संदर्भ:
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को पवित्र वन (Sacred Groves) को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WLPA), 1972 के तहत वन के रूप में मान्यता देने और उनका मानचित्रण (mapping) करने का निर्देश दिया है। इस फैसले से समुदायिक अधिकारों और पारंपरिक संरक्षण प्रथाओं पर इसके प्रभाव को लेकर चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और वन अधिकार अधिनियम,2006 के बीच संघर्ष:
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006, ग्राम सभाओं के तहत समुदायिक वन संसाधनों को मान्यता देता है, जिससे स्थानीय समुदायों को उनके प्रबंधन का अधिकार मिलता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश पवित्र वनों को सरकार के नियंत्रण में लाने का प्रयास करता है, जिससे पारंपरिक संरक्षण परंपराओं में बाधा आ सकती है और समुदाय के अधिकारों का हनन हो सकता है। भारत में अनुमानित 100,000 से 150,000 पवित्र वन हैं, जो मुख्य रूप से पश्चिमी घाट, मध्य पठार और पूर्वोत्तर राज्यों में स्थित हैं, और इनकी संख्या विश्व में सर्वाधिक है।
पवित्र वन:
पवित्र वन वे वन क्षेत्र हैं जिन्हें समुदाय द्वारा संरक्षित किया जाता है और जिनका सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिकीय महत्व अत्यधिक होता है। ये वन पारंपरिक रीति-रिवाजों और धार्मिक विश्वासों के माध्यम से संरक्षित किए जाते हैं तथा जैव विविधता के हॉटस्पॉट (biodiversity hotspots) के रूप में कार्य करते हैं। साथ ही, ये जल पुनर्भरण (water recharge) के महत्वपूर्ण क्षेत्र होते हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता में योगदान देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का मामला:
टी.एन. गोदावरमन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1996) के ऐतिहासिक मामले में यह निर्धारित किया गया था कि जो भी भूमि वन के गुणों को प्रदर्शित करती है, उसे वन भूमि के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। 2004 में, राजस्थान की एक विशेषज्ञ समिति ने पवित्र वनों को केवल तभी वन के रूप में मान्यता दी थी जब वे कम से कम 5 हेक्टेयर में फैले हों और प्रत्येक हेक्टेयर में 200 से अधिक पेड़ मौजूद हों। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का 18 दिसंबर 2024 का फैसला इन शर्तों को नकारते हुए यह निर्देश देता है कि सभी पवित्र वनों का मानचित्रण किया जाए, उन्हें वन के रूप में वर्गीकृत किया जाए और उन्हें सामुदायिक आरक्षित क्षेत्र (community reserves) के रूप में घोषित किया जाए।
पवित्र वनों का महत्व:
- जैव विविधता संरक्षण: पवित्र वन दुर्लभ और स्थानिक (endemic) प्रजातियों का संरक्षण करते हैं और आनुवंशिक भंडार (genetic reservoirs) के रूप में कार्य करते हैं।
- जल संरक्षण: कई पवित्र वन झरनों, तालाबों और नदियों से जुड़े होते हैं, जो जलभृत पुनर्भरण (aquifer recharge) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- मृदा संरक्षण और जलवायु नियमन: घनी वनस्पति पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर करती है, मृदा अपरदन (soil erosion) को रोकती है और भूमि संरक्षण में सहायक होती है।
- सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व: ये वन स्थानीय परंपराओं, अनुष्ठानों और आध्यात्मिक प्रथाओं (spiritual practices) से गहरे जुड़े होते हैं।
- आपदा निवारण: पवित्र वन जलवायु अनुकूलनशीलता (climate resilience) में योगदान देते हैं और बाढ़, सूखा तथा भूस्खलन जैसी आपदाओं को कम करने में सहायक होते हैं।
पवित्र वनों की चुनौतियाँ:
- शहरीकरण और अतिक्रमण: बढ़ता शहरीकरण और अवसंरचना विकास परियोजनाएँ पवित्र वनों के अस्तित्व को खतरे में डाल रही हैं।
- पारंपरिक विश्वासों में गिरावट: आधुनिकीकरण और स्थानीय ज्ञान के क्षय के कारण समुदाय-आधारित संरक्षण प्रयास कमजोर पड़ रहे हैं।
- आक्रामक प्रजातियाँ: लैंटाना कैमारा (Lantana camara) और प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा (Prosopis juliflora) जैसी गैर-स्थानीय प्रजातियाँ स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रही हैं।
- सरकारी नीतियाँ और कानूनी संघर्ष: वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WLPA) के तहत सामुदायिक आरक्षित क्षेत्रों की परिभाषा और वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत समुदायों के अधिकारों के बीच संघर्ष प्रशासनिक जटिलताओं को जन्म दे रहा है।
निष्कर्ष:
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश संरक्षण प्रयासों को मजबूत करने का प्रयास करता है, लेकिन इससे समुदाय के अधिकारों और पारंपरिक पारिस्थितिकी तंत्र प्रथाओं के बाधित होने का खतरा उत्पन्न होता है। पवित्र वनों के सतत संरक्षण के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है, जो आदिवासी परंपराओं का सम्मान करते हुए मजबूत पारिस्थितिकीय संरक्षण सुनिश्चित करे।