संदर्भ:
- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, जो वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की एक मार्मिक याद दिलाता है; प्रत्येक वर्ष 8 मार्च को मनाया जाता है। इस संदर्भ में विशेष रूप से भारत जैसे देशों में महिलाओं की प्रगति और चुनौतियों का आकलन करने हेतु शिक्षा, आर्थिक भागीदारी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक मानदंडों जैसे विभिन्न आयामों पर विचार करना आवश्यक है। यह दिवस सांख्यिकीय आंकड़ों, सामाजिक टिप्पणियों सहित नीतिगत निहितार्थों के आधार पर इस बात का व्यापक अवलोकन प्रदान करता है, कि भारत में महिलाओं ने इन क्षेत्रों में कैसा प्रदर्शन किया है।
शैक्षिक सशक्तिकरण: लैंगिक अंतर को समाप्त करना
- शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक समानता को लेकर भारत की यात्रा में हाल के दशकों में कई महत्वपूर्ण प्रगति देखी गई है। सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि या लैंगिक भेदभाव की परवाह किए बिना सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से समावेशी नीतियों के साथ, भारत ने स्कूलों में महिला नामांकन बढ़ाने में उल्लेखनीय प्रगति की है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के 'जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स' के अनुसार, लगभग 12 करोड़ (120 मिलियन) लड़कियों को इस अवसर का लाभ प्राप्त हुआ है, जो शैक्षिक समावेशिता के प्रति भारत के सकारात्मक विकास को दर्शाता है।
- हालांकि, प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर प्रगति के बावजूद, उच्च शिक्षा में, विशेष रूप से एसटीईएम (Science, Technology, Engineering, and Mathematics) के क्षेत्र में चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। वर्तमान में अधिकांश लड़कियां स्नातक और स्नातकोत्तर स्तरों पर कला, विज्ञान, नर्सिंग और चिकित्सा का विकल्प चुनती हैं, इस कारण भी STEM विषयों में एक उल्लेखनीय लिंग असमानता बनी हुई है। देश भर के एसटीईएम संस्थानों में केवल 20% छात्र ही लड़कियां/महिलाएं हैं, जो इन क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी में बाधा डालने वाली प्रणालीगत बाधाओं और सामाजिक पूर्वाग्रहों को दर्शाती हैं।
- इसके अलावा, आईआईटी, सीएसआईआर प्रयोगशालाओं, एम्स, आईआईएसईआर और आईआईएम जैसे प्रमुख संस्थानों में संकायवार महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व एसटीईएम शिक्षा में लैंगिक अंतर को बढ़ाता है। अतः इस असमानता को दूर करने के लिए लिंग-संवेदनशील शिक्षाशास्त्र को बढ़ावा देने, मार्गदर्शन कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने और शिक्षा में महिलाओं के लिए समान अवसर प्रदान करने के लिए ठोस एवं समुचित प्रयासों की आवश्यकता है।
आर्थिक सशक्तिकरणः महिला उद्यमी नवाचार को प्रेरित करना:
- हाल के कुछ वर्षों में, भारतीय उद्यमशीलता के परिदृश्य में महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जो आर्थिक सशक्तिकरण और नवाचार की दिशा में व्यापक बदलाव का संकेतक है। इसके अलावा कई महिला उद्यमी मनोरंजन, विज्ञापन और सौंदर्य उत्पादों जैसे क्षेत्रों में लगी हुई हैं। इसके साथ ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती संख्या ने जैव प्रौद्योगिकी और फार्मास्यूटिकल्स में सफल उद्यम स्थापित करने के मार्ग प्रशस्त किए हैं।
- महिलाओं के नेतृत्व वाले ये उद्यम न केवल आर्थिक विकास में योगदान करते हैं, बल्कि प्रभावी और लाभदायक उत्पादों के विकास के माध्यम से सामाजिक जरूरतों को भी पूरा करते हैं। इसके अलावा, नेत्र विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान और गर्भावस्था से संबंधित क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाली चिकित्सा डिग्री धारक महिलाएं वंचित समुदायों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- उपर्युक्त उपलब्धियों के बावजूद, वित्तीय सेवाओं तक पहुंच, व्यावसायिक नेटवर्क में लैंगिक पूर्वाग्रह और सामाजिक अपेक्षाओं जैसी लगातार चुनौतियां महिलाओं की आर्थिक क्षमता के पूर्ण विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। इसीलिए नीति निर्माताओं को लैंगिक समावेशी नीतियों को प्राथमिकता देनी चाहिए, ऋण और संसाधनों तक पहुंच बढ़ानी चाहिए और महिला उद्यमियों के समग्र एवं बहुआयामी विकास हेतु एक सक्षम वातावरण तैयार करना चाहिए।
राजनीतिक प्रतिनिधित्वः बाधाओं के विपरीत नेतृत्व को आकार देना
- सामाजिक-आर्थिक विकास की तरह ही भारत का राजनीतिक परिदृश्य भी लैंगिक प्रतिनिधित्व में उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है, जिसमें महिलाएं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों स्तरों के प्रमुख नेतृत्वकर्ता के पदों पर कार्यरत हैं। उल्लेखनीय है, कि भारत ने दो महिला राष्ट्रपतियों, प्रतिभा पाटिल (2007-2012) और द्रौपदी मुर्मू (वर्तमान राष्ट्रपति) को समावेशी शासन के लिए राष्ट्र की प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए देखा है।
- इसके अलावा, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और तिब्बत जैसे पड़ोसी देशों में महिला नेता, राजनीतिक नेतृत्व में लैंगिक समानता की दिशा में क्षेत्रीय प्रगति का उदाहरण देती हैं। बेनजीर भुट्टो, शेख हसीना, बिद्या देवी भंडारी और डोलमा ग्यारी अपने-अपने देशों में विभिन्न बाधाओं के परे नीतिगत एजेंडे को आकार देते हुए प्रेरणादायक हस्तियों के रूप में काम कर रहे हैं।
- हालाँकि, इन उपलब्धियों के बावजूद, राजनीतिक संस्थानों में लैंगिक पूर्वाग्रह अभी भी विद्यमान हैं, जो महिलाओं की पूर्ण भागीदारी और प्रतिनिधित्व में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं। अतः इन असमानताओं को दूर करने और समावेशी शासन को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण प्रणाली, चुनावी सुधार और राजनीति में महिलाओं के लिए समर्थन बढ़ाने सहित संरचनात्मक सुधार अनिवार्य हैं।
सामाजिक मानदंड और सांस्कृतिक परिवर्तन
- वर्तमान समय में शिक्षा, अर्थशास्त्र और राजनीति के क्षेत्रों से परे, भारत में महिलाएं लैंगिक असमानता को कायम रखने वाले गहरे सामाजिक मानदंडों और सांस्कृतिक दृष्टिकोण के साथ संघर्ष करती नजर आ रही हैं। उपलब्ध विधायी उपायों और जागरूकता अभियानों के बावजूद, लिंग-आधारित हिंसा, भेदभावपूर्ण प्रथाओं और पितृसत्तात्मक मानदंडों जैसे मुद्दे महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रताओं को कमजोर कर रहे हैं।
- इन चुनौतियों से निपटने के प्रयासों के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें कानूनी सुधार, सामुदायिक लामबंदी और लिंग संवेदीकरण कार्यक्रम शामिल हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (बेटियों को बचाओ, बेटियों को शिक्षित करो) और स्वच्छ भारत अभियान (स्वच्छ भारत मिशन) जैसी पहल लैंगिक असमानताओं को दूर करने और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
- इसके अलावा, नागरिक समाज संगठन, जमीनी स्तर के आंदोलन और परिवर्तन चाहने वाले समूह आदि सभी पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने एवं लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। साथ ही साथ आपसी संवाद/वार्ता को बढ़ावा देकर, जागरूकता बढ़ाकर और समर्थन जुटाकर, ये पहल लिंग-समावेशी मानदंडों के अनुरूप व्यापक सामाजिक बदलाव को रेखांकित करते हैं।
निष्कर्ष
- निष्कर्षतः, वर्तमान भारत में महिलाओं की स्थिति विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति और चुनौतियों की एक जटिल प्रवृत्ति को दर्शाती है। यद्यपि शिक्षा, अर्थशास्त्र और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में प्रगति हुई है, तथापि लैंगिक असमानताएं यथावत हैं, जिससे प्रणालीगत परिवर्तन और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।
- इसके अलावा संरचनात्मक बाधाओं को दूर करके, भेदभावपूर्ण मानदंडों को चुनौती देकर और लिंग-संवेदनशील नीतियों को बढ़ावा देकर, भारत वास्तव में एक समावेशी समाज के अपने दृष्टिकोण को साकार कर सकता है, जहां महिलाएं अपनी क्षमता को पूरा करने और राष्ट्र निर्माण में सार्थक योगदान देने के लिए सशक्त हों।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न: 1. भारत में शिक्षा, आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति और चुनौतियों का विश्लेषण करें, प्रमुख पहलों और निरंतर बढती असमानताओं पर प्रकाश डालें। (10 अंक, 150 शब्द) 2. भारत में लैंगिक असमानता को कायम रखने में सामाजिक मानदंडों और सांस्कृतिक बदलावों की भूमिका पर चर्चा करें, और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और भेदभावपूर्ण प्रथाओं का मुकाबला करने में सरकारी पहल और नागरिक समाज के प्रयासों की प्रभावशीलता की जांच करें। (15 अंक, 250 शब्द) |
स्रोत: द हिन्दू