संदर्भ:
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यह स्पष्ट किया है कि राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर, राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य होगा। यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अब तक संविधान में इस प्रक्रिया के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी।
संविधान का अनुच्छेद 201 क्या कहता है?
संविधान के अनुच्छेद 201 के अनुसार, यदि किसी राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल के पास आता है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकते हैं। इसके बाद राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं:
1. विधेयक को स्वीकृति देना,
2. विधेयक की स्वीकृति देने से इनकार करना।
हालाँकि, इस अनुच्छेद में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि राष्ट्रपति को निर्णय लेने के लिए कितना समय लेना चाहिए, जिसके कारण कई मामलों में स्वीकृति या अस्वीकृति में देरी देखने को मिली है।
फैसले की मुख्य बिंदु:
· राष्ट्रपति को राज्यपाल से विधेयक प्राप्त होने की तिथि से तीन माह के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य होगा।
· यदि निर्णय तीन महीने से अधिक समय लेता है, तो देरी के कारणों को लिखित रूप में दर्ज कर संबंधित राज्य सरकार को सूचित करना अनिवार्य होगा।
· यदि संवैधानिक पदाधिकारी (जैसे कि राज्यपाल या राष्ट्रपति) बिना उचित कारण के अनावश्यक विलंब करते हैं, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
· राष्ट्रपति यदि किसी विधेयक को अस्वीकृत करते हैं, तो उनका निर्णय स्पष्ट, ठोस और तर्कसंगत कारणों पर आधारित होना चाहिए; वे "पूर्ण वीटो" का प्रयोग नहीं कर सकते।
पृष्ठभूमि:
न्यायालय तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि से जुड़े एक मामले पर विचार कर रहा था, जिन्होंने 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखा था, जबकि उन पर राज्य विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार करके उन्हें फिर से पारित किया जा चुका था। न्यायालय ने राज्यपाल की इस कार्रवाई को गैर-कानूनी और गलत बताया और अनुच्छेद 201 के तहत होने वाली देरी की समीक्षा की।
यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?
• यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि विधेयकों का समयबद्ध रूप से निपटारा हो और उन्हें अनावश्यक रूप से लंबित न रखा जाए।
• यह केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संवैधानिक संतुलन और सहयोग को बढ़ावा देता है।
• यह स्पष्ट करता है कि संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग न्यायसंगत, पारदर्शी और उत्तरदायी ढंग से होना चाहिए।
• यह राज्यपाल या राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदाधिकारियों द्वारा मनमानी या अनावश्यक देरी पर अंकुश लगाता है।
• यह निर्वाचित राज्य सरकारों की विधायी स्वतंत्रता को मज़बूती प्रदान करता है।
• यह सिद्ध करता है कि राज्य की विधानसभाओं के माध्यम से व्यक्त जन-इच्छा को अनिश्चितकाल तक रोका नहीं जा सकता।
राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के बीच संबंध:
भारत के राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के बीच संबंध भारतीय संविधान द्वारा परिभाषित हैं, जो कई महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित है:
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति (अनुच्छेद 124 एवं 217):
· सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश: राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम की सिफारिशों के आधार पर नियुक्ति करते हैं।
· उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) के न्यायाधीश: इनकी नियुक्ति भी कोलेजियम की अनुशंसा के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
2. परामर्शी अधिकार क्षेत्र (अनुच्छेद 143):
राष्ट्रपति, किसी महत्वपूर्ण विधिक या सार्वजनिक महत्व के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से परामर्श मांग सकते हैं। यह परामर्श बाध्यकारी नहीं होता, परंतु इसका संवैधानिक महत्व अत्यधिक होता है।
3. विवादों का समाधान:
· चुनाव संबंधी विवाद (अनुच्छेद 71): राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित विवादों में सुप्रीम कोर्ट को मूल अधिकार क्षेत्र (Original Jurisdiction) प्राप्त है।
· UPSC सदस्यों के आचरण संबंधी मामले (अनुच्छेद 317): यदि किसी सदस्य के आचरण पर प्रश्न उठे, तो राष्ट्रपति इस संबंध में जांच के लिए मामला सुप्रीम कोर्ट को भेज सकते हैं।
· न्यायाधीशों की बर्खास्तगी (अनुच्छेद 124(4) और 124(5)): सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को संसद की महाभियोग प्रक्रिया के माध्यम से हटाया जाता है, जिसमें अंतिम स्वीकृति राष्ट्रपति द्वारा दी जाती है।
निष्कर्ष:
सरकारिया आयोग (1983) और पुंछी आयोग (2007) दोनों ने अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की स्वीकृति से जुड़े मामलों में निश्चित समय सीमा तय करने की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट का यह हालिया निर्णय उन्हीं सिफारिशों के अनुरूप है, जो समयबद्ध निर्णय और संवैधानिक जवाबदेही को सुनिश्चित करता है।