(आर्थिक मुद्दे) भारतीय अर्थव्यवस्था : गहराती चुनौतियां (Indian Economy : Deepening Challenges)
एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)
अतिथि (Guest): अजय दुआ (पूर्व वाणिज्य सचिव), सुषमा रामचंद्रन (वरिष्ठ पत्रकार, इकोनोमिक टाइम्स)
चर्चा में क्यों?
बीते 31 अक्टूबर को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने अर्थव्यवस्था के आठ बुनियादी क्षेत्रों से जुड़े आंकड़े जारी किए। ये आंकड़े बताते हैं कि इस साल के सितंबर माह में पिछले साल के मुक़ाबले इन क्षेत्रों में 5.2 फ़ीसदी की गिरावट आई है। विशेषज्ञों का कहना है की देश में आर्थिक गतिविधियां कम हो रही हैं, जिसका असर इन कोर क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है।
कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफ़ाइनरी उत्पाद, खाद, स्टील, सीमेंट और बिजली जैसे क्षेत्र अर्थव्यवस्था के कोर क्षेत्रों में शामिल हैं। देश की औद्योगिक दशा बताने वाले इंडेक्स ऑफ़ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन में इन आठ क्षेत्रों की हिस्सेदारी 40 फ़ीसदी है।
धीमेपन (अवमंदन) के मौजूदा कारण
घरेलू कारण: अवमंदन के घरेलू कारणों पर गौर करें तो इनमें अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्रों में गिरावट, मांग और निवेश में कमी जैसी प्रवृत्तियां मंदी की तरफ इशारा कर रही हैं। हाल के आंकड़े बता रहे हैं कि लोग अपनी जेब की रकम को भी खर्च करने को तैयार नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय कारण: इसके अलावा कुछ बाहरी कारण भी है जिसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर महसूस किया जा रहा है।
- डॉलर के मुकाबले रुपये की घटती हुई कीमत भी आर्थिक सुस्ती का एक कारण है। मौजूदा वक्त में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत करीब 72 रुपये के आंकड़े को छू रही है।
- इसके अलावा अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर की वजह से भी दुनिया में आर्थिक मंदी का खतरा तेजी से बढ़ रहा है, जिसका असर भारत पर भी पड़ा है। अब ये ट्रेड वार, करेंसी वार और टैक्स वार तक पहुंच चुका है।
आर्थिक मंदी से जुड़ी शब्दावलियाँ
आर्थिक अवमंदन यानी इकोनॉमिक स्लोडाउन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जाती है तो इसे ही आर्थिक अवमंदन यानी इकोनॉमिक स्लोडाउन कहते हैं। मौजूदा वक्त में भारतीय अर्थव्यवस्था इसी हालत से गुजर रही है।
आर्थिक मंदी यानी इकोनामिक रिसेशन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बजाय घटोत्तरी या कमी होने लगती है तो इसे ही आर्थिक मंदी यानी इकोनामिक रिसेशन कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब किसी देश की जीडीपी में लगातार 6 महीने यानी दो तिमाही तक कमी होती है तो इसे ही आर्थिक मंदी कहते हैं। आर्थिक मंदी को मापने के दौरान अमूमन 5 कारकों - वास्तविक जीडीपी, आय, रोज़गार, विनिर्माण और खुदरा बिक्री को शामिल किया जाता है।
आर्थिक अवसाद यानी इकोनामिक डिप्रेशन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में कमी होते-होते एक ऐसा स्तर आ जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भी अर्थव्यवस्था में वृद्धि ठप्प पड़ जाती है इसे ही आर्थिक अवसाद यानी इकोनामिक डिप्रेशन कहते हैं।
सरकार क्या प्रयास कर रही है?
पिछले कुछ दिनों में, सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण एलान किया है। मसलन निजी पूंजी निर्माण में मदद करने के लिहाज से सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 70,000 करोड़ रुपए के नए पूंजी निवेश की योजना बनाई है। इसके अलावा, सरकार बैंकों के जरिए तरलता बढ़ाने, व्यक्तिगत कर अदायगी व्यवस्था को सरल बनाने और उपभोक्ता मांग को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत है।
आगे क्या किया जाए?
मांग को बढ़ाना होगा: सबसे अहम बात तो ये है कि मांग किस तरह से बढ़ाया जाय? मांग बढ़ाने के लिए लोगों की जेब में पैसा होना चाहिए और इसके लिए रोजगार सबसे जरूरी कारक है। रोजगार बढ़ाने के लिए सड़क, फ्लाई-ओवर, पुल जैसे निर्माण कार्यों में सरकार को निवेश बढ़ाना होगा। निर्माण क्षेत्र में निवेश से कई सेक्टरों को काम मिलता है।
तरलता: पैसे की तरलता ना होने की वजह से भी मांग में कमी देखी जा सकती है। लिहाजा तरलता को बढ़ाना होगा ताकि मांग बढ़ाया जा सके। ऑटो सेक्टर में पिछले 20 साल में इतनी अधिक मंदी देखी जा रही है, इस को बढ़ावा देने के लिए तरलता एक अहम कारक साबित होगा। अगर मांग बढ़ी तो जाहिर है कि उत्पादन भी बढ़ेगा और इसका प्रभाव रोज़गार पर भी सकारात्मक होगा।
निर्यात में वृद्धि: निर्यात के क्षेत्र में भी सुस्ती बनी हुई है। इसलिए निर्यात को बढ़ावा देने के लिए हमें बेहतर नीतियों पर काम करना होगा।
जीएसटी: जीएसटी से टैक्स की रिकवरी उतनी नहीं हुई जितनी उम्मीद थी। जिस कारण सरकार के पास फंड की दिक्कत है। जीएसटी सिस्टम को ठीक करना होगा। आपको बता दें कि जीएसटी की समीक्षा के लिए सरकार ने हाल ही में एक समिति गठित की है।
नीतिगत स्थिरता और स्पष्टता: कुछ सरकारी नीतियों, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय हालातों के चलते निवेशकों में एक असमंजस की स्थिति बनी हुई है। जिसके कारण इन निवेशकों में एक असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है लिहाज़ा निवेश में कमी होने लगती है। इसलिए सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने होंगे जिससे निवेशकों में विश्वास पैदा हो तथा नीतिगत स्थिरता और स्पष्टता के हालात बनाए जाएं।