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Blog / 09 Sep 2019

(आर्थिक मुद्दे) आर्थिक मंदी और उपाय (Economic Slowdown and Solutions)

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(आर्थिक मुद्दे) आर्थिक मंदी और उपाय (Economic Slowdown and Solutions)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)

अतिथि (Guest): अजय दुआ (पूर्व वाणिज्य सचिव), सुषमा रामचंद्रन (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

लाखों की कार से लेकर 5 रुपये के बिस्किट तक की बिक्री में गिरावट देखी जा सकती है। हाल ही में, केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश की आर्थिक विकास दर घटकर महज 5 फीसदी रह गई है। विकास दर का ये आंकड़ा पिछले साढ़े छह सालों के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया है।

ये आंकड़ा ऐसे वक्त में आया है जब भारत 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का एजेंडा लेकर चल रहा है। ग़ौरतलब है कि इस एजेंडे को हासिल करने के लिए 8 फ़ीसदी की वृद्धि दर की जरूरत है। ऐसे में ये नए आंकड़े सरकार को निराश करने वाले हैं। हालांकि बीते 23 अगस्त को मंदी की आहट से निपटने के लिए वित्त मंत्री ने कुछ राहत भरे कदमों का ऐलान किया है।

आर्थिक मंदी से जुड़ी शब्दावलियाँ

आर्थिक अवमंदन यानी इकोनॉमिक स्लोडाउन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जाती है तो इसे ही आर्थिक अवमंदन यानी इकोनॉमिक स्लोडाउन कहते हैं। मौजूदा वक्त में भारतीय अर्थव्यवस्था इसी हालत से गुजर रही है।

आर्थिक मंदी यानी इकोनामिक रिसेशन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बजाय घटोत्तरी या कमी होने लगती है तो इसे ही आर्थिक मंदी यानी इकोनामिक रिसेशन कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब किसी देश की जीडीपी में लगातार 6 महीने यानी दो तिमाही तक कमी होती है तो इसे ही आर्थिक मंदी कहते हैं। आर्थिक मंदी को मापने के दौरान अमूमन 5 कारकों - वास्तविक जीडीपी, आय, रोज़गार, विनिर्माण और खुदरा बिक्री को शामिल किया जाता है।

आर्थिक अवसाद यानी इकोनामिक डिप्रेशन: जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में कमी होते-होते एक ऐसा स्तर आ जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भी अर्थव्यवस्था में वृद्धि ठप्प पड़ जाती है इसे ही आर्थिक अवसाद यानी इकोनामिक डिप्रेशन कहते हैं।

अवमंदन के मौजूदा कारण

घरेलू कारण: अवमंदन के घरेलू कारणों पर गौर करें तो इनमें अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्रों में गिरावट, डिमांड और सप्लाई के बीच लगातार कम होता अंतर और निवेश में कमी जैसी चीजें मंदी की तरफ इशारा कर रही हैं। साथ ही, मांग में कमी को भी इसका एक बड़ा कारण बताया जा रहा है। दरअसल निवेशकों द्वारा कर्ज और निवेश के लिए वस्तुओं की मांग में कमी देखने को मिल रहा है। लिहाजा स्लोडाउन देखा जा सकता है।

अंतर्राष्ट्रीय कारण: इसके अलावा कुछ बाहरी कारण भी है जिसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर महसूस किया जा रहा है।

  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों के चलते महंगाई दर पर असर पड़ा है।
  • डॉलर के मुकाबले रुपये की घटती हुई कीमत भी आर्थिक सुस्ती का एक कारण है। मौजूदा वक्त में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत करीब 72 रुपये के आंकड़े को छू रही है।
  • आयात के मुकाबले निर्यात में गिरावट से देश का राजकोषीय घाटा बढ़ा और विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आई है।
  • इसके अलावा अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर की वजह से भी दुनिया में आर्थिक मंदी का खतरा तेजी से बढ़ रहा है, जिसका असर भारत पर भी पड़ा है। अब ये ट्रेड वार, करेंसी वार और टैक्स वार तक पहुंच चुका है।

एक नज़र आंकड़ों पर

हाल ही में, विश्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक़ जीडीपी की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय अर्थव्यवस्था फिसल कर सातवें पायदान पर पहुंच गई। ग़ौरतलब है कि साल 2017 के इसी रैंकिंग में भारत ने फ्रांस को पछाड़ते हुए छठवां स्थान हासिल किया था।

  • हाल ही में, केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ द्वारा भारत में बेरोजगारी को लेकर आंकड़े जारी किए गए। जारी आंकड़ों के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 साल के सबसे निचले स्तर यानी 6.1 फीसदी पर पहुँच गई। ये आंकड़े जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस रिपोर्ट के आधार पर जारी किए गए हैं।
  • देश के शिड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों का एनपीए 8.41 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो चुका है। इनमें से 90% सरकारी बैंकों में है। पूरी बैंकिंग व्यवस्था में सरकारी बैंकों की 70% की हिस्सेदारी है। वहीँ यदि आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो समय रहते कोई उपाय नहीं किया गया तो यह आंकड़ा 20 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है।
  • एसबीआई ने हाल ही में 'मौजूदा मांग में कमी के मूल कारण' पर एक स्टडी किया। इस स्टडी में बताया गया है कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुछ साल पहले तक आय डबल डिजिट्स में बढ़ रही थी। वित्त वर्ष 2010-11 में शहरी आय में वृद्धि 20.5% तक पहुंच गई थी, जबकि साल 2018-19 में यह एकल डिजिट पर आ गई है। इसी तरह ग्रामीण आय में वृद्धि वित्त वर्ष 2013-14 में 27.7% थी, जबकि पिछले तीन सालों में ये 5% से नीचे आ गई है। इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की आय वृद्धि में पर्याप्त गिरावट हुआ है।
  • ऑटोमोबाइल सेक्टर में लगातार नौ महीने से बिक्री में गिरावट देखा जा रहा है। इसके चलते ऑटो सेक्टर से जुड़े साढ़े तीन लाख से ज्यादा कर्मचारियों की नौकरी चली गई और करीब 10 लाख नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। कमोबेश यही हाल टेक्सटाइल सेक्टर और रियल एस्टेट की भी है। ग़ौरतलब है कि कृषि क्षेत्र के बाद सबसे ज्यादा नौकरियाँ टेक्सटाइल सेक्टर में ही हैं। इसी तरह, आरबीआई के मुताबिक तमाम महत्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र अब कर्ज लेने से गुरेज़ कर रहे हैं।

सरकार के लिए आरबीआई की तरफ से कुछ राहत

हाल ही में, भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी जमा पूंजी से सरकार को चालू वित्त वर्ष के लिए 1.76 लाख करोड़ रुपए देने का एलान किया। केंद्रीय बैंक ने यह फैसला जालान समिति की सिफारिश पर किया है। आरबीआई द्वारा सरकार को इससे पहले भी अपने अधिशेष से पैसे दिए जा चुके हैं।

मौजूदा वक्त में, अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाना सरकार की पहली प्राथमिकता होगी। ऐसे में यह कयास लगाया जा रहा है कि इस पैसे का इस्तेमाल देश को मौजूदा आर्थिक संकट से निकालने में होगा। इसके लिए ढांचागत क्षेत्र, आवास क्षेत्र, रेलवे और सड़क परियोजनाओं में व्यय किया जाएगा। इसके अलावा बैंकिंग क्षेत्र में जान डालने के लिए भी इस पैसे का इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान आरबीआई गवर्नर का मानना है कि देश के केंद्रीय बैंक के पास पर्याप्त आरक्षित कोष है और यह काफी बड़ा है। इस पैसे से अर्थव्यवस्था के संकट दूर किए जा सकते हैं। बहरहाल अब देखना यह है कि इस पैसे से अर्थव्यवस्था के तात्कालिक संकट किस हद तक दूर होते हैं।

आगे क्या किया जाए?

मांग बढ़ाना होगा: सबसे अहम बात तो ये है कि मांग किस तरह से बढ़ाया जाय? मांग बढ़ाने के लिए लोगों की जेब में पैसा होना चाहिए और इसके लिए रोजगार सबसे जरूरी कारक है। रोजगार बढ़ाने के लिए सड़क, फ्लाई-ओवर, पुल जैसे निर्माण कार्यों में सरकार को निवेश बढ़ाना होगा। निर्माण क्षेत्र में निवेश से कई सेक्टरों को काम मिलता है।

तरलता: पैसे की तरलता ना होने की वजह से भी मांग में कमी देखी जा सकती है। लिहाजा तरलता को बढ़ाना होगा ताकि मांग बढ़ाया जा सके। ऑटो सेक्टर में पिछले 20 साल में इतनी अधिक मंदी देखी जा रही है, इस को बढ़ावा देने के लिए तरलता एक अहम कारक साबित होगा। अगर मांग बढ़ी तो जाहिर है कि उत्पादन भी बढ़ेगा और इसका प्रभाव रोज़गार पर भी सकारात्मक होगा।

निर्यात में वृद्धि: निर्यात के क्षेत्र में भी सुस्ती बनी हुई है। इसलिए निर्यात को बढ़ावा देने के लिए हमें बेहतर नीतियों पर काम करना होगा। आयात शुल्क बढ़ाकर आयात कम करना होगा। वर्तमान में जो पॉलिसी है उससे बड़ी कंपनियों को आयात की अधिक छूट है। फिक्स डिपॉजिट पर ब्याज अधिक देना होगा। ऋण सस्ते करने होंगे। जिससे लोगों की खरीद की क्षमता में इजाफा होगा।

जीएसटी: जीएसटी से टैक्स की रिकवरी उतनी नहीं हुई जितनी उम्मीद थी। जिस कारण सरकार के पास फंड की दिक्कत है। जीएसटी सिस्टम को ठीक करना होगा।

नीतिगत स्थिरता और स्पष्टता: कुछ सरकारी नीतियों, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय हालातों के चलते निवेशकों में एक असमंजस की स्थिति बनी हुई है। जिसके कारण इन निवेशकों में एक असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है लिहाज़ा निवेश में कमी होने लगती है। इसलिए सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने होंगे जिससे निवेशकों में विश्वास पैदा हो तथा नीतिगत स्थिरता और स्पष्टता के हालात बनाए जाएं।