होम > Daily-mcqs

Daily-mcqs 28 Nov 2020

(Video) Daily Current Affairs for UPSC, IAS, UPPSC/UPPCS, BPSC, MPSC, RPSC & All State PSC/PCS Exams - 28 November 2020 28 Nov 2020

image
(Video) Daily Current Affairs for UPSC, IAS, UPPSC/UPPCS, BPSC, MPSC, RPSC & All State PSC/PCS Exams - 28 November 2020


(Video) Daily Current Affairs for UPSC, IAS, UPPSC/UPPCS, BPSC, MPSC, RPSC & All State PSC/PCS Exams - 28 November 2020



एक राष्ट्र-एक चुनाव का मुद्दा

  • स्वतंत्रता आंदोलन में सभी वर्ग/समाज/क्षेत्र के लोग एक ही सपना लेकर ब्रिटिश हुकुमत से लड़ रहे थे, वह था स्वयं के द्वारा शासित होने की भावना जिसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं।
  • लोकतंत्र या जनतंत्र का आशय ऐसी शासन पद्धति से है जिसमें लोग/नागरिक यह निर्णय लेते हैं कि उनके ऊपर शासन कोन करेगा? कैसे करेगा? और कितने समय तक करेगा। इसी भावना को हमारे संविधान की प्रारंभिक लाइन (प्रस्तावना)- ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रत्मक गणराज्य बनाने के लिए.... में व्यक्त करके इसे संवैधानिक रूप दिया गया है।
  • भारत ने आजादी से लेकर अब तक इस लोकतंत्र को न सिर्फ मजबूत किया है बल्कि इसे दुनिया के लिए उदाहरण बनाया है। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां त्रिस्तरीय चुनाव प्रक्रिया- लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव, तथा स्थानीय चुनाव (नगरपालिक, ग्राम पंचायत) कराये जाते हैं।
  • भारत जिन परिस्थितियों और तरीकों से आजाद हुआ विश्व की नजरें इस पर बनी हुईं थीं कि भारत गणतंत्र तो बन गया है लेकिन लोकतंत्र कब बनेगा? हम आजाद तो हो चुके थे लेकिन हम किस प्रकार अपने लोकतंत्र को संभालते हैं, बढ़ाते हैं यह दुनिया देखना चाहती थी। दरअसल 1940 का दशक लोकतंत्र के लिए बहुत उथल-पुथल वाला था।
  • भारत में लोकतंत्र की परीक्षा इसलिए भी होनी थी क्योंकि आजाद भारत ने देश के सभी व्यस्क लोगों को मताधिकार सौंप दिया था, जबकि अमेरिका और यूरोप में इसे प्राप्त करने में लंबा समय लगा। यहां महिलाओं को पहले इस अधिकार से वंचित रखा गया था। आजादी के समय भारत में शिक्षा का स्तर लगभग 20 प्रतिशत ही था, ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर और भी संशय बना हुआ था।
  • वर्ष 1952 में आजाद भारत में पहली बार चुनाव कराया गया। यह चुनाव लगभग 4500 सीटों के लिए होना था, जिसमें लोकसभा की 489 सीटें और बाकि राज्य विधानसभाओं की थीं। इस समय देश की आबादी 36 करोड़ थी जिसमें लगभग 17 करोड़ लोग बालिग थे।
  • वर्ष 1952 के बाद 1957, 1962 और 1967 में पुनः लोकसभा और विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव कराये गये, जिसमें नागरिकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
  • वर्ष 1967 के बाद ऐसी स्थिति आई कि कई राज्यों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में बनी संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें जल्दी-जल्दी गिरने लगीं और 1971 तक आते-आते राज्यों में मध्यावधि चुनाव होने लगे। इसी के साथ वर्ष 1971 में इंद्रिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषण कर दी, जबकि आम चुनाव के लिए एक वर्ष का समय शेष था। इस तरह वर्ष 1972 में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव का सिलसिला सतत नहीं चल पाया।

भारतीय चुनाव प्रक्रिया-

  • भारत एक संघीय देश है, जिसमें शक्तियों का विभाजन (विकेंद्रीकरण) केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय सरकार के बीच किया गया है। इन तीनों सरकारों को चलाने वाले लोगों का चयन जनता चुनाव के माध्यम से करती है।
  • भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली सार्वभौतिक व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत पर आधारित है जहां 18 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी नागरिक को मतदान की अनुमति है।
  • भारत के चुनाव में भारत निर्वाचन आयोग और राज्य निर्वाचन आयोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • चुनाव में वही लोग वोट डालने के हकदार होते हैं जिनका मतदाता सूची में नाम होता है। चुनाव आयोग इसीलिए हमेशा इसे बनाने और संशोधित करने में लगा रहता है।
  • वर्तमान समय में प्रत्येक मतदान केंद्र पर एक EVM का उपयोग एक VVPAT मशीन के साथ किया जा रहा है।
  • चुनाव के समय बड़ी संख्या में मतदान कर्मी और केंद्रीय पुलिस वलों की आवश्यकता होती है।
  • त्रिस्तरीय चुनाव प्रक्रिया के कारण लगभग हर समय देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव हो रहे होते हैं।
  • चुनाव की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है जिसके कारण कई प्रकार के प्रशासनिक ठहराव आते हैं और सरकारें नये विकास कार्यक्रमों की घोषणा नहीं कर पाती हैं।

एक देश एक चुनाव-

  • देश में एक वर्ग ऐसा है जो लंबे समय से यह मांग कर रहा है कि भारत में चुनाव (लोकसभा + विधानसभा + स्थानीय निकाय) एक साथ करवायें जायें जैसा कि 1967 तक होता था।
  • विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट जो वर्ष 1999 में प्रस्तुत की गई थी, उसमें एक पूरा अध्याय लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ करवाने पर केंद्रित थी। इस रिपोर्ट में इसका समर्थन किया गया था। चुनाव सुधार पर केंद्रित यह रिपोर्ट राजनीतिक काम-काज के संबंध में अब तक का सबसे व्यापक दस्तावेज माना जाता है। आज EVM में नोटा (NOTA) का जो विकल्प है इसकी सिफारिश भी विधि आयोग ने इसी रिपोर्ट में की थी।
  • राजनीतिक रूप से यह मुद्दा तब के गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा उठाया गया था जो एक मजबूत केंद्र एवं शक्तिशाली नेतृत्व के दृढ़ समर्थक थे।
  • प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 2003 में इस प्रस्ताव का समर्थन किया था लेकिन तब NDA आम चुनाव हार गया और यह मुद्दा ठण्डे बस्ते में चला गया।
  • वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा को इस विषय पर विचार करने के लिए संदेश भेजकर इस मुद्दे को फिर से जिंदा कर दिया।
  • वर्ष 2015 में संसदीय स्थायी समिति ने भी इस पर अपने विचार व्यक्त किया और यह सुझाव दिया कि ऐसे विधानसभा जिनके चुनाव 6 महीने के अंदर होने वाले है, उनके लिए यह प्रावधान किया जा सकता है कि इनका चुनाव लोकसभा के चुनाव के साथ करवा दिये जायें।
  • वर्ष 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समुद्दे को कई बार उठा चुके हैं। वर्ष 2016 में एक मीडिया इंटरव्यू में भी नरेंद्र मोदी ने इसका जिक्र किया कि भारत की जनता परिपक्व है और एक साथ चुनाव करवाने पर भी वह लोकसभा, विधानसभा के लिए मुद्दों के आधार पर अलग अलग तरीके से मतदान करती है।
  • पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने 4 अक्टूबर, 2017 यह घोषणा की कि चुनाव आयोग सितंबर 2018 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-सा करवाने के लिए तैयार है। हालांकि बाद में उन्होंने यह कहा कि इसे तुरंत नहीं किया जा सकता है क्योंकि कि इसके संवैधानिक करने की आवश्यकता होगी।
  • अक्टूबर 2018 में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए तीन दिवसीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। इसमें कुछ राजनीतिक दलों ने अपनी सहमती जताई जबकि ज्यादातर ने इसका विरोध कियां इनका कहना था कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है।
  • 19 जून 2019 को प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई ताकि इस पर चर्चा की जा सके जिसमें 19 राजनीतिक दलों ने भाग ही नहीं लिया।
  • 19 जून 2019 में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने दोनों सदनों के सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा कि नए भारत के विकास को गति को बरकरार रखने के लिए एक राष्ट्र-एक चुनाव जरूरी हैं उन्होनें कहा कि देश एक राष्ट्र एक चुनाव के प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार करें।
  • हाल ही में 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन को संबोधित करते हुए एक राष्ट्र एक चुनाव के मुद्दे पर फिर जोर से दिया।

एक राष्ट्र-एक चुनाव के पक्ष में तर्क-

  • पहला तर्क विकास की प्रक्रिया प्रभावित होने के संदर्भ में दिया जाता है। बार-बार चुनाव से आदर्श आचार संहिता लागू होती है जिसके कारण करकारें नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है। इससे विकास कार्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हैं सत्ताधारी दल चुनाव में नवीन घोषणा करके मत प्राप्त न करे इसके लिए यह आचार संहिता चुनाव की घोषणा के साथ लागू हो जाती है। लोकसभा चुनाव के समय यह आचार संहिता लगभग दो माह तक और विधानसभा चुनाव के दौरान लगभग एक से देढ़ माह तक यह प्रभावी रहता है। वहीं अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव से केंद्र की विकासात्मक रणनीति प्रभावित होती है।
  • दूसरा मुख्य तर्क चुनाव के दौरान होने वाले भारी-भरकम खर्च के संदर्भ में हैं बार-बार चुनाव से यह खर्च और भ्ी बढ़ जाता है। समर्थकों समर्थकों का कहना कि इस महंगी चुनाव प्रणाली से देश का आर्थिक हित नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।
  • तीसरा तर्क काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के संदर्भ में है। वर्तमान समय में राजनीति के अपराधीकरण की वजह से राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है।
  • एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बार-बार चुनाव होने से राजनीतिक दलों एवं नेताओं को सामाजिक समरसता भंग करने का बार-बार अवसर मिलता है और वह वोट प्राप्त करने के लिए सामाजिक तनाव उत्पन्न करते हैं।
  • बार-बार चुनाव से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार बार डयूटी में लगाना पड़ता है, जिससे इनके कार्य प्रभावित होते है। चुनाव के समय बड़ी संख्या में अध्यापकों और सरकारी नोकरी करने वालों को अपनी सेवाएं चुनाव में देनी होती है।
  • एक राष्ट्र एक चुनाव स्थिरता, निरंतरता और सुशासन सुनिश्चित होगा।
  • मजदूरों एवं अन्य लोगों को चुनाव के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर होने वाले प्रवाल में कमी आयेगी।

विरोध में तर्क-

  • इस विचार के विरोध में पहला तर्क यह दिया जाता है कि इससे संघीय ढांचा प्रभावित होगा और यह संसदीय लोकतंत्र के लिए घाटक होगा। एक साथ चुनाव करवाने के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल को उनकी मर्जी के खिलाफ बढ़ाया जायेगा। इससे राज्यों का प्रशासनिक कार्य प्रभावित होने के साथ-साथ तनाव की स्थिति उत्पन्न होगी।
  • दूसरा तर्क यह है कि संविधान के अनेक ऐसे प्रावधान हैं। जिसके कारण यह व्यावहारिक नहीं हैं जैसे-
  1. संविधान के अनुच्छेद-2 के तहत संसद द्वारा किसी राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है ओर अनुच्छेद-3 के तहत कोई नया राज्य बनाया जा सकता है, जहां अलग से चुनाव कराने की आवश्यकता पड़ सकती है।
  2. अनुच्छेद-85(2)(ख) के तहत राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद-174(2)(ख) के तहत राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्ष से पहले भंग कर सकते है।
  3. अनुच्छेद-356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है, और फिर से चुनाव करवाने पड़ सकते है। पूर्ण बहुमत प्राप्त न होने पर इसकी संभावना और बढ़ जाती है।
  • तीसरा तर्क यह है कि एक साथ चुनाव करवाने पर राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो सकते हैं जबकि यह भी उतने ही महत्वपूर्ण है।
  • चौथा तर्क जनता और जनप्रतिनिधियों के आपसी जुड़ाव से है। इन चुनावों से प्रतिनिधि क्षेत्र की जनता से मिलते रहते हैं एक बार चुनाव से यह प्रभावित हो सकता हैं संसदीय प्रक्रिया के इस तरीके से जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है। तथा कोई दल निरंकुश नहीं बन पाता है।
  • एक साथ चुनाव करवाने के लिए बड़ी संख्या में EVM एवं VVPAT मशीनों की आवश्यकता होगी जिस पर बड़ा खर्च आयेगा और हर 15 साल पर यह खर्च करना होगा।
  • भारत जैसे विशाल देश में एक साथ चुनाव कराने से पूरा देश एक साथ ठप्प हो जायेगा। तथा इस दौरान जिन लोगों को रोजगार मिलता है वह प्रभावित होगा।
  • एक साथ चुनाव करवा भी दिये जायें तो इस बात की गारंटी नहीं है कि सरकारें स्थिर रहेंगी। अटल बिहारी वाजपेई जी की सरकार 13 दिन में ही गिर गई थी। राज्यों में भी प्रतिनिधि सरकार गिराते-बनाते रहते है।

आगे की राह-

  • हमारे देश में संविधान तथा संवैधानिक प्रावधान सर्वोपरी है। इसलिए इसके लिएलोगों का समर्थन, राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त करना होगा और संवैधानिक संशोधन करने होंगे।
  • हमें यह भी समझना होगा कि प्रारंभ में जो चुनाव एक साथ हुए उसमें सरकारें नहीं गिरीं। जब सरकारें गिरने लगीं तो यह संभव नहीं हो पाया, इसलिए हमें सरकारेां की स्थिरता और संसदीय प्रणाली के इस मुद्दे पर पहले कार्य करना होगा।
  • मतदाताओं को राजनीतिक रूप से शिक्षित करना होगा और इसके के विषय में एक सतत शिक्षण कार्यक्रम चलाना होगा।
  • जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार करना होगा, कालेधन रोक लगानी होगी, राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाना होगा उसके बाद ही यह विचार मूर्त रूप धारण कर पायेगा।

किसी भी प्रश्न के लिए हमसे संपर्क करें