संदर्भ:
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणियों ने नाट्य प्रदर्शन अधिनियम, 1876 सहित औपनिवेशिक युग के कानूनों के निरंतर अस्तित्व और उनकी समकालीन भारत में प्रासंगिकता को लेकर चर्चा को जन्म दिया है।
अधिनियम की पृष्ठभूमि और उद्देश्य:
· नाट्य प्रदर्शन अधिनियम, 1876 ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा सार्वजनिक अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने के लिए लाया गया था, विशेष रूप से ऐसे प्रदर्शन जो संभावित रूप से उपनिवेश-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा दे सकते थे।
· यह कानून सरकार को किसी भी नाटक या नाट्य प्रदर्शन को सार्वजनिक स्थान पर प्रतिबंधित करने का अधिकार देता था।
· यह अधिनियम विशेष रूप से 1875-76 में प्रिंस अल्बर्ट एडवर्ड (प्रिंस ऑफ वेल्स) की भारत यात्रा के बाद लाया गया था, जब अंग्रेज़ी हुकूमत भारतीयों के बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन से सशंकित थी।
· यह कानून वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम (Vernacular Press Act, 1878) और राजद्रोह कानून (Sedition Law, 1870) जैसे अन्य दमनकारी कानूनों की कड़ी का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना था।
अधिनियम के मुख्य प्रावधान:
· नाट्य प्रदर्शन अधिनियम के तहत, सरकार को यह अधिकार था कि वह किसी भी ऐसे नाट्य प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा सके जिसे ब्रिटिश सरकार के प्रति "निंदनीय", "अपमानजनक" या "असंतोष को बढ़ावा देने वाला" माना जाए।
· कानून ने सरकार को व्यापक विवेकाधिकार प्रदान किया, जिसमें ठोस सबूत या सार्वजनिक परामर्श की कोई आवश्यकता नहीं थी। उल्लंघन करने वालों को कारावास, जुर्माना या दोनों का सामना करना पड़ा।
· यह अधिनियम औपनिवेशिक शासन की उस व्यापक रणनीति का हिस्सा था, जिसका लक्ष्य सार्वजनिक चर्चाओं पर नियंत्रण रखना और सांस्कृतिक व कलात्मक प्रदर्शनों के ज़रिए उठ रही असहमति की आवाज़ों को दबाना था।
कानूनी चुनौतियाँ और निरसन:
· भारत की स्वतंत्रता के बाद, तकनीकी रूप से यह कानून लागू था, लेकिन 1956 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।
· न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (fundamental right) का उल्लंघन करता है।
· इसके बावजूद, यह अधिनियम औपचारिक रूप से भारत के विधि संहिता (statute books) में बना रहा, जब तक कि 2018 में सरकार ने "अप्रचलित कानूनों को हटाने" की पहल के तहत इसे औपचारिक रूप से निरस्त नहीं कर दिया।
भारत में आज तक औपनिवेशिक कानून क्यों मौजूद हैं:
· भारत में औपनिवेशिक कानूनों का जारी रहना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 372 से जुड़ा है, जो स्वतंत्रता के समय लागू सभी कानूनों को तब तक लागू रखने की अनुमति देता है, जब तक उन्हें स्पष्ट रूप से निरस्त (repeal) या संशोधित (amend) नहीं किया जाता।
· हालांकि, नाट्य प्रदर्शन अधिनियम जैसे औपनिवेशिक कानूनों को संवैधानिक मान्यता (presumption of constitutionality) नहीं थी।
· समय के साथ, ऐसे कई कानूनों को या तो निरस्त किया गया या असंवैधानिक घोषित किया गया, जो भारत के सतत कानूनी सुधारों का हिस्सा है।
· स्वतंत्र भारत की संसद द्वारा पारित कानूनों को तब तक संवैधानिक माना जाता है जब तक कि उन्हें अदालत में असंवैधानिक घोषित न किया जाए।
निष्कर्ष:
औपनिवेशिक कानूनों की यह विरासत, उनका क्रमिक निरसन (gradual repeal) और लगातार जारी कानूनी सुधार इस बात को दर्शाते हैं कि भारत अपने औपनिवेशिक अतीत से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है और एक अधिक न्यायसंगत व प्रगतिशील कानूनी ढांचे की दिशा में प्रयासरत है।