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Blog / 02 Apr 2019

(आर्थिक मुद्दे) पब्लिक सेक्टर - अंधा कुआँ घाटे का (Loss Making Public Sector)

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(आर्थिक मुद्दे) पब्लिक सेक्टर - अंधा कुआँ घाटे का (Loss Making Public Sector)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): अनिल कुमार उपाध्याय (बैंकिंग मामलों के जानकार), स्कंद विवेक गुप्ता (आर्थिक संवाददाता)

चर्चा में क्यों?

बीते दिनों 19 फरवरी को देशभर में बीएसएनएल के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे। कर्मचारियों की अपनी कई मांगे थीं। इसमें 4जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम का आवंटन, बीएसएनएल के लिए भूमि प्रबंधन नीति की मंजूरी और वेतन संशोधन समिति की सिफारिशें लागू करने जैसे बिंदु शामिल हैं। ग़ौरतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र की टेलीकॉम कंपनी बीएसएनएल इस समय करीब 8000 करोड़ रुपए के घाटे में चल रही है।

इसी तरह की समस्या सरकारी विमानन कंपनी एयर इंडिया के साथ भी है। एक अनुमान के मुताबिक़, एयर इंडिया पर 48,000 करोड़ रुपये से भी अधिक का कर्ज है। वर्ष 2007 में इंडियन एयरलाइंस का विलय होने के बाद से एयर इंडिया लगातार घाटे का सामना कर रही है। एयर इंडिया का कुल घाटा करीब 53000 करोड़ रुपये से ज्यादा का है।

इसके अलावा सरकारी बैंकों के भी हालात कमोबेश ऐसे ही हैं जिनमें लगभग 11 लाख करोड़ के एनपीए का अनुमान है।

सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम क्या होता है?

सरकार द्वारा नियंत्रित और संचालित उपक्रमों को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम या पीएसयू कहा जाता है। केंद्र सरकार, किसी राज्य सरकार या स्थानीय सरकार के स्वामित्व वाले सार्वजनिक उपक्रम में सरकारी पूंजी की हिस्सेदारी 51% या इससे अधिक होती है।

  • यदि पीएसयू में एक अथवा एक से अधिक राज्यों एवं केंद्र सरकार की साझेदारी है तब भी पूंजी हिस्सेदारी का प्रतिशत इसी प्रकार रखा जाता है।

सार्वजनिक उपक्रमों के प्रारूप

सार्वजनिक उपक्रमों के कई प्रारूप हो सकते हैं, जिनमें विभागीय उपक्रम, सार्वजनिक निगम, अनुच्छेद 25 की कंपनियां और सरकारी कंपनी शामिल होते हैं।

विभागीय उपक्रम: विभागीय उपक्रम स्वरूप का प्रयोग ज़्यादातर आवश्यक सेवाओं मसलन रेलवे, डाक सेवाएँ और प्रसारण का प्रबन्ध करने के लिए किया जाता है। इन संगठनों का संचालन और संपूर्ण नियंत्रण सरकार के एक मंत्रालय के अधीन होता है।

सार्वजनिक निगम: सार्वजनिक निगम को संसद अथवा राज्य विधानमण्डल द्वारा क़ानून बनाकर निगमित किया जाता है। क़ानून में निगम के अधिकार, कार्य एवं प्रबन्धन के मॉडल को परिभाषित किया जाता है। इसकी संपूर्ण वित्त व्यवस्था का प्रबंध सरकार द्वारा किया जाता है। भारतीय जीवन बीमा निगम और राज्य व्यापार निगम जैसे संगठन इसी श्रेणी में आते हैं।

सरकारी कंपनी: हर वो कंपनी जिसका 51% या इससे अधिक का मालिकाना हक़ सरकार के पास हो सरकारी कंपनी होती है। ONGC, SAIL और GAIL जैसी कंपनियां इसी श्रेणी में आती हैं।

अनुच्छेद 25 की कंपनियां: इन कंपनियों का उद्द्येश्य लाभ कमाना नहीं होता है, बल्कि ये महत्वपूर्ण सेवाएं उपलब्ध कराने का काम करती हैं। इनका ज़िक्र कंपनी एक्ट के अनुच्छेद 25 में आता है इसीलिए इन्हे अनुच्छेद 25 की कंपनियां कहा जाता है।

PSUs की ज़रूरत क्यों पड़ी?

आज़ादी के पहले, हमारा देश आय में असमानता, बेरोज़गारी, अकुशल श्रमशक्ति और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी गंभीर सामाजिक और आर्थिक दिक्कतों से जूझ रहा था। इसलिए, सार्वजनिक क्षेत्र का खाका आत्मनिर्भर आर्थिक विकास के लिए एक साधन के रूप में विकसित किया गया था। देश ने योजनाबद्ध आर्थिक विकास की नीतियां बनाकर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विकास की परिकल्पना को अपनाया।

दरअसल उस समय निजी कम्पनियां उन क्षेत्रों में रुचि नहीं लेती थीं जहाँ पर भारी भरकम निवेश होता था और लाभ की मात्रा कम होती थी। उद्योग भी उन क्षेत्रों को ही तरजीह देते हैं जिनमें कुछ निश्चित प्राकृतिक लाभ हों, जैसे-कच्चे माल की उपलब्धता, कुशल श्रम शक्ति तथा बाजार के समीप स्थित होना। इसी के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय असंतुलन बना है। इसीलिए, सरकार ने निजी कंपनियों के व्यावसायिक व्यवस्था को नियंत्रित करते हुए व्यवसाय में सीधे तौर पर भाग लेना शुरू किया।

PSUs का महत्व

  • संतुलित क्षेत्रीय विकास
  • अर्थव्यवस्था के आधारभूत उद्योगों को बढ़ावा देना
  • जनकल्याण के कामों पर ध्यान ध्यान देना
  • निर्यात प्रवर्तन
  • ज़रूरी वस्तुओं का कीमत नियंत्रण
  • निजी एकाधिकार के प्रभाव को सीमित करना
  • देश की सुरक्षा सुनिश्चित करना
  • आर्थिक असमानता को कम करना

PSUs से जुड़ी वर्तमान दिक्कतें

  • इतनी अहमियत और प्रयासों के बावजूद ज़्यादातर PSUs का आउटपुट संतोषजनक नहीं है।
  • जिस मात्रा में इन PSUs में पूँजी निवेश किया जाता है उसकी तुलना में मुनाफा बहुत ही कम आ रहा है।
  • कीमत-निर्धारण नीति पर्याप्त रूप से कारगर नहीं है जिसके कारण इन कंपनियों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। मिसाल के तौर पर रेलवे और एयर इंडिया को लिया जा सकता है।
  • ये कंपनियां अपनी क्षमता का पूरी तरह से दोहन नहीं कर पा रही हैं जिस कारण ये लगातार घाटे का पिक्चर दिखा रही हैं।
  • इन कंपनियों की लागत जितनी होनी चाहिए, लालफीताशाही और लचर प्लानिंग के कारण वास्तविक लागत उससे काफी ज़्यादा आ रहा है।
  • इन कंपनियों के ज़्यादातर प्रोजेक्ट पूरा होने में इतना समय लग जाता है कि इनका लागत ज़रूरत से ज़्यादा आना स्वाभाविक है।
  • इसके अलावा इतने खराब प्रदर्शन के बावजूद अनुसंधान और विकास के लिए बहुत ही कम खर्च किया जा रहा है।
  • ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिक दखलंदाज़ी ने सरकारी कंपनियों की क्षमता को बहुत ही नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है।
  • प्रिंसिपल-एजेंट की समस्या: सिद्धांत-एजेंट की समस्या तब उत्पन्न होती है जब एक पक्ष (एजेंट) कुछ प्रोत्साहन के बदले में किसी अन्य पार्टी (सिद्धांत) के पक्ष में काम करने के लिए तैयार होता है। ये उसी तरह है कि हमारे काम के लिए निर्णय कोई और ले रहा हो। इसमें निर्णय लेने व्यक्ति कंपनी से ज़्यादा अपने हितों को साधने लगता है। और इस तरह कंपनी के लिए वित्तीय संकट पैदा हो सकता है।
  • इन सरकारी कंपनियों में आवश्यकता से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं और उससे भी बड़ी विडम्बना ये है कि एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद ये कर्मचारी नए कौशल सीखने लिए उत्साहित नहीं रहते।

1991 की नई औद्योगिक नीति

इसमें बात में कोई शक नहीं है कि PSUs ने भारतीय अर्थ व्यवस्था में अहम् रोल निभाया है। लेकिन ज्यादातर PSUs का काम और नतीजा संतोषजनक नहीं रहा है। पूंजी निवेश की तुलना में मुनाफ़े की दर बहुत कम है। इसलिए सरकार ने PSUs के कामों को सुधारने के लिए कई कदम उठाए हैं। इसके लिए 24 जुलाई 1991 को एक नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई।

इसमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पर जोर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्रा की भूमिका को पुनः परिभाषित किया गया है। सरकार ने लाभ कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ उपक्रमों को स्वायत्तता और वित्तीय शक्ति देकर ‘नवरत्न’ और ‘मिनिरत्न’ का स्तर प्रदान किया। इस नीति के अहम् उद्द्येश्य इस प्रकार हैं

  • क्षमता की संभावनाओं वाले सार्वजनिक क्षेत्रा के उपक्रमों को पुनर्गठित और पुनर्जीवित करना
  • ऐसे पी.एस.यू., जिनको पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता, उनको बन्द करना
  • यदि ज़रूरत हो तो गैर महत्त्वपूर्ण पी.एस.यू. में सरकार के इक्विटी शेयर को 26% या उससे कम लाना
  • कर्मचारियों के हितों को पूर्ण संरक्षण देना।

1991 की नई नीति के मुताबिक़ सरकार ने क्या कदम उठाये?

सार्वजनिक क्षेत्र की चुनिंदा व्यावसायिक इकाइयों का विनिवेशः विनिवेश में सार्वजनिक क्षेत्रा की इकाइयों के इक्विटी शेयर्स को निजी क्षेत्र की इकाइयों और जनता को बेचा जाता है। इसका मक़सद PSUs के लिए संसाधन जुटाना एवं आम जनता और कर्मचारियों की भागीदारी को व्यापक बनाना है।

  • ऐसी कंपनियां जो बीमार उद्यमों की श्रेणी में हैं उनको एक बार फिर से नया जीवनदान देने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए उसमे पूँजी लगाने, प्रबंध सुधारने या फिर बंद कर देने जैसे कदम उठाये जा रहे हैं।
  • आरक्षित क्षेत्रों को निजी निवेश के लिए खोला गया। मसलन विनिर्माण क्षेत्र में केवल रक्षा और खनिज तेल को छोड़कर बाकी जगहों पर निजी निवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि खनिज तेलों और रक्षा मामले में भी सीमित आधार पर विदेशी निवेश सहित निजी निवेश को जगह दी जा रही है।
  • राष्ट्रीय नवीकरण निधि की स्थापना: साल 1992 में, औद्योगिक पुनर्गठन से प्रभावित श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिहाज़ से राष्ट्रीय नवीकरण निधि की व्यवस्था की गई।
  • MoU के ज़रिए इन कंपनियों के प्रबंधन को उत्तरदायी ठहराने की व्यवस्था की गई।

महारत्न, नवरत्न और मिनीरत्न का दर्जा

लोक उद्यम विभाग को सभी केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों यानी CPSEs का नोडल विभाग बनाया गया है। ये विभाग CPSEs से संबंधित नीति बनाने का काम करता है। वर्तमान में लोक उद्यम विभाग; भारी उद्योग एवं लोक उद्यम मंत्रालय का तहत काम कर रहा है।

वर्तमान में भारत में 8 महारत्न कम्पनियाँ, 16 नवरत्न कम्पनियाँ हैं और 74 मिनीरत्न कंपनियां हैं। इन कंपनियों को विभिन्न श्रेणियों में उनके टर्नओवर, मार्किट कैपिटल और लाभ के आधार पर ये दर्ज़े दिए जाते हैं। महारत्न कंपनियों में शामिल हैं - 1. भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, 2. कोल इंडिया लिमिटेड, 3. गेल (इंडिया) लिमिटेड, 4. इंडियन ऑयल कारपोरेशन लिमिटेड, 5. एनटीपीसी लिमिटेड, 6. तेल एवं प्राकृतिक गैस कारपोरेशन लिमिटेड, 7. भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड और 8. भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड।