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Daily-current-affairs / 16 Jan 2024

भारत में मिशनरी कार्यों ने कैसे 'जाति' और 'द्रविड़' पहचान को आकार दिया : डेली न्यूज एनालिसिस

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संदर्भ:

       तमिलनाडु में 'द्रविड़' पहचान को लेकर चल रहा हालिया विवाद, भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद और द्रमुक की भाषाई/क्षेत्रीय राजनीति से प्रेरित है। इस सन्दर्भ में राजनीतिक विशेषज्ञ भारत में अतीत से चले रहे मिशनरी प्रयासों में 'जाति' और 'द्रविड़' पहचानों के बीच के गहरे संबंधों को भी एक कारण मानते हैं। यह अन्वेषण उन ऐतिहासिक आधारों को उजागर करता है जिन्होंने औपनिवेशिक युग के दौरान जातीय वर्गों के गठन के लिए आधार तैयार किया था।

'जाति' पर प्रारंभिक मिशनरी प्रभाव:

       भारत में आधुनिक 'जाति' की उत्पत्ति सोलहवीं शताब्दी से मानी जाती हैं, जब एक पुर्तगाली अधिकारी डुआर्टे बारबोसा ने पहली बार भारत की सामाजिक व्यवस्था के बारे में "कास्टा" शब्द का प्रयोग किया था। भारत में यूरोपीय उपनिवेशवादियों में से एक पुर्तगालियों ने, बाद के जातिगत धारणाओं के विकास के लिए एक आधार तैयार किया। इस हेतु 1706 में जर्मन लूथरन मिशनरी बार्थोलोमियस ज़िगेनबाल्ग द्वारा स्थापित ट्रांक्वेबार मिशन ने, जाति पर प्रारंभिक मिशनरी दृष्टिकोण को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ट्रांक्वेबार मिशन:

       इस मिशन की स्थापना राजा फ्रेडरिक चतुर्थ के निर्देशन में बारथोलोमियस ज़ीगेनबाल्ग मिशन के रूप में की गई थी। जर्मन लूथरन लोगों के नेतृत्व में इस डेनिश प्रोटेस्टेंट मिशन ने मिशनरी रणनीति के तहत भारतीय भाषाओं में बाइबल का अनुवाद, मुद्रित पत्रकों का वितरण और स्कूलों की स्थापना करनी आरम्भ कर दी। उल्लेखनीय है कि इस मिशन ने हिंदू धर्म से ईसाई धर्म में परिवर्तित लोगों के बीच "जाति भेद" को जारी रखने की सहनशीलता दिखाई दी। 1820 के दशक तक उत्तर और दक्षिण भारत दोनों में संचालित प्रोटेस्टेंट मिशनों के बीच यह सहनशीलता प्रचलित थी।

ज़ीगेनबाल्ग का योगदान:

       दक्षिण में धर्म की समझ, विशेष रूप से गैर-ब्राह्मण शैव धर्मावलम्बियों में तमिल धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से, उत्तर के "ब्राह्मणिक"/वैदिक धर्म से "तमिल धर्म" की विशिष्टता में उनके विश्वास को प्रभावित किया। इस शुरुआती दृष्टिकोण ने इस आधार को मजबूत किया कि तमिल शैववाद का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं है।

फ़्रांसीसी कैथोलिक मिशनरी प्रभाव:

       ज़ीगेनबाल्ग के युग और 1844 में लीपज़िग मिशनरी सोसाइटी से लूथरन मिशनरियों के आगमन के दौरान, 'जाति' नामक मुद्दे पर एक और महत्वपूर्ण योगदानकर्ता फ्रांसीसी कैथोलिक मिशनरी एबे जीन-एंटोनी डुबोइस थे। उनका काम, "भारत के लोगों के चरित्र, शिष्टाचार और रीति-रिवाजों का विवरण", उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जातिगत विषयों अध्ययन करना था। डुबॉइस ने फ्रांसीसी जेसुइट मिशनरी गैस्टन-लॉरेंट कोएर्डौक्स के काम का निरीक्षण किया, जिसमें जाति को समझने में अनुभवजन्य अवलोकन के अंतर्संबंध पर जोर दिया गया था।

'द्रविड़' पहचान की उत्पत्ति:

       'द्रविड़ियन' पहचान की नींव: आरंभिक मिशनरी प्रयासों ने केवल "जाति" प्रणाली के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया, बल्कि एक विशिष्ट "द्रविड़ियन" पहचान को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जातीय, धार्मिक और भाषाई आधार पर स्थापित यह पहचान, आर्य आक्रमण सिद्धांत (एआईटी) के औपनिवेशिक सूत्रीकरण के साथ निकटता से सम्बंधित है।

डुबोइस की मानवशास्त्रीय सेवा:

       एबे जीन-एंटोनी डुबॉइस ने भारत के लोगों के चरित्र, शिष्टाचार और रीति-रिवाजों पर, केवल जाति बल्कि 'द्रविड़ियन' पहचान की नींव रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डुबॉइस के काम को मद्रास के तत्कालीन गवर्नर विलियम बेंटिक ने "हिंदुओं के रीति-रिवाजों और शिष्टाचार" को समझने के लिए महत्वपूर्ण माना था। इस मान्यता ने सामाजिक दुनिया को जोड़ने में मिशनरी दृष्टिकोण के महत्व को रेखांकित किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के लिए एक आवश्यकता थी। हालाँकि, यह महत्वपूर्ण है कि मिशनरी प्रयास स्वाभाविक रूप से आत्माओं को "एक सच्चे विश्वास" में परिवर्तित करने के लक्ष्य से प्रेरित थे।

इंडोलॉजी और क्रिश्चियन इवेंजेलिकल मोटिव्सः:

       "इंडोलॉजी" के उद्भव को, ईसाई इवेंजेलिकल उद्देश्यों में देखी जा सकती जाती हैं। इन मिशनरियों ने यहाँ 'मूल निवासियों' को परिवर्तित करने के लिए भारत के सामाजिक ताने-बाने को समझना जरूरी समझा। इस सन्दर्भ में भारत के "नृवंशविज्ञान" का दस्तावेज़ीकरण केवल औपनिवेशिक युग की घटना नहीं थी, बल्कि प्रारंभिक मिशनरी गतिविधियों में इसकी प्रेरणा स्रोत भी रहीं थीं।

द्रविड़वाद पर मिशनरी प्रभाव:

       दक्षिणी भारत में मिशनरियों का द्रविड़वाद के उदय से सीधा संबंध है। यह ऐतिहासिक संबंध अतीत के मिशनरियों और वर्तमान द्रविड़वादियों के बीच के विचार, अभिभाषण और कार्रवाई की निरंतरता में परिलक्षित होती है। अन्य प्रलेखित इतिहास के घटनाक्रमों के बावजूद, इन संबंधों को अक्सर "धर्मनिरपेक्ष विरोधी" कहा जाता है।

भाषाई उत्पत्ति: 'द्रविड़' की उत्पत्ति का पता लगाना

       भाषाई भेद: 'द्रविड़' की भाषाई उत्पत्ति को जानने के लिए इसके स्थानिक और भाषाई पहलुओं को समझना आवश्यक है। यह शब्द, जो मूल रूप से प्राकृत से लिया गया था, ने 'तमिल' को 'द्रविड़' में बदल दिया। भाषाई विविधता तमिलनाडु में प्राकृत शिलालेखों में स्पष्ट है, जो कर्नाटक और आंध्र क्षेत्रों के तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के शिलालेखों में नहीं पाए गए हैं।

       तमिल भाषा का प्रारंभिक साक्ष्य: तमिल सबसे पुराने भाषा होने के साक्ष्य का दावा करता है, जो 600 ईसा पूर्व का है। इसके विपरीत, तेलुगु और कन्नड़ भाषाएँ केवल छठी शताब्दी .पू. के साक्ष्य दिखाती हैं। तमिल में अद्वितीय अक्षरों की उपस्थिति और कुछ संस्कृत शाखाओं की विशेषता भाषाई भेद को उजागर करती है। यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ीकरण से पहले की एक साझा भाषाई उत्पत्ति का सुझाव देती है।

       ऐतिहासिक भाषाई विकास: भाषाई विशेषज्ञ तमिल, कन्नड़, तुलु और तेलुगु की परस्पर संबद्धता पर जोर देते हैं और इसे 1000 ईसा पूर्व से पहले एक ही भाषा से अलग होने का संकेत देते हैं। इस भाषाई विचलन पर निर्णायक साक्ष्य के अभाव के बावजूद, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उत्पन्न निष्कर्षों के प्रति सचेत होने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

       भारत के औपनिवेशिक शासकों को ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रदान की गई "मानवशास्त्रीय सेवा" की गहन खोज की आवश्यकाता है। इस सेवा को गति देने वाली प्रेरणाओं और इसके दूरगामी परिणामों की जांच के माध्यम से, जिससे मिशनरी कार्य, जाति और द्रविड़ पहचान के बीच जटिल संबंधों को उजागर करना अनिवार्य है। तमिलनाडु में 'द्रविड़' पहचान की बहस भाषाई, भौगोलिक और राजनीतिक आयामों की एक जटिल परस्पर क्रिया के रूप में उभरती है। प्राकृत से तमिल तक का ऐतिहासिक विकास, जटिल भाषाई संबंध और सांस्कृतिक प्रतीकों का राजनीतिक विनियोग चल रहे विवाद की सूक्ष्म समझ में योगदान देता है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:

1.      औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में 'जाति' और 'द्रविड़' पहचान के निर्माण पर प्रारंभिक मिशनरी प्रयासों के प्रभाव का आकलन करें। सामाजिक संरचनाओं की धारणाओं को आकार देने में ट्रैंक्यूबार मिशन और एबे जीन-एंटोनी डुबोइस जैसे मिशनरियों की भूमिकाओं का अन्वेषण करें। (10 अंक, 150 शब्द)

2.      'द्रविड़' पहचान के भाषाई विकास की जांच करें, इसकी जड़ें प्राकृत से 'द्रविड़' तक खोजें। तमिल, तेलुगु और कन्नड़ के लिए ऐतिहासिक साक्ष्यों का विश्लेषण करें, भाषाई संबंधों और प्रारंभिक विचलन के निहितार्थों पर प्रकाश डालें। (15 अंक, 250 शब्द)

 स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस