(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) क्या है नेट जीरो, जिसे लेकर है भारत को ऐतराज? (What is Net Zero, Which India is Worried About?)
आगामी 22-23 अप्रैल के दौरान अमेरिका में जलवायु परिवर्तन पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन होना है। इस ‘क्लाइमेट लीडर समिट’ में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आमंत्रित हैं, लेकिन इस वर्चुअल सम्मेलन से पहले अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को कुछ मामलों के मद्देनजर अपनी सहमति में लेना चाहता है। इसी सिलसिले में अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के क्लाइमेट दूत जॉन केरी भारत की तीन दिवसीय यात्रा पर हैं। अमेरिका चाहता है कि 2050 तक ‘नेट जीरो’ के लक्ष्य को हासिल कर लिया जाए। हालांकि, इस ‘नेट जीरो’ को लेकर भारत की कुछ आपत्तियां हैं।
DNS में आज हम आपको नेट जीरो के बारे में बताएंगे और साथ ही समझेंगे कि आखिर भारत को इस पर क्या एतराज है?
कार्बन को खत्म करने की प्रक्रिया को नेट-जीरो कहते हैं लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि कोई देश अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लेकर चला आए। नेट जीरो उत्सर्जन का मतलब एक ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार करना है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन करने वाली चीजों का इस्तेमाल बिल्कुल कम करना होता है और जिन चीजों से कार्बन उत्सर्जन होता है उसे सामान्य करने के लिए कार्बन सोखने के इंतजाम भी करने होते हैं। इसके लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़–पौधे लगाने और कार्बन सिंक जैसे उपायों को अपनाना होता है। पर्यावरणविदों की मानें तो अगर दुनिया के तापमान को पूर्व-औद्योगिक काल के मुकाबले इस सदी के मध्य तक 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना है तो हमें नेट जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना होगा। मौजूदा वक्त में, कार्बन उत्सर्जन को रोकने को लेकर जो भी वैश्विक प्रयास किए जा रहे हैं वह नाकाफी बताए जा रहे हैं। इसी के मद्देनजर पिछले 2 साल से ऐसी कोशिश चल रही है कि दुनिया का हर देश नेट-जीरो एमिशन-2050 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस करार पर हस्ताक्षर करे।
साल 2050 के लिए अभी से योजना बनाने की वजह ये है कि नेट जीरो उत्सर्जन के लिए किए जाने वाले इंतजाम एक लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरेंगे, ऐसे में अच्छा यह होगा कि यह कदम जल्दी से जल्दी उठा लिया जाए। इसके लिए ब्रिटेन, और फ्रांस समेत कई देशों ने पहले से ही कानून बना रखे हैं। इन कानूनों का मकसद इस सदी के मध्य तक नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है। इसके अलावा, कई देशों ने यह स्पष्ट किया है कि वह जल्द ही इसको लेकर अपने यहां कानून बनाने वाले हैं। गौरतलब है कि अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाला देश है। लेकिन, इस नेट-जीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को लेकर भारत की कुछ आपत्तियां हैं। जिसे विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग जायज भी ठहरा रहा है।
दरअसल भारत को अपनी विकास दर को तेज करनी है, ताकि वह अपनी आबादी के एक बड़े वर्ग को गरीबी से बाहर निकाल सके। इसलिए अगले दो से तीन दशकों में, भारत का उत्सर्जन दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने की संभावना है। इसके लिए वनीकरण यानी जंगल बढ़ाने या कोई अन्य उपाय करने से उत्सर्जन की भरपाई नहीं की जा सकती है। साथ ही, मौजूदा वक्त में कार्बन हटाने वाली अधिकांश तकनीकें या तो भरोसेमंद नहीं है या फिर काफी महंगी हैं। नेट जीरो को लेकर भारत की दूसरी आपत्ति यह है कि विकसित देशों ने अपने पुराने लक्ष्यों और प्रतिबद्धताओं को अभी तक पूरा नहीं किया। किसी भी प्रमुख देश ने क्योटो प्रोटोकॉल के तहत उन्हें सौंपे गए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य को हासिल नहीं किया। इससे भी बदतर है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिए विकासशील और गरीब देशों को धन, और प्रौद्योगिकी मुहैया कराने की उनकी प्रतिबद्धता को लेकर उनका ट्रैक रिकॉर्ड ठीक नहीं है। अब पेरिस समझौता इसी साल से लागू होना है ताकि 2050 तक उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। ऐसे में इन विकसित देशों के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए इस बात की क्या गारंटी है कि इस बार नेट जीरो के लक्ष्य को हासिल कर ही लिया जाएगा। इसके अलावा, भारत ने इन देशों से कहीं बेहतर तरीके से कार्बन उत्सर्जन को लेकर अपने पिछले तय लक्ष्यों को हासिल किया है। साथ ही, भारत का यह भी कहना है कि वह नेट-जीरो के तहत तय लक्ष्यों के लिए प्रयास करता रहेगा, लेकिन इसे लेकर वह किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता में नहीं बंधना चाहता है।