संदर्भ: भारत में राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपालों की भूमिका, बढ़ते राजनीतिकरण के कारण, बहस का विषय बन चुकी है।
· मूल रूप से विश्वविद्यालयों को राजनीतिक प्रभाव से बचाने के लिए बनाई गई यह भूमिका अब राजनीतिक हस्तक्षेप का स्रोत बन गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
· राज्यपाल का कुलाधिपति के रूप में पद ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से विरासत में मिला था।
· 1857 में, अंग्रेजों ने पहले तीन विश्वविद्यालयों (कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास) की स्थापना की और नियंत्रण बनाए रखने के लिए राज्यपालों को कुलाधिपति नियुक्त किया।
· राज्यपालों को महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्रदान की गईं:
- कुलपतियों की नियुक्ति।
- विश्वविद्यालय निकायों में सदस्यों को नामित करना।
- दीक्षांत समारोहों की अध्यक्षता करना।
- विश्वविद्यालय कानून के तहत प्रत्यायोजित विधान को मंजूरी देना।
· स्वतंत्रता के बाद, यह मॉडल लोकतांत्रिक और संघीय भारत में अपनी प्रासंगिकता का पुनर्मूल्यांकन किए बिना जारी रहा, जिससे समय के साथ राजनीतिक तनाव पैदा हुआ।
राज्यपाल की भूमिका का राजनीतिकरण:
· 1947-1967 के बीच, केंद्र और राज्यों में कांग्रेस के प्रभुत्व के चलते, राज्यपालों ने मुख्यतः औपचारिक भूमिका निभाई।
· 1967 के बाद, जब कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी दल सत्ता में आए, राज्यपालों की भूमिका अधिक राजनीतिक होने लगी।
· इससे कई प्रशासनिक समस्याएँ उत्पन्न हुईं:
- नियुक्तियों में देरी: राज्यपालों द्वारा कुलपतियों की नियुक्तियों में देरी के कारण प्रशासनिक कार्य ठप हो जाते थे।
- राज्य सरकारों के साथ टकराव: केंद्र सरकार के निर्देशों पर काम करने वाले राज्यपाल अक्सर राज्य सरकारों के साथ संघर्ष की स्थिति में आ जाते थे।
राज्यपालों की दोहरी भूमिका: संवैधानिक बनाम वैधानिक शक्तियाँ
राज्यपालों के पास:
· संवैधानिक शक्तियाँ: मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना (अनुच्छेद 163)।
· वैधानिक शक्तियाँ: विश्वविद्यालय के मामलों में राज्य सरकार को दरकिनार करते हुए कुलाधिपति के रूप में स्वतंत्र रूप से काम करना।
· दोहरी भूमिका तनाव पैदा करती है, विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों में, क्योंकि राज्यपाल विश्वविद्यालयों को प्रभावित करने वाले एकतरफा फैसले ले सकते हैं।
• राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विजिटर के रूप में कार्य करते हैं, शिक्षा मंत्रालय से परामर्श करते हैं और संसद के समक्ष विश्वविद्यालय के क़ानून पेश करते हैं।
• इसके विपरीत, राज्यपाल अक्सर एकतरफा तरीके से काम करते हैं, विशेषकर विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों में राज्य सरकार को दरकिनार करते हैं, जिससे शासन संबंधी मुद्दे पैदा होते हैं।
वर्तमान प्रणाली में चुनौतियाँ:
· राजनीतिक हस्तक्षेप: राज्यपाल अक्सर विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर केंद्र सरकार के हितों को प्राथमिकता देते हैं।
· दोहरी प्राधिकरण प्रणाली: राज्य सरकार और विश्वविद्यालय नेतृत्व के बीच भ्रम और संघर्ष पैदा करती है।
· शैक्षणिक विशेषज्ञता का अभाव: कई राज्यपालों के पास विश्वविद्यालयों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए शैक्षणिक पृष्ठभूमि का अभाव है।
· निर्णय लेने में देरी: राजनीतिक असहमति के परिणामस्वरूप नियुक्तियों, भर्ती और शैक्षणिक कार्यक्रमों में देरी होती है।
प्रस्तावित सुधार: अकादमिक स्वतंत्रता की ओर एक कदम:
कई आयोगों ने सुधारों की सिफारिश की है:
- राजमन्नार समिति (1969-71): राज्यपालों को वैधानिक कार्यों में राज्य सरकारों की सलाह पर काम करना चाहिए।
- सरकारिया आयोग (1983-88): राज्यपालों को स्वतंत्र निर्णय बनाए रखते हुए मुख्यमंत्रियों से परामर्श करना चाहिए।
- एम.एम. पुंछी आयोग (2007-10): राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक कर्तव्यों तक सीमित होनी चाहिए, जिसमें कुलाधिपति के रूप में एक अकादमिक या तटस्थ व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए।
कुलाधिपति की नियुक्ति के वैकल्पिक मॉडल:
• औपचारिक कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल: राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को हटाकर, भूमिका को औपचारिक बना दिया जाता है। गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों द्वारा अपनाया गया।
• कुलाधिपति के रूप में मुख्यमंत्री: पश्चिम बंगाल और पंजाब में, यह प्रस्तावित किया गया है कि मुख्यमंत्री कुलाधिपति की भूमिका निभाएं।
• राज्य द्वारा नियुक्त कुलाधिपति: राज्य सरकार एक अकादमिक या सार्वजनिक व्यक्ति को कुलाधिपति के रूप में नियुक्त करती है, जिसे तेलंगाना में लागू किया गया है।
• विश्वविद्यालय निकायों द्वारा निर्वाचित कुलाधिपति: विश्वविद्यालय अपने कुलाधिपति का चुनाव संकाय और पूर्व छात्रों में से करते हैं, जिससे राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है।