(इनफोकस - InFocus) मीडिया ट्रायल और विचाराधीन मामले (Media Trial and Matter Under Consideration)
सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, भारत के अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने 'मीडिया ट्रायल' को लेकर चिंता जताई है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि कई विचाराधीन मामलों पर मीडिया की टिप्पणियाँ अदालत की अवमानना के समान हैं. इस पर रोक लगना चाहिए।
मीडिया ट्रायल और विचाराधीन मामले
जब कोई मामला अदालत में विचाराधीन हो और मास मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बताकर एक समानांतर केस चलाने लगे तो इसे मीडिया ट्रायल कहा जाता है। इससे पाठक अथवा श्रोता खुद आरोपियों को दोषी अथवा निर्दोष के तौर पर देखने लगती है, जबकि अभी मामले पर अदालत का फैसला आना बाकी होता है।
- शीर्ष अदालत ने 2012 में कहा था कि अगर लगता है कि मीडिया कवरेज से किसी ट्रायल पर उल्टा असर पड़ सकता है, तो मीडिया को उस मामले की रिपोर्टिंग से अस्थायी तौर पर रोका जा सकता है।
- भारत में पत्रकारों की आज़ादी के लिए विशेष क़ानून नहीं हैं, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी है। हालाँकि, इस आज़ादी पर वाजिब प्रतिबंध का भी प्रावधान है।
- अदालत की अवमानना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर वाजिब प्रतिबंध का आधार हो सकती है।
मौजूदा वक़्त में मीडिया नियंत्रण की क्या व्यवस्था है?
दरअसल दुनिया भर में स्वतंत्र मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. मीडिया के नियंत्रण में सरकारों की जगह स्वायत्त इकाइयों की भूमिका सही मानी गई है. निष्पक्षता के लिए अक़्सर मीडिया 'सेल्फ़-रेगुलेशन' का रास्ता अपनाती है.
- मौजूदा वक़्त में, भारत में टीवी मीडिया को लेकर कोई मज़बूत नियंत्रण की व्यवस्था नहीं है. ये ज़रूर है कि उनका अपना ख़ुद का एक 'रेगुलेटर' है। लेकिन अभी तक इस 'रेगुलेटर' का कोई प्रभावी असर नज़र नहीं आ रहा है।
- भारत में भी न्यूज़ चैनलों ने अभी तक सेल्फ रेगुलेशन का रास्ता अपनाया हुआ है। 'न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी' (एनबीएसए) ने अपने सदस्यों के लिए पत्रकारिता के मानक तय किए हैं और यह संस्था अपने सदस्य चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायतों की सुनवाई करती है।
- साथ ही प्रिंट मीडिया को रेगुलेट करने के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया भी है।
क़ानून में क्या प्रावधान हैं?
केबल टीवी नेटवर्क (रेगुलेशन) ऐक्ट 1995 केंद्र सरकार को 'सार्वजनिक हित' में, केबल टीवी नेटवर्क बंद करने या किसी प्रोग्राम को प्रसारित होने से रोकने का अधिकार देता है।
- अगर किसी प्रसारण से देश की अखंडता, सुरक्षा, दूसरे देश के साथ दोस्ताना संबंध, पब्लिक सुव्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता पर बुरा असर पड़ता हो तो सरकार कार्यवाही कर सकती है।
- इस क़ानून के तहत एक 'प्रोग्राम कोड' बनाया गया है। इसके उल्लंघन की दशा में चैनलों पर एक्शन लिया जा सकता है।
- प्रोग्राम कोड में धर्म या किसी समुदाय के ख़िलाफ़ भावनाएं भड़काना, झूठी जानकारी या अफ़वाहें फैलाना, अदालत की अवमानना, औरतों या बच्चों का बुरा चित्रण आदि शामिल हैं।
- क़ानून के उल्लंघन पर अधिकतम पांच साल की सज़ा और दो हज़ार रुपए जुर्माने का प्रावधान है।
- इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत अगर कोई ऐसे बयान, रिपोर्ट या अफ़वाह को छापता या फैलाता है जो किसी विशेष समुदाय के ख़िलाफ़ अपराध करने के लिए लोगों को उक़साने का काम करे तो उसे तीन साल तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है।
सरकार इस मामले में क्या कर सकती है और क्या नहीं?
अगर सरकार मीडिया को बहुत ज़्यादा नियंत्रित करने का काम करेगी, तो उस पर अभिव्यक्ति की आज़ादी और मीडिया को दबाने के आरोप लगेंगे। लेकिन वहीँ इस तर्क का दूसरा पहलू भी है। सरकार, टीवी न्यूज़ मीडिया को विज्ञापन देती है और लाइसेंस देती है। साथ ही, सरकार के पास कई तरह के क़ानून भी हैं, जिससे मीडिया पर नियंत्रण किया जा सकता है। लेकिन सरकार जो क़दम उठा सकती है, वो भी नहीं उठाती है, क्योंकि अक्सर मामलों में कुछ ना कुछ पॉलिटिकल एजेंडा काम कर रहा होता है।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
वर्तमान में, भारत में क़रीब 350-400 न्यूज़ चैनल काम कर रहे हैं। ऐसी सूरत में, दिन- रात उनके कंटेंट पर नज़र रखना और समय रहते कोई कार्रवाई करना, इसके लिए न कोई प्रक्रिया है और न ही कोई संस्था। जो संस्थाएं हैं भी उनके लिए इतने बड़े पैमाने पर निगरानी करना संभव नहीं है। इसलिए जरुरत है कि सरकार से स्वतंत्र एक ऐसी संस्था हो, जिसके पास कार्रवाई करने का अधिकार हो। इस संस्था को चाहिए कि लगातार न्यूज़ चैनलों पर नज़र रखे और उन्हें नियंत्रित करे. लेकिन साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि प्रेस की निष्पक्षता और स्वतंत्रता बनी रहे।