियन्त्रण और लम्बे मार्ग की एक सांस में गायन पर एक तनाव है। इसके संस्थापक उस्ताद छज्जू खान थे।

प्रतिपादक

  • उस्ताद अमन अली खान
  • अंजलीबाई माल्पेकर
  • राशिकला कोरटकर

फतेहपुर सीकरी घरानाः

यह घराना ध्रुपद तथा ख्याल गायन के लिए जाना जाता है। इसकी स्थापना मुगल शासक जहाँगीर कालीन गायकों-जैनू खाँ तथा जोरावर खाँ के द्वारा की गई।

प्रमुख संगीतकार

  • दुल्हे खाँ
  • छोटे खाँ
  • गुलाम रसूल खाँ

मेवाती घरानाः

यह अपनी शैली भाव प्रधान नोट्स के माध्यम से राग का मूड के विकास को महत्त्व देता है। इसके संस्थापक घग्गे नजीर खान थे।

प्रतिपादक

  • पण्डित जसराज
  • संजीव अभ्यंकर

धमारः भगवान कृष्ण की क्रीड़ओं एवं रास लीलाओं पर आधारित यह एक प्राचीन गायन शैली है। इसमें अधिकतर होली का वर्णन मिलता है। इस शैली में धमार ताल का ही प्रयोग होता है।

ठुमरीः ठुमरी का जन्म स्थान लखनऊ माना जाता हैं। लखनऊ के ही उस्ताद सादिक अली खां इस अंग की गायकी के जनक कहे जाते हैं। इसे अर्द्धशास्त्रीय संगीत की श्रेणी में रखा जा सकता है। यह एक श्रृंगारिक शैली है। इसमें शब्दों को भाव एवं कल्पनाशीलता से गाते हैं। 19वीं शताब्दी में वाजिद अली शाह के काल में यह गायन शैली अत्यधिक लोकप्रिय हुई। बनारस और लखनऊ में इसे अधिक प्रसिद्ध मिली है। अवध का कत्थक नृत्य ठुमरी गायकी से विशेष रूप से सम्बंधित रहा है। विशिष्ट भाव की स्वरों में अदायगी के लिए ठुमरी में बोल बनाव का आविष्कार हुआ। एक ही बोल को कितने रसों में कितने प्रकार से नाटकीयता के साथ अदा किया जा सकता है, यह ठुमरी गायन ने साक्षात् करके दिखा दिया।

बनारसी ठुमरीः बनारस की ठुमरी पण्डित जगदीप मिश्र जी से शुरू हुई। बनारस अंग की ठुमरी में चैनदारी है। यहाँ की ठुमरी में ठहराव और अदायगी का अपना एक अलग ही रंग है।

गजलः यह संगीत की एक अत्यंत लोकप्रिय विधा है। इसमें विशेष रूप से उर्दू भाषा में लिखित रचना को गाया जाता है। गालिब, जफर आदि गजल के विख्यात लेखकों में से हैं। आजकल हिन्दी में भी गजलों की रचना की जा रही है।

टप्पाः यह भी संगीत की अर्द्धशास्त्रीय गायन शैली है। हालांकि इसे क्लिष्ट शैली माना जाता है। टप्पा गायन वस्तुतः ठुमरी का ही भाईबंद है। इसके आविष्कारक पंजाब के शोरी मियां माने जाते हैं। इसकी चाल ख्याल और ठुमरी से भिन्न होती है। टप्पा गायन रस से अधिक कौतूहल की वस्तु बन गया। इसे पंजाबी भाषा में गाया जाता है। आजकल हिन्दी में भी इस शैली का विकास हो रहा है।

दादराः यह श्रृंखला प्रधान रचना होती है। इसमें ठुमरी का थोड़ा पुट भी मिलता है। इसमें संयोग और वियोग का वर्णन होता है। इसमें दादरा और कहरवा ताल प्रयुक्त होता है।

लोक संगीत

प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में काल और स्थान के अनुसार पुष्पित-पल्लवित संगीत को लोक संगीत कहा जाता है। इसे लोक अंचल की भाषा में गाया जाता है। इसमें क्षत्रिय भाषाओं में गीत गाये जाते हैं। इसमें संबंधित क्षेत्र, संस्कृति व जलवायु से संबंधित विषय होते हैं। भारत सांस्कृतिक विविधताओं का देश है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र का अपना लोक संगीत है। लोक संगीत की परम्परा न केवल गाँवों में बल्कि शहरों में भी जीवित है। यद्यपि कुछ लोगों का मानना है कि पॉप संगीत तथा आधुनिक सिनेमा के आगमन के बाद से लोक संगीत की मौलिकता ने एक अलग रूप धारण कर लिया है लेकिन अनेक विद्वान इससे अलग राय रखते हैं। आज भी भारतीय लोक संगीत का एक बड़ा साम्राज्य अपनी मौलिकता को बनाये रखा है। बहुत से लोग लोक संगीत और जनजातीय संगीत को एक-दूसरे का पर्यावाची समझ बैठते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। लांगुनिया, कजरी, बन्ना, घोड़ी, भात, जच्चा, सोहर एवं बिदाई आदि गीत इसके अंतर्गत आते हैं।

लोक संगीत के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है जैसा कि शास्त्रीय संगीत में होती है। शास्त्रीय संगीत पूर्ण समपर्ण की माँग करता है जबकि एक व्यक्ति अपने दैनिक जीवन को बिना प्रभावित किये भी लोक संगीत की परम्परा को जारी रख सकता है। लोग बचपन से बड़े होने की प्रक्रिया के बीच गाते-सुनते लोक संगीत सीख जाते हैं। ऐसे संगीत गाँवों में विवाह समारोहों, जन्मोत्सवों आदि अवसरों पर गाये जाते हैं। यहाँ शास्त्रीय संगीत में परिष्कृत वाद्ययंत्रें का प्रयोग होता है, उदाहरण के लिए जहाँ शास्त्रीय संगीत में तबले एवं सितार का प्रयोग होता है, वहीं लोक संगीत में ढोलक, ढपली, एकतारा, दोतार संतूर इत्यादि के प्रयोग होता है। इनमें से अधिकतर वाद्ययंत्र बाँ, मिट्टी, नारियल की खोपड़ी जैसे आसानी से उपलब्ध होने वाले संसाधनों के प्रयोग से बनाये जाते हैं। भारत में ज्यादातर लोक संगीत नृत्य आधारित हैं और बहुत से प्रचलित नृत्य जैसे ‘लावणी’ ‘गरबा’, ‘डाण्डिया’ आदि लोक संगीत के धुन पर ही निष्पादित किये जाते हैं।

सुर-साधक

अमीर खुसरो

खुसरो को राष्ट्रीय एकता की मूलभावना से ओतप्रोत पहला महाकवि माना जाता चाहिए,जिन्होंने भिारतीय संगीत, हिन्दी कविता और फारसी काव्य में विविध रंगों वाले भारतीय जीवन की ताजा सुगंध भरी। खुसरो का जन्म 1253 ई- में पटियाली गांव, जिला एटा, उ-प्र- में हुआ था। उन्होंने अपना पहला काव्य संग्रह ‘तुद्दफतुस्मिर’ मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही पूरा कर लिया था। अलाउद्दीन के जमाने में खुसरो ने पांच प्रेमाख्यान मसनवियां और दो गद्य पुस्तकें लिखीं। इसी दौरान ‘नूह सिपरी’ लिखी गई। तुगलकों के सत्ता सम्हालने के बाद इन्होंनं ‘तुगलकनामा’ लिखा। यह खुसरो ही थी, जिन्होंने एक साथ गजल, मसनवी, कसीदा और रूबाई पर कमाल हासिल किया। गजल के साथ कव्वाली भी खुसरो की ही देन है। तबले के आविष्कारक खुसरो ही थे। दरअसल खुसरो ने फारसी और भारतीय संस्कृतियों का समागम भारतीय संगीत में किया।

स्वामी हरिदास

भारत के सांस्कृतिक इतिहास में संगीत और भक्ति का अनन्य योगदान रहा है। संगीत की अक्षुण्झा परंपरा में जिन मध्यकालीन संत कवियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, उनमें सर्वप्रथम है, महान संगीतज्ञ स्वामी हरिदास। इन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को ध्रुपद से समृद्ध किया है। वृंदावन में रहकर इन्होंने अनेक ध्रुपदों की रचना की तथा उन्हें शास्त्रेक्त रागों एवं तालों में निबद्ध किया। साथ ही ये नृत्य शास्त्र के भी श्रेष्ठ आचार्य थे। उन्होंने रास का प्रचलन कर नृत्य में एक नई विधा शुरू की। वह कृष्ण भक्ति के एक विशेष सम्प्रदाय, सखी सम्प्रदाय अथवा हरिदासी सम्प्रदाय के प्रारंभकर्ता भी थे।

तनसेन

तनसेन को संगीत का पर्याय माना जाता है। इनका जन्म ग्वालियर से सात मील दूर बेहट नामक गांव में हुआ था। स्वामी हरिदास ने इनकी प्रतिभा को पहचाना तथा उन्हें दस वर्ष तक संगीत की शिक्षा दी। उन्हें पहले ग्वालियर के महाराज राम निरंजन सिंह के दरबार में और फिर रीवा के शासक राजा रामसिंह के दरबार में दरबारी गायक नियुक्त किया गया। फैलती प्रसिद्धि ने उन्हें अकबर के दरबार तक पहुंचा दिया, जहां उन्हें नौरत्न में शामिल किया गया। मियां के नाम से आरंभ होने वाले सभी राग उन्हीं की देन हैं- मियां की तोड़ी, मियां की मल्हार, मियां की सारंग इत्यादि। तानसेन ध्रुपद की चार वाणियों में से गौड़ीय वाणी के उल्लेखनीय गायक थे। उन्होंने अनेक नए रागों की रचना की।

बैजू बावरा

पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के काल में हुए इस गायक के बारे में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। राजा मानसिंह ने जब अपनी रचनाओं को ब्रज भाषा में लिखकर ध्रुपद को लोक भाषा दी, तब गायक बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा ने ही उनकी सहायता की थी। आज इतिहास की दृष्टि से वह शून्य हैं, किंतु मानव दृष्टि के सजीव पृष्ठ पर आज भी वह प्राणवत्ता का स्फूर्तिदायक संदेश लिए हुए हैं और भारतीय संगीत की सुषमा को मुखरित कर रहे हैं।

नेमत खां सदारंग

मुगल सम्राट मोहम्मद शाह (1719-1748 ई-) संगीत के प्रति अपने अनुराग के कारण ‘रंगीला’ कहलाते थे। उनके दबरार में ख्याल गायकी के प्रमुख प्रवर्तक नेमत खां सदारंग हुआ करते थे। सदारंग की बंदिशों में श्रृंगार रस और बादशाह की प्रशस्ति का पुट होने के कारण गाने वालियां इन्हें सीखने के लिए उत्सुक रहती थीं। सदारंग के साथ ही कुछ बंदिशों में अन्दारंग का नाम भी पाया जाता है।

विष्णु नारायण भातखंडे

मुंबई उच्च न्यायालय और कराची की अदालत में वकालत करने वाले भारतखंडे ने वकालत छोड़कर अपना सारा जीवन संगीतोद्धार में लगा दिया। भातखंडे जी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य संगीत के दस घाटों पर प्रचलित रागों के लिए सिखाए जा सकने वाले ख्याल, ध्रुपद तथा धमार के साहित्य की शास्त्रीय जानकारी को शिक्षालयों के लिए उपयोग तथा क्रमिक शिक्षा का आधार बनाना था। उन्होंने मराठी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदुस्तानी संगीत पद्धति’ लिखी। इन्होंने ‘चतुर’ नाम से कुछ गीत भी लिखे।

विष्णु दिगंबर पलुस्कर

आज देश में संगीत का जो प्रचार है, वह पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के परिश्रम का ही फल है। संगीत के विकृत स्वरूप् को सुधारने और समुचित मान-प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय पलुस्कर जी को जाता है। उन्होंने श्रृंगार रस के भद्दे शब्दों को हटाकर भक्ति और करूण रस को स्थान दिया। उन्होंनं ‘संगीतामृत प्रवाह’ नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। विष्णु दिसंबर ने स्वतंत्रता सांग्रम में भी अपना विशिष्ट योगदान दिया। वह गांधीजी के साथ सभा मंच पर बैठकर ‘रघुपति राघव राजाराम’ गाते थे। कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों का आरंभ उनके गाए ‘वंदेमातरम्’ से होता था।

फैयाज खां

उस्ताद फैयाज खां चौमुखी प्रतिभा के गायक थे। उन्हें ‘आफताबे मौसिकी’ कहा जाता था। फैयाज खां का जन्म 1880 में आगरा के पास सिंकदरा में हुआ था। उन्होंने आगरा घराने के उस्ताद गुलाम अब्बास खां से तालीम ली थी। फैयाज साहब की गायकी में गंभीरता, भावुकता, संयम और रोचकता का उचित सम्मिश्रण था। वह इस घराने के एकमात्र ऐसे गायक थे, जिन्होंने अपने घराने की शैली पर अपने व्यक्तित्व की मुहर लगाई। उस्ताद फैयाज खां ब्रज भाषा का सही और सुंदर उच्चारण करते थे और ‘प्रेमपिया’ के नाम से रचनाएं भी करते थे।

मुथुस्वामी दीक्षितार

मुथुस्वामी का जन्म तंजवूर के तिरूवरूर में हुआ था। इन्होंने कुछ अप्रचलित रागों जैसे-सारंग नट, कुमुदक्रिया और अमृत वर्षिनी, में कुछ धुनें तैयार की जिनके आधार पर इन रागों का प्रयोग किया जा सकता है। उन्होंने विभिन्न तालों का जटिल प्रयोग कर संगीत की कुछ नई तकनीकें विकसित कीं। उनमें से कुछ हैं- वायलिन का कर्नाटक संगीत में प्रयोग, जिसे अभी तक पश्चिमी वाद्य माना जाता था।

बिस्मिल्लाह खाँ

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने अकेले दम पर शहनाई को एक शास्त्रीय वाद्ययन्त्र के रूप में प्रसिद्धि दिलाई। अन्य अनेक संगीतकारों की तरह ही वे भी देवी सरस्वती के भक्त थे। वे काशी के विश्व प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर में भगवान शिव को समर्पित शहनाई वादन किया करते थे। उन्होंने सत्यजीत रे की कृति चलचित्र जलसागर में अभिनय भी किया तथा गूंज उठी शहनाई में शहनाई वादन भी किया। 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली के लाल किले से उन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र का अभिवादन किया। उन्होंने भारत के श्रोताओं के समक्ष अपने शहनाई का मधुर वादन किया।

रविशंकर

पण्डित रविशंकर का जन्म वाराणसी में 7 अप्रैल, 1920 को हुआ था। उनके बड़े भाई उदयशंकर प्रख्यात नर्तक थे तथा पण्डित रविशंकर उनके डांस ग्रुप के एक नर्तक के रूप में देश-विदेश के दौरे पर जाते थे। उन्होंने वर्ष 1938 में अपने नृत्य की वृत्ति को तिलांजति दे दी और मैहर (सतना, मध्य प्रदेश में स्थित) में जाकर महान् संगीतकार अलाउद्दीन खाँ से संगीत की शिक्षा प्राप्त करने लगे। यहीं उन्होंनें रूद्रवीणा, रबाब, सुरसिंगार, सितार, सुरबहार आदि वाद्य यन्त्रें के वादन में महारत प्राप्त की तथा ध्रुपद_ ख्याल, आदि शैलियों में पारंगत हुए।

प्रमुख वाद्य यंत्र

शहनाई

  • शहनाई भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्य यंत्रें में से है।
  • शहनाई एक खोखली नली होती है, जिसका एक सिरा अधिक चौड़ा तथा दूसरा पतला होता है।
  • शहनाई के संकरे सिरे पर विशेष प्रकार की पत्तियों और दलदली घासों से डैने के आकार की बनी एक सेमी- लम्बी दो पत्तियाँ लगी होती हैं।
  • उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते हैं।

संतूर

  • संतूर का भारतीय नाम शततंत्री वीणा है।
  • संतूर लकड़ी का एक चतुर्भुजाकार बक्सानुमा यंत्र है, जिसके ऊपर दो-दो मेरू की पंद्रह पंक्तियां होती हैं।
  • इसे आगे से मुड़ी हुई डंडियों से बजाया जाता है।
  • इसे सूफी संगीत में इस्तेमाल किया जाता था।

सारंगी

  • सारंगी मुख्य रूप से गायकी प्रधान वाद्य यंत्र है।
  • राग ध्रुपद जो गायन पद्धति का सबसे कठिन राग माना जाता है, सारंगी के साथ इसकी तारतम्यता अतुलनीय है।
  • सारंगी अलग-अलग प्रकार की होती है। सभी सारंगियों में लोक सारंगी सबसे श्रेष्ठ है। सारंगी का निर्माण लकड़ी से होता है तथा इसका नीचे का भाग बकरे की खाल से मंढ़ा जाता है। इसके पेंदे के ऊपरी भाग में सींग की बनी घोड़ी होती है। घोड़ी के छेदों में से तार निकालकर किनारे पर लगे चौथे में उन्हें बांध दिया जाता है। इस वाद्य में 29 तार होते हैं तथा मुख्य बाज में चार तार होते हैं।

तबला

  • आधुनिक काल में गायन, वादन तथा नृत्य की संगति में तबले का प्रयोग होता है।
  • तबला हजारों साल पुरा वाद्ययंत्र है किंतु नवीनतम ऐतिहासिक वर्णन में 13वीं शताब्दी में भारतीय कवि तथा संगीतज्ञ अमीर खुसरो ने पखावज के दो टुकड़े करके तबले का आविष्कार किया।
  • तबला शीशम की लकड़ी से बनाया जाता है। तबले को बजाने के लिये हथेलियों तथा हाथ की उंगलियों का प्रयोग किया जाता है। तबले के द्वारा अनेक प्रकार के बोल निकाले जाते हैं।

सितार

  • अमीर खुसरो ने सितार को जन्म दिया।
  • सितार ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसने पूरी दुनिया में भारत का नाम लोकप्रिय किया।
  • सितार बहुआयामी साज होने के साथ ही एक ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसके जरिये भावनाओं को प्रकट किया जाता है।
  • इसके सबसे मशहूर वादकों में पंडित रविशंकर का नाम है।

मृदंग

  • यह दक्षिण भारत का एक थाप यंत्र है।
  • मृदंग कर्नाटक संगीत में प्राथमिक ताल यंत्र होता है।
  • मृदंग में सोरू की जगह ‘स्याही’ का प्रयोग किया जाता है।

रूद्रवीणा

  • इसे हिन्दुस्तानी संगीत में बजाया जाता है। इसमें एक लंबी नली के आकार की लकड़ी के दोनों सिरों के नीचे सूखे हुए सीताफल के खोखले तूंबा होते हैं। इसमें मुख्य चार तार होते हैं, जो खूटियों से कसे जाते हैं। इसके अलावा दो और तार होते हैं और लकड़ी के बने 24 पर्द होते हैं।

इसराज

  • इसराज एक तरह से सितार और सारंगी का मेल है। इसका ऊपरी भाग सितार से और नीचे का भाग सारंगी की तरह होता है। इसमें 4 मुख्य, तरब के 15 से 19 पर्दें होते हैं। इसे भी गज से बजाया जाता है। इसका प्रयोग रवीन्द्र संगीत में भी होता है।

रावणहत्था

  • इसमें एक छोटा तूंबा होता है, जिसे नारियल की खप्पर से बनाया जाता है। भोपा लोग जब पाबूजी की फड़ नाम की पारंपरिक गाथा गाते हैं तो इसे बजाया जाता है।

सारिंडा

  • असम और त्रिपुरा के आदिवासी तीन तारों वाला यह वाद्य बजाते हैं। इसका तूंबा नाशपाती के आकार का होता है।

जलतरंग

  • इसका ज्यादा प्रयोग नहीं होता। इसमें चीनी मिट्टी के कई प्याले होते हैं, जिनमें एक सीमा तक पानी भरा होता है। इसमें पानी की मात्र और प्यालों के आकार के अनुसार स्वर उत्पन्न होता है।

मानव व्यक्तित्व का विकास और कला विधाएँ

इन कला विधाओं से सम्बद्धता मनुष्य को एक श्रेष्ठतर इंसान बनाती है क्योंकि ये कला विधाएं मानव आत्मा को उदात्त बनाती हैं और एक आनंददायक वातावरण का निर्माण करती हैं। इन कलाओं का ज्ञान व अभ्यास व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है परन्तु यह कलाकार की निष्ठा व समर्पण पर निर्भर करता है। इन कलाओं में संलग्न व्यक्ति आत्म संतुलन, आत्मशांति, आत्मनियंत्रण और दूसरों के लिए स्वयं में प्रेम का भाव, प्राप्त करता है। उनका कला प्रदर्शन उन्हें आत्मविश्वासी, आत्मनियंत्रित और स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लेने वाला बनाता है। उनमें नकारात्मक भावनाएं लुप्त हो जाती है क्योंकि नृत्य, संगीत और नाटक का मूल मर्क हमें दूसरों से प्रेम करने की शिक्षा देता है।