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Brain-booster / 09 Jun 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) SDG जेंडर इंडेक्स 2019 (SDG Gender Index 2019)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) SDG जेंडर इंडेक्स 2019 (SDG Gender Index 2019)


मुख्य बिंदु:

बीते दिनों पहला SDG जेंडर इंडेक्स 2019 जारी किया गया। SDG जेंडर इंडेक्स के मुताबिक़ कोई भी देश सतत विकास लक्ष्यों यानी SDG गोल्स - 2030 के लैंगिक समानता लक्ष्यों को हांसिल करने की राह पर नहीं है। इंडेक्स में बताया गया है कि क़रीब 2.8 अरब महिलाएं और लड़कियां उन देशों में रहती हैं जिनकी रैंकिंग काफी ख़राब है।

भारत की भी रैंकिंग इस इंडेक्स में बहुत अच्छी नहीं हैं। 100 अंकों में से भारत 56.2 अंक हांसिल करते हुए 129 देशों की इस सूची में 95 वें पायदान पर है। इंडेक्स में भारत के प्रदर्शन को एक और जहां स्वास्थ्य, भूख और पोषण जैसे मामलों में बेहतर मांपा गया है तो वहीं साझेदारी, उद्योग, बुनियादी ढांचे और इनोवोवेशन जैसे मामलों में भारत की स्थति काफी निराशाजनक रही है।

DNS में आज हम आपको SDG जेंडर इंडेक्स 2019 के बारे में बारे में बताएंगे साथ ही ज़िक्र करेंगे लैंगिक असमानता से जुड़े कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं की।

SDG जेंडर इंडेक्स 2019 Equal Measures 2030 द्वारा जारी किया गया है। Equal Measures 2030 वैश्विक और क्षेत्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करता है। इस संस्था में अफ्रीकी महिला विकास और संचार नेटवर्क, बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और अंतर्राष्ट्रीय महिला स्वास्थ्य गठबंधन जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन शामिल हैं। SDG जेंडर इंडेक्स को जारी करने वाली ये संस्था सतत विकास लक्ष्यों द्वारा निर्धारित 17 विकास लक्ष्यों में से क़रीब 14 विकास लक्ष्यों से सम्बंधित आंकड़ों को जारी करने के लिए उत्तरदायी है। इन विकास लक्ष्यों में स्वास्थ्य, शिक्षा, ग़रीबी, साक्षरता, और राजनैतिक प्रतिनिधित्व व कार्यस्थलों पर समानता के आँकड़ों को जारी करने की ज़िम्मेदारी Equal Measures 2030 संस्था की है।

साल 2000 में बना सहस्राब्दि विकास लक्ष्य यानी MDG 2015 में समाप्त हो गया था। 7 वैश्विक विकास लक्ष्यों को निर्धारित करने वाले सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों के समाप्त होने के बाद कई अन्य वैश्विक विकास लक्ष्यों को हांसिल किए जाने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी। साल 2015 में इन्हीं वैश्विक विकास लक्ष्यों को हांसिल करने के लिए सतत विकास लक्ष्य यानी SDG गोल्स - 2030 तय किए गए । ये लक्ष्य साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र की महसभा की एक बैठक के दौरान तय किए गए थे जिसमें 193 देश शामिल थे। इस बैठक में अगले 15 सालों में 17 विकास लक्ष्यों को हांसिल करने की बात कही गई। जिसमें ग़रीबी, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक असमानता और सभी के लिए शांति और न्याय सुनिश्चित करने जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण मामले शामिल है।

हाल ही में आए इस जेंडर इंडेक्स में सतत विकास लक्ष्यों को हांसिल करने वाले 193 देशों में से 129 देशों की गई गणना की गई है। इस इंडेक्स में बताया गया है कि इन 129 देशों में दुनिया की क़रीब 95% महिलाएँ और बच्चियां मौजूद हैं। लेकिन मुश्किल ये है कि इन 129 देशों की कुल सिर्फ 8 फीसदी महिलाएं और बच्चियां ही ऐसे देशों में रह रही हैं जहां लैंगिक समानता के आंकड़े अन्य देशों के मुक़ाबले थोड़े बेहतर हैं। बेहतर लैंगिग समानता वाले देशों में से भी किसी देश ने लैंगिक समानता के शानदार स्कोर यानी 90 के आंकड़ें को नहीं छुआ है। बेहतर लैंगिग समानता वाले देश भी लगभग 80 - 89 अंको तक ही सीमित हैं। SDG जेंडर इंडेक्स के मुताबिक़ क़रीब 1.4 बिलियन महिलाएँ और लड़कियाँ ऐसे देशों में रहती हैं जो ज़्यादा ग़रीबी (Very Poor) की श्रेणी में शुमार हैं।

भारत ने इस इंडेक्स में स्वास्थ्य के क्षेत्र में 70%, और भूख व पोषण के मामले में 71.8% अंक हांसिल किए हैं। जबकि भारत को सबसे कम अंक यानी 18.3% साझेदारी के क्षेत्र में मिले हैं। इसके अलावा में आधारभूत ढाँचा और नवाचार के क्षेत्र में 38% और जलवायु के मामले में भी सिर्फ 43.4% अंक हांसिल किए हैं। इंडेक्स के मुताबिक़ भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी जहां 23.6% है, तो वहीं सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं की मौजूदगी सिर्फ 18. के ही आस पास है।

पिछले साल आई वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2018 में भी भारत 108वें स्थान पर रहा। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी की जाने वाले इस रिपोर्ट में भारत अपने कई पड़ोसी मुल्क़ों से भी पीछे है। एक ओर जहां बांग्लादेश इस सूची में 48वें और श्रीलंका 100वें पायदान पर है तो वहीं चीन और नेपाल भी इस मामले में भारत से बेहतर हैं।

दरअसल लैंगिक असमानता का मतलब लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव करने से है। एक अरसे से महिलाओं को समाज में कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। दुनिया भर में मौजूद लैंगिक असामना के पीछे महिलाओँ की कम आर्थिक भागीदारी, कम साक्षरता दर और ख़राब स्वास्थ्य के अलावा कम जीवन प्रत्याशा जैसे मामले शामिल हैं।

भारत में मौजूद लैंगिक असामनता के पीछे भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कारणों जैसे महत्वपूर्ण कारक ज़िम्मेदार हैं। समाजशास्त्रियों के मुताबिक़ भारत में पितृसत्तात्मक सोंच भी लैंगिक असमानता के लिए बाधा है। इसके अलावा ग़रीबी, कुपोषण, बाल विवाह, दहेज और घरेलू हिंसा जैसी गतिविधियां भी भारत में लैंगिक असमानता के लिए ज़िम्मेदार हैं।

हालाँकि आज़ादी मिलने के बाद से ही समय समय पर महिलाओं को सशक्त बनाए जाने के लिए प्रयास होते रहे हैं। इन प्रयासों में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम 1961, सती अधिनियम 1987 और 2006 में बने बाल विवाह निषेद अधिनियम जैसे कई महत्वपूर्ण क़दम शामिल हैं।

संविधान के मुताबिक़ समानता हमारे संविधान का महत्वपूर्ण अंग हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 हर व्यक्ति को क़ानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण के अधिकार की गारंटी देता है। इसके अलावा अनुच्छेद 15 के मुताबिक़ भी धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव करना भी असंवैधानिक है। साथ ही संविधान का अनुच्छेद 23 भी स्त्री, पुरुष और पशुओं को किसी प्रकार के शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है। राजनीतिक रूप से महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए संविधान का 73 वां संसोधन पारित किया गया है। इसके तहत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 1 तिहाई सीट आरक्षित की गई है।

पिछले कुछ वर्षों में तमाम सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य सूचकों पर भारतीय महिलाओं की स्थिति पहले से काफी बेहतर हुई है। जून 2018 में आई सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के मुताबिक़ 2013 से भारत में मातृ मृत्यु दर में क़रीब 22% की कमी दर्ज़ की गई है। इसके अलावा महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए महिलाओं के लिए मैटरनिटी लीव को बढ़ाकर 6 माह कर दिया गया है। साथ ही हॉस्पिटल में सुरक्षित प्रसव कराने को भी प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

कन्या भ्रूण हत्या और महिलाओं के ख़िलाफ़ अलग - अलग प्रकार के अपराधों में भी काफी कमी आई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ो के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ अलग - अलग प्रकार के अपराधों की रिपोर्टिंग अब पहले से अधिक हो रही है।

आर्थिक मोर्चे पर भी महिला को सशक्त बनाए जाने की कोशिशे जारी हैं। क़रीब 45.6 लाख स्वयं सहायता समूह के ज़रिए महिलाओं के जीवनयापन में सुधार हो रहा है। लड़कियों के वित्तीय समावेशन के लिए सुकन्या समृद्धि योजना के तहत 1.26 करोड़ बैंक खाते खोले गए हैं। जन-धन योजना के अन्तर्गत महिलाओं के आधे से ज़्यादा बैंक अकाउंट खुले हैं। महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराने के वास्ते 7.88 करोड़ महिला उद्यमियों को लगभग सवा 2 लाख करोड़ के ऋण दिए गए हैं। इसके अलावा शिक्षा के स्तर पर भी लड़कियों और लड़कों का बराबरी पर दाखिला हुआ है।

सरकार ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को ख़त्म करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये साल 2005 में वित्तीय बजट जेंडर बजटिंग को शामिल किया गया था। जेंडर बजटिंग का मक़सद राजकोषीय नीतियों के ज़रिए से लिंग समानता से जुडी मुश्किलों को दूर करना है।

हालाँकि हम इन तमाम प्रयासों के बाद भी महिला कार्य सहभागिता के मामले में ब्राज़ील श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों से पिछड़े हुए हैं। भारत में महिलाओं की हिस्सेदारी कुल जनसंख्या का करीब 48 फीसदी है, लेकिन रोजगार में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 26 फीसदी की ही है। इसके अलावा न्यायपालिका, केंद्र और राज्य सरकारों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। मौजूदा वक़्त में संसद में महिलाओं का औसत देखा जाय तो ये विश्व के औसत का 22.6 फीसदी है। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन की रिपोर्ट के मुताबिक, संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में दुनिया के 193 देशों में भारत का स्थान 148वां है। इसके अलावा महिला आरक्षण बिल को करीब दो दशक से पारित कराने की तैयारी चल रही है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ये विधेयक अधर में लटका हुआ है।

श्रम सुधार और सामाजिक सुरक्षा कानून जैसे मुद्दे भी लैंगिक समानता समानता से जुड़े हैं। इसके अलावा खाद्य सुरक्षा, बेहतर जलापूर्ति और स्वच्छता जैसे मामलों पर भी सरकार को ध्यान देना होगा। नीति निर्माताओं को चाहिये कि वे इन सब मामलों में अपनी प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढाएँ और लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये ज़रूरी कदम उठाए। इसके अलावा बदलते दौर में यदि हम बदलाव की नई इबारत लिखना चाहते हैं तो पुरुषों को महिलाओं के प्रति अपने पारम्परिक सोच में बदलाव करने की सख़्त ज़रूरत है।

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