(राष्ट्रीय मुद्दे) गरीबी : समस्या और निदान (Poverty: Problems and Solution)
एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)
अतिथि (Guest): नरेश चंद्र सक्सेना (पूर्व सचिव, योजनाआयोग), प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान (लेखक और पत्रकार)
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, विश्व आर्थिक मंच ने गरीबी के सम्बन्ध में एक रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक़ भारत में 2030 तक ग़रीबी कम होने के आसार नज़र आ रहे हैं। भारत 2030 तक लगभग 25 मिलियन परिवारों को ग़रीबी रेखा से ऊपर लाने में सफल होगा। और इस तरह गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से घटकर महज़ 5 फीसदी रह जाएगी।
इसके अलावा, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने एक बयान में कहा कि साल 2031 तक भारत में चरम ग़रीबी ख़त्म हो जाएगी। वित्त मंत्री ने कहा कि साल 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 21.90 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही थी। वृद्धि की मौजूदा दर के आधार पर देखा जाय तो यह अनुपात कम होकर लगभग 17 प्रतिशत पर आ गया होगा।
क्या है ग़रीबी?
गरीबी को एक ऐसे हालात के रूप में देखा जाता है जिसमें व्यक्ति के पास जीवन निर्वाह के लिये बुनियादी ज़रूरतें मसलन रोटी, कपड़ा और मकान भी नहीं होती हैं। इस हालत को चरम गरीबी भी कहा जाता है।
- एमडीजी के मुताबिक़, जो लोग एक दिन में $1.25 से कम कमाते हैं, वे ग़रीब की श्रेणी में आते हैं।
भारत में गरीबी के स्तर का आकलन
भारत में उपभोग और आय दोनों के आधार पर गरीबी के स्तर का आकलन किया जाता है।
- उपभोग की गणना उस धन के आधार पर की जाती है जो एक परिवार द्वारा आवश्यक वस्तुओं पर खर्च किया जाता है।
- आय की गणना उस परिवार द्वारा अर्जित आय के अनुसार की जाती है।
ग़रीबी रेखा क्या है?
गरीबी रेखा भारत में गरीबी के आकलन के लिये एक बेंचमार्क की तरह काम करती है। गरीबी रेखा आय के उस न्यूनतम स्तर को कहते हैं जिससे कम आमदनी होने पे इंसान अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ होता है। भारत में समय-समय पर इस ग़रीबी रेखा को तय किया जाता है।
- साल 2014 में, ग्रामीण इलाकों में 32 रुपए प्रतिदिन और कस्बों/शहरों में 47 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से गरीबी रेखा तय की गई थी।
- ग़रीबी रेखा को लेकर अलग-अलग समितियों की अलग अलग राय है। तेंदुलकर फॉर्म्युले में 22 फीसदी आबादी को गरीब बताया गया था जबकि सी. रंगराजन फॉर्म्युले ने 29.5 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा से नीचे माना था।
- ग़रीब कौन हैं और कितने हैं - यहीं स्पष्ट नहीं है।
ग़रीबी रेखा निर्धारण से जुडी समितियां
भारत में गरीबी रेखा को परिभाषित करना हमेशा से ही एक विवादित मुद्दा रहा है। साल 1970 के मध्य में पहली बार इस तरह की गरीबी रेखा का निर्धारण योजना आयोग द्वारा किया गया था। इसमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: एक वयस्क के लिए 2,400 और 2,100 कैलोरी की न्यूनतम दैनिक ज़रुरत को आधार बनाया गया था।
नीति आयोग भारत सरकार की आधिकारिक एजेंसी है, जो राज्यों में और पूरे देश के लिए समग्र रूप से गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का आकलन करने का काम करती है।
- अलघ समिति (1979)
- लकड़ावाला समिति (1993)
- तेंदुलकर समिति (2009)
- रंगराजन समिति (2012)
आंकड़े क्या कहते हैं?
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी UNDP द्वारा जारी मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स-2018 के मुताबिक, 2005-06 से लेकर 2015-16 के बीच भारत में 27 करोड़ से ज़्यादा लोग गरीबी से बाहर आ गए हैं। इसे एक अच्छे संकेत के रूप देखा जा रहा है।
- साल 2011 की जनगणना के आधार पर देश की क़रीब 22 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। ये भारत सरकार का आधिकारिक आंकड़ा है।
- वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब के मुताबिक़ भारत में महज़ 1 फीसदी लोगों की आय साल 1980 से 2019 के बीच छह फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हुई है। इस आधार पर ये कहा जा सकता है कि ग़रीबी कम होने के साथ-साथ आर्थिक असमानता में बढ़ोत्तरी हुई है। आपको बता दें कि वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब दुनिया के अलग अलग हिस्सों में आर्थिक असमानता पर शोध करने वाली एक संस्था है।
- वक़्त के साथ गरीबी में कमी तो आयी है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में कमी की दर अभी भी धीमा ही है। शहरी क्षेत्रों की 13.7% के मुक़ाबले ग्रामीण भारत की लगभग 26% आबादी गरीब है।
ग़रीबी के अहम् कारण
सामान्य तौर पर बताए जाने वाले कारण
- जनसंख्या विस्फोट
- सीमित संसाधन
- सम्बंधित संस्थाओं की अक्षमता
- भ्रष्टाचार
- अशिक्षा
- ग़ुलामी का असर
असल कारण
लोग ग़रीब इसलिए हैं क्योंकि उन्हें विकल्प चुनने की पूरी आर्थिक आज़ादी नहीं है।
- हमारे यहाँ ग़रीबी की असल प्रकृति क्या है, इसी की समझ नहीं है।
- ग़रीबी राजनीति का मुद्दा बनकर रह गई है। कोई भी राजनीतिक पार्टी इस 'मुद्दे' को पूरी तरह ख़त्म नहीं करना चाहती।
- उदासीन राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे मसलन जाति और धर्म के बंधन।
- संसाधनों का पूरी तरह से दोहन न हो पाना।
- कृषि में कम उत्पादकता।
गरीबी से निपटने के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
साल 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी से सुधार हुआ है।
ग़रीबी उन्मूलन के लिए सरकार ने कई योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की है। इसमें रोज़गार सृजन कार्यक्रम, बीमा कार्यक्रम, आय समर्थन कार्यक्रम, रोज़गार गारंटी और आवास योजना जैसे क़दम शामिल हैं।
कुछ योजनाओं पर एक नज़र -
प्रधानमंत्री जन धन योजना: इस योजना के तहत आर्थिक रूप से वंचित लोगों को तमाम वित्तीय सेवाएँ मुहैय्या कराई जाती हैं। इसमें बचत खाता, बीमा, ज़रुरत के मुताबिक़ क़र्ज़ और पेंशन जैसी सेवाएँ शामिल हैं।
किसान विकास पत्र योजना: एक तरह का प्रमाण पत्र होता है, जिसे कोई भी व्यक्ति खरीद सकता है। इसे बॉन्ड की तरह प्रमाण पत्र के रूप में जारी किया जाता है। इस पर एक तय शुदा ब्याज मिलती है। इसके ज़रिए किसान 1000, 5000 तथा 10,000 रुपए मूल्यवर्ग में निवेश कर सकते हैं। इससे जमाकर्त्ताओं का धन क़रीब 100 महीनों में दोगुना हो सकता है।
दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना: ये योजना ग्रामीण क्षेत्रों को बिजली की निरंतर आपूर्ति देने के लिए शुरू किया गया है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम: इस योजना के तहत देश भर के गाँवों में लोगों को 100 दिनों के काम की गारंटी दी गई है। ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी कम करने में ये योजना काफी मददगार साबित हुई है।
प्रधानमंत्री आवास योजना: इस योजना का उद्देश्य 2022 तक सभी को घर उपलब्ध करना है। इस के लिए सरकार 20 लाख घरो का निर्माण करवाएगी, जिसमें 65% ग्रामीण क्षेत्रों में हैं।
राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना: इस योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे की जिंदगी बसर करने वाले परिवार की गर्भवती महिलाओं को लाभ के रूप में एकमुश्त राशि प्रदान की जाती है।
स्वच्छ भारत अभियान: इस अभियान के तहत 2019 तक यानी महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक भारत को स्वच्छ बनाने का लक्ष्य किया गया है।
प्रधानमंत्री मुद्रा योजना: इस योजना का मुख्य उद्देश्य था पढ़े-लिखे नौजवानों को रोजगार प्रदान करना।
आयुष्मान भारत: इस योजना के ज़रिए 10 करोड़ से ज्यादा परिवारों के लगभग 50 करोड़ लोगों को मुफ्त इलाज मिल सकेगा।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि: पीएम किसान योजना के तहत किसानों को 3 किश्त में 6 हजार रुपए की रकम दी जाती है।
इनके अलावा भी सरकार ग़रीबी उन्मूलन के लिए तमाम योजनाएँ चला रही है।
कहाँ तक सफल हैं ये कार्यक्रम?
हालाँकि गरीबी उन्मूलन के प्रयासों के कारण ग़रीबों के हालत में सुधार तो हुआ है लेकिन अभी भी वाज़िब स्तर तक सुधार नहीं हो पाया है। इसके कारण हैं -
- भूमि और दूसरी संपत्तियों का असमान वितरण
- गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का उनके उचित लाभार्थियों तक न पहुँच पाना
- गरीबी के मार्फ़त, इन कार्यक्रमों के लिए आवंटित संसाधनों की मात्रा पर्याप्त न होना।
- गरीबों की सक्रिय भागीदारी के बिना किसी भी कार्यक्रम का सफल कार्यान्वयन संभव नहीं है।
- कई सामाजिक कार्यक्रमों का डिज़ाइन ही दोषपूर्ण है।
गरीबी दूर करने के लिए नीति आयोग ने क्या सुझाया?
साल 2017 में नीति आयोग ने गरीबी दूर करने को लेकर एक 'विज़न डॉक्यूमेंट' पेश किया था। इसमें 2032 तक गरीबी दूर करने की योजना तय की गई थी। आयोग के मुताबिक़ -
- देश में गरीबों की सही तादाद का पता लगाया जाए। और लागू की जाने वाली योजनाओं की मॉनीटरिंग या निरीक्षण व्यवस्था को बेहतर बनाया जाए।
- आयोग द्वारा गठित एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना को आधार बनाकर देश में गरीबों के तादाद का आकलन किया जाना चाहिए।
- आयोग ने गरीबी दूर करने के लिये दो क्षेत्रों पर ध्यान देने का सुझाव दिया-पहला योजनाएँ और दूसरा MSME और कृषि।
- देश के कुल वर्कफोर्स का 65 प्रतिशत हिस्सा महज़ MSME और कृषि क्षेत्र में काम करता है। वर्कफोर्स का यह हिस्सा काफी गरीब है और गरीबी में जीवन यापन कर रहा है। यदि इन्हें संसाधन मुहैया कराए जाएँ, इनकी आय दोगुनी हो जाए और मांग आधारित विकास पर ध्यान दिया जाए तो शायद देश से गरीबी ख़त्म हो सकती है।
क्यों ज़रूरी है ग़रीबी उन्मूलन?
किसी भी देश में व्याप्त ग़रीबी वहां के समाज और व्यक्ति दोनों के लिये हानिकारक होता है। ग़रीबी के कारण समाज के कई तबके विकास की दौड़ में पीछे छूट सकते हैं। लिहाज़ा इससे अराजकता, अपराध या बिमारी जैसी कई दूसरी दिक्कतें भी पैदा हो सकती हैं। इससे पूरे देश के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो सकता है। नक्सलवाद और किसानों की आत्महत्या इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। साथ ही नैतिक और तार्किक आधार पर भी ग़रीबी उन्मूलन ज़रूरी है।
ग़रीबी का महिलाकरण
ग़ौरतलब है कि विश्व की कुल जनसंख्या में आधी जनसंख्या महिलाओं की है। वे कार्यकारी घंटों में दो-तिहाई का योगदान करती हैं, लेकिन उन्हें विश्व संपत्ति में सौवें से भी कम हिस्सा प्राप्त है।
विश्व भर में लगभग 76 करोड़ व्यक्ति प्रतिदिन 1-9 अमेरिकी डॉलर या इससे कम में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इनमें एक बड़ा हिस्सा महिलाओं का भी है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि गरीबी का महिलाकरण हो गया है।
क्या 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' ग़रीबी का इलाज़ है?
'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' का सुझाव लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गाय स्टैंडिंग ने दिया था। 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' स्कीम के तहत सरकार देश के हर नागरिक को बिना शर्त एक तयशुदा रकम देती है। इसका मतलब ये हुआ कि अगर यह योजना लागू होती है तो सरकार देश के हर वयस्क नागरिक को एक निश्चित रकम एक निश्चित अंतराल पर देगी।
अर्थशास्त्रियों के मुताबिक भारत में 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' स्कीम को लागू करने पर जीडीपी का 3 से 4 फीसदी खर्च आएगा, जबकि अभी कुल जीडीपी का 4 से 5 फीसदी सरकार सब्सिडी में खर्च कर रही है। ये सब्सिडी, मौजूदा वक़्त में केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही कुल 950 योजनाओं में खर्च की जाती है। इतने बड़े खर्च के बावजूद भारत में एक बड़ा तबका गरीबी रेखा के नीचे ज़िन्दगी बिताने को मज़बूर है। ऐसे में, सब्सिडी के औचित्य पर सवाल उठाना लाज़िमी है और यूबीआई को इसके विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
हालांकि यूबीआई को लागू करने को लेकर विशेषज्ञों की अलग अलग राय है। कुछ का कहना है कि सामाजिक सुरक्षा के रूप में यूबीआई असमानता को कम करने और गरीबी को दूर करने में मदद करेगा।
जिस तरह इंसानों द्वारा किए जाने वाले कामों को टेक्नोलॉजी खत्म कर रही है और इस कारण मजदूरों के आय में कमी आ रही है। ऐसे में यूबीआई इस समस्या से निपटने में काफी मददगार साबित हो सकता है।
इससे अलग कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यूबीआई से लोगों में काम करने को लेकर उत्साह कम हो सकता है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में सरकार द्वारा महिलाओं को जो बुनियादी आय दी जाएगी, उस पर संभव है कि पुरूषों का नियंत्रण हो जाए। इसके अलावा यूबीआई से मजदूरी की दर बढ़ने के कारण महँगाई भी बढ़ सकती है। इसके अलावा, जो सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है वो ये कि इतने बड़े स्कीम के लिए पैसा कहाँ से आएगा। क्योंकि एक कैलकुलेशन के मुताबिक, यूबीआई को यदि वास्तव में यूनिवर्सल रखना है तो उसके लिये जीडीपी का 10 फीसदी खर्च करना होगा।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
हमें आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाना होगा। आर्थिक वृद्धि दर जितनी अधिक होगी गरीबी का स्तर उतना ही नीचे चला जाएगा।
- 'ग़रीबी के राजनीतिकरण' को रोकना होगा। साथ ही, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े बुनियादी ढाँचे के को काफी बेहतर बनाने की ज़रुरत है।
- यूटिलिटी, बिजली, आवास, ट्रांसपोर्टेशन सुविधाओं के विकास पर ध्यान दिये जाने की ज़रुरत है।
- सबसे अहम् बात ये है कि कृषि उत्पादन घाटे का सौदा साबित हो रहा है। गाँवों में आर्थिक गतिविधियों और महिलाओं की भागीदारी का अभाव है। इन क्षेत्रों की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है।