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Blog / 11 Feb 2025

तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल विवाद: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

संदर्भ:

हाल ही में तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच चल रहे विवाद ने राज्यपालों की विधायी प्रक्रिया में भूमिका को लेकर एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक विमर्श को जन्म दिया है। यह मामला वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) के समक्ष विचाराधीन है और यह प्रश्न उठाता है कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति (Assent) रोकने की संवैधानिक सीमा क्या होनी चाहिए।

मुद्दे का विषय :

तमिलनाडु सरकार का राज्यपाल रवि के साथ विवाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के व्याख्या को लेकर है। यह अनुच्छेद कहता है कि जब कोई विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल के पास प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को यह निर्णय लेना चाहिए कि:

1.   विधेयक को स्वीकृति प्रदान की जाए, जिससे वह विधेयक अधिनियम का रूप ले ले।

2.   विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाए।

3.   विधेयक पर सहमति रोक दी जाए और उसे पुनर्विचार हेतु राज्य विधानसभा को वापस भेजा जाए।

अनुच्छेद 200 यह भी कहता है कि राज्यपाल को यह कार्रवाई "जल्द से जल्द" करनी चाहिए। तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि इन विधेयकों पर सहमति में लंबे समय तक देरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है और संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। राज्य में सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद, अन्य विपक्षी शासित राज्यों ने भी सहमति में देरी को लेकर इसी तरह की चिंताएं उठाई हैं।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख मुद्दे:

    1.  बार-बार सहमति रोकने का संवैधानिक प्रश्न :

तमिलनाडु सरकार ने यह सवाल उठाया है कि क्या राज्यपाल को उस विधेयक पर दोबारा सहमति रोकने का अधिकार है, जिसे राज्य विधानसभा ने पहली बार वापस भेजे जाने के बाद दोबारा पारित किया हो। इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट यह विचार करेगा कि जब विधानसभा किसी विधेयक को पुनः पारित कर देती है, तो क्या राज्यपाल के पास उसे रोकने का अधिकार है, या फिर उन्हें अनिवार्य रूप से उसे स्वीकृति देनी होगी अथवा राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजना होगा।

2.   राज्यपाल का विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार:

सुप्रीम कोर्ट यह परीक्षण करेगा कि राज्यपाल को विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार किस हद तक प्राप्त है। हालांकि, अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखने की अनुमति देता है, लेकिन अदालत यह मूल्यांकन करेगी कि यह अधिकार सभी विधेयकों पर लागू होता है या केवल उन विधेयकों पर जो विशेष संवैधानिक महत्व के होते हैं।

3.   पॉकेट वीटो:

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा पॉकेट वीटो है, जिसमें राज्यपाल विधेयक पर सहमति देने में अनिश्चितकालीन देरी कर सकते हैं। तमिलनाडु सरकार ने यह सवाल उठाया है कि क्या ऐसी लंबी देरी की कोई संवैधानिक वैधता है। सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट करना पड़ सकता है कि क्या इस प्रकार की निष्क्रियता के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित है, जिसके बाद यह असंवैधानिक मानी जाएगी।

4.   सहमति के लिए समय सीमा:

हालाँकि अनुच्छेद 200 में कहा गया है कि सहमति 'जल्द से जल्द' दी जानी चाहिए, इसमें इस क्रिया के लिए कोई निश्चित समय सीमा नहीं दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले देरी के मुद्दे पर विचार किया है, लेकिन अभी तक राज्यपालों के लिए एक बाध्यकारी समयसीमा निर्धारित नहीं की है। अदालत यह विचार करेगी कि क्या उसे सहमति के लिए स्पष्ट समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए  और यदि हां, तो वह समय सीमा क्या होनी चाहिए।

 

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णय:

पूर्व में, सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि राज्यपाल विधेयक पर सहमति को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। उदाहरण के लिए, 2016 के नाबम रेबिया बनाम उपराज्यपाल मामले में, न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर ने टिप्पणी की थी कि राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को संदेश के साथ वापस भेजना चाहिए, जिसमें किसी भी सुझाए गए संशोधनों का उल्लेख हो, लेकिन वे विधेयक पर स्थायी रूप से निर्णय रोक नहीं सकते।

इस निर्णय की 2023 के नवंबर में पुनः पुष्टि की गई, जब सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार द्वारा दायर एक समान मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 में 'जल्द से जल्द' (as soon as possible) का अर्थ यह है कि राज्यपाल विधेयक पर अनिश्चितकाल तक निर्णय लंबित नहीं रख सकते।