संदर्भ
राजकोषीय समेकन आर्थिक प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण पहलू है जिसे सरकारें अपने व्यय और राजस्व के बीच असंतुलन को दूर करने के लिए करती हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत हालिया केंद्रीय बजट के संदर्भ में, 2024-25 में राजकोषीय घाटा को जीडीपी के 5.1% तक कम करने की घोषणा ने इस लक्ष्य की महत्वाकांक्षी प्रकृति पर बहस शुरू कर दी है। यह लेख राजकोषीय समेकन के महत्व का विश्लेषण करता है, राजकोषीय घाटे के अनुमान का परिक्षण करता है, सरकार के वित्तपोषण तंत्रों की जांच करता है, और राजकोषीय घाटे तथा राष्ट्रीय ऋण के बीच अंतर करता है। इसके अतिरिक्त, यह प्रस्तावित राजकोषीय समेकन उपायों की संभावित चुनौतियों और प्रभावों का विश्लेषण करता है।
राजकोषीय घाटे को समझना:
राजकोषीय घाटा एक महत्वपूर्ण आर्थिक अवधारणा है जो सरकार की वित्तीय स्थिति का आकलन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सरकार के व्यय और उसके राजस्व के बीच अंतर को दर्शाता है। जब सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक होता है तो उसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है।
केंद्रीय बजट में राजकोषीय घाटा:
हाल ही में प्रस्तुत केंद्रीय बजट में, 2024-25 के लिए राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.1% तक कम करने का लक्ष्य रखा गया है, और 2025-26 में इसे 4.5% से नीचे लाने का लक्ष्य है। ये अनुमान विश्लेषकों के लिए आश्चर्यजनक थे क्योंकि पहले उम्मीद थी कि घाटा थोड़ा अधिक होगा, लगभग 5.3% या 5.4% जीडीपी। संशोधित अनुमानों ने 2023-24 के लिए भी राजकोषीय घाटे का अनुमान घटाकर जीडीपी का 5.8% कर दिया है।
राजकोषीय घाटा और राष्ट्रीय ऋण:
राजकोषीय घाटे को राष्ट्रीय ऋण से अलग करना महत्वपूर्ण है। राजकोषीय घाटा एक वार्षिक कमी है, जबकि राष्ट्रीय ऋण सरकार पर एक विशिष्ट समय पर उसके लेनदारों का कुल बकाया ऋण है। राजकोषीय घाटा जीडीपी के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो सरकार की अपने लेनदारों को कर्ज चुकाने की क्षमता का अनुमान लगाता है। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आम तौर पर उच्च राजकोषीय घाटे को बनाए रख सकती हैं जिन्हें पूर्ण मौद्रिक संदर्भ में मापा जाता है।
सरकारी वित्त पोषण तंत्र:
राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए, सरकारें मुख्य रूप से बांड बाजार से उधार लेती हैं। ऋणदाता सरकार द्वारा जारी बांड खरीदते हैं। भारत के मामले में केंद्र को 2024-25 में ₹14.13 लाख करोड़ उधार लेने का अनुमान है, जो अपेक्षित ₹15.6 लाख करोड़ से कम है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) जैसे केंद्रीय बैंक भी क्रेडिट बाजार में भूमिका निभाते हैं। हालाँकि वे सीधे तौर पर सरकारी बांड नहीं खरीद सकते हैं लेकिन वे खुले बाजार में परिचालन कर सकते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी उधारी में योगदान कर सकते हैं।
सरकारी बांड और उधार की लागत:
अंतिम उपाय के रूप में मुद्रा निर्गत करने की सरकार की क्षमता को देखते हुए, सरकारी बांड को अक्सर जोखिम-मुक्त माना जाता है। हालांकि, चुनौती ऋणदाताओं द्वारा माँगी गई ब्याज दरों में है। जैसे-जैसे सरकार की वित्तीय स्थिति कमजोर होती है, उसके बांड की मांग कम हो जाती है, जिससे उच्च ब्याज दरें और उधार लेने की लागत बढ़ जाती है। केंद्रीय बैंक की उधार दरों से प्रभावित प्रचलित मौद्रिक नीति, सरकारी उधार लेने की लागत को और प्रभावित करती है।
राजकोषीय घाटे का महत्व:
राजकोषीय घाटा, जो सरकार के कुल खर्च और कुल आय के बीच का अंतर होता है, कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है। आइए, इनमें से कुछ को समझते हैं:
1. मुद्रास्फीति: ऊंचा राजकोषीय घाटा और मुद्रास्फीति में सीधा संबंध होता है। जब सरकार अधिक व्यय करती है तो वह प्राय: नई मुद्रा निर्गत कर के उसकी भरपाई करती है। यह अधिक धन अर्थव्यवस्था में प्रवाहित हो जाता है, जिससे मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए, महामारी के दौरान भारत का राजकोषीय घाटा 9.17% जीडीपी तक पहुंच गया था लेकिन हाल ही में इसमें सुधार हुआ है और अब यह 5.8% होने का अनुमान है।
2. बाजार में भरोसा: कम राजकोषीय घाटा दिखाता है कि सरकार आर्थिक रूप से जिम्मेदार है और खर्च पर नियंत्रण रख रही है। इससे निवेशकों और बाजार में भरोसा बढ़ता है जिससे सरकार को कम ब्याज दर पर ऋण मिल सकता है। इसके अलावा, निवेशक सरकारी बांड खरीदने के लिए अधिक इच्छुक होंगे, जिससे सरकार को धन जुटाने में मदद मिलती है।
3. सार्वजनिक ऋण प्रबंधन: सरकार का ऋण समय के साथ बढ़ता रहता है और राजकोषीय घाटा इस वृद्धि को प्रभावित करता है। कम घाटा रखने से सरकार को अपने ऋण का बेहतर प्रबंधन करने में मदद मिलती है और यह सुनिश्चित होता है कि ऋण बहुत अधिक न हो जाए। उच्च ऋण सरकार के लिए भविष्य में ब्याज का भुगतान करना कठिन बना सकता है।
4. अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंच: कम राजकोषीय घाटा सरकार को अंतरराष्ट्रीय बांड बाजार तक आसानी से पहुंचने में मदद करता है। इसका मतलब है कि सरकार विदेशों में बांड बेच सकती है और संभावित रूप से घरेलू बाजार की तुलना में कम ब्याज दर पर ऋण प्राप्त कर सकती है। यह सरकार के लिए धन जुटाने का एक और तरीका है और उसे अपनी वित्तीय स्थिति को मजबूत करने में मदद करता है।
राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लिए चुनौतियाँ और रणनीतियाँ:
● सरकार के महत्वाकांक्षी राजकोषीय घाटे में कमी के लक्ष्य के बावजूद कई चुनौतियाँ विद्यमान हैं। केंद्र ने 2024-25 में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 5.1% तक कम करने की योजना बनाई है, कर संग्रह में 11.5% की वृद्धि और उर्वरक और खाद्य सब्सिडी पर खर्च को कम करने पर जोर दिया है। यद्यपि, केवल कर दरों में वृद्धि के माध्यम से कर संग्रह में वृद्धि का लक्ष्य आर्थिक विकास के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है, क्योंकि कर आर्थिक गतिविधियों में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
● इसलिए, बजट को संतुलित करने के लिए राजकोषीय समेकन के माध्यम से एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है, जिसमें संभावित आर्थिक प्रभावों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यद्यपि सरकार का लक्ष्य पूंजीगत व्यय बढ़ाना और विभिन्न कार्यक्रमों को वित्तपोषित करना है, परन्तु राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को प्राप्त करना अनिश्चित बना हुआ है। अनुमान गलत साबित हो सकते हैं, और वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव जैसे बाहरी कारक, राजकोषीय समेकन उपायों की सफलता को प्रभावित कर सकते हैं।
रणनीतियाँ:
● कर सुधार और दक्षता वृद्धि: व्यापक कर सुधारों और कर प्रशासन में दक्षता बढ़ाकर कर आधार का विस्तार किया जा सकता है।
● व्यय युक्तिकरण और लक्षित सब्सिडी: गैर-आवश्यक व्यय में कटौती की जानी चाहिए और सब्सिडी को लक्षित किया जाना चाहिए ताकि उनका लाभ पात्र लाभार्थियों तक ही सीमित रहे।
● आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देना: आर्थिक वृद्धि को बढ़ाकर दीर्घकालिक रूप से राजस्व में वृद्धि की जा सकती है जिससे राजकोषीय समेकन को आसान बनाया जा सकता है।
● सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को बढ़ावा देना: पूंजीगत परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा दिया जा सकता है।
निष्कर्ष:
अंत में, राजकोषीय समेकन आर्थिक प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण तत्व है जिसका मुद्रास्फीति, बाजार विश्वास और अंतर्राष्ट्रीय ऋण पहुंच पर प्रभाव पड़ता है। हाल के केंद्रीय बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य राजकोषीय अनुशासन के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हैं। कर संग्रह में वृद्धि और सब्सिडी में कमी जैसी उल्लिखित रणनीतियाँ, राजकोषीय जिम्मेदारी और आर्थिक विकास के बीच एक नाजुक संतुलन प्राप्त करने में चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं। जैसे-जैसे सरकार इन चुनौतियों का समाधान करेगी राजकोषीय समेकन उपायों की प्रभावशीलता स्पष्ट हो जाएगी, जो आने वाले वर्षों में देश के आर्थिक विकास को आकार देगी।
Source – The Hindu