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Daily-current-affairs / 13 Nov 2024

दक्षिणी भारत में जनसांख्यिकीय चुनौती: कम प्रजनन क्षमता, वृद्ध होती जनसंख्या और नीतिगत प्रतिक्रियाएँ -डेली न्यूज़ एनालिसिस

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सन्दर्भ:

दक्षिणी भारतीय राज्य एक विशिष्ट जनसांख्यिकीय परिवर्तन का सामना कर रहे हैं, जोकि सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से चुनौतियाँ उत्पन्न कर रहा है। हाल ही में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में हुई चर्चाओं में घटती प्रजनन दर और बढ़ती वृद्ध जनसंख्या के प्रभावों को लेकर चिंता व्यक्त की गई है। परिवार नियोजन नीतियों की सफलता के कारण यह स्थिति अब दोधारी तलवार बन गई है, क्योंकि इससे वृद्धावस्था से संबंधित समस्याएँ तो बढ़ रही हैं, साथ ही जनसांख्यिकीय संतुलन और प्रतिनिधित्व से जुड़ी नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं।

·        प्रजनन दर में गिरावट: दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर में उल्लेखनीय कमी आई है, जिसके कारण कई उत्तरी राज्यों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि धीमी रही है।

  • वृद्ध होती जनसंख्या: इन राज्यों में जनसंख्या तेजी से वृद्ध हो रही है, जिसके कारण कार्यबल में कमी रही है और निर्भरता अनुपात में वृद्धि हो रही है।
  • नीतिगत चुनौतियाँ: दक्षिणी राज्यों के नेता लैंगिक समानता और आर्थिक विकास के सिद्धांतों को बनाए रखते हुए जनसंख्या वृद्धि को संतुलित करने के उपायों की खोज कर रहे हैं।

भारत में वर्तमान जनसांख्यिकीय स्थिति:
भारत का जनसांख्यिकीय परिदृश्य काफी हद तक बदल चुका है, और प्रजनन दर को कम करने में दक्षिणी राज्यों ने अग्रणी भूमिका निभाई है। हालांकि, इस सफलता के अपने नकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं।

·        कम प्रजनन दर: तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने 2019 और 2021 के बीच 1.4 की कुल प्रजनन दर (TFR) दर्ज की है, जोकि 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में भी लगभग कुल प्रजनन दर 1.5  दर्ज की गई है।

·        जनसंख्या वृद्धि में क्षेत्रीय भिन्नताएँ: इसके विपरीत, बिहार (TFR 3.0), उत्तर प्रदेश (2.7) और मध्य प्रदेश (2.6) जैसे उत्तरी राज्यों में प्रजनन दर अधिक है, जिसके कारण जनसंख्या वृद्धि तेज़ी से हो रही है।

·        कम प्रजनन दर के निहितार्थ: कम TFR वाले राज्यों को अब घटती युवा आबादी की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जिससे आयु जनसांख्यिकी में असंतुलन और वृद्ध जनसंख्या में वृद्धि हो रही है।

 

वृद्ध होती जनसंख्या के आर्थिक निहितार्थ:
दक्षिण भारत में वृद्ध होती जनसंख्या का आर्थिक प्रभाव गहरा है, जोकि स्वास्थ्य देखभाल लागत, कार्यबल की उपलब्धता और निर्भरता अनुपात को प्रभावित करता है।

·         वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात: निर्भरता अनुपात, जो प्रति 100 कामकाजी लोगों पर बुजुर्गों की संख्या को दर्शाता है, उम्र बढ़ने के आर्थिक प्रभाव को समझने में मदद करता है। 2021 में, केरल का अनुपात 26.1 था, तमिलनाडु का 20.5, हिमाचल प्रदेश का 19.6 और आंध्र प्रदेश का 18.5 था। ये सभी 15% से अधिक थे।

·         स्वास्थ्य सेवा व्यय: बढ़ती उम्र के कारण स्वास्थ्य सेवा पर खर्च बढ़ रहा है। 2017-18 में, दक्षिणी राज्यों में भारत की आबादी का केवल 20% हिस्सा रहता है, जबकि देश के स्वास्थ्य सेवा व्यय का 32% हिस्सा इन राज्यों में खर्च होता है, विशेषतौर पर उम्र से संबंधित बीमारियों पर।

·         आर्थिक विकास पर दबाव: उच्च वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात का अर्थ है कि बुजुर्गों की सहायता के लिए कार्यशील आयु वर्ग के व्यक्तियों की संख्या में कमी हो रही है, जिसके कारण आर्थिक तनाव उत्पन्न हो रहा है, क्योंकि राज्यों को स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक कल्याण लागत में वृद्धि का सामना करना पड़ता है।

परिसीमन के राजनीतिक निहितार्थ और प्रभाव:
दक्षिण भारत में जनसांख्यिकीय बदलाव के उल्लेखनीय राजनीतिक निहितार्थ हैं, विशेष रूप से संसद में सीट आवंटन के संबंध में, जोकि उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच राजनीतिक शक्ति संतुलन को बदल सकता है।

·         परिसीमन और प्रतिनिधित्व: 2026 में अद्यतन जनसंख्या गणना के आधार पर संसदीय सीटों का नियोजित पुनर्वितरण, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उच्च प्रजनन दर वाले राज्यों के पक्ष में होने की संभावना है। इसका अर्थ है कि तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य संसदीय सीटें खो सकते हैं।

·         संघीय संसाधन आवंटन: दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि वे कर राजस्व में अधिक योगदान करते हैं, लेकिन उनकी धीमी जनसंख्या वृद्धि के कारण उन्हें संघीय संसाधनों का कम हिस्सा प्राप्त होता है, जिससे क्षेत्रीय विकास प्रभावित होता है।

·         न्यायसंगत प्रतिनिधित्व का आह्वान: दक्षिणी नेता ऐसी प्रतिनिधित्व नीतियों की समर्थन करते हैं जो केवल जनसंख्या के आकार के बजाय आर्थिक योगदान को ध्यान में रखती हों तथा सीटों और संसाधनों का उचित आवंटन सुनिश्चित करती हों।

नेटलिस्ट (Pro-Natalist) नीतियों का मूल्यांकन:
कुछ दक्षिणी राज्यों ने घटती प्रजनन दर को संबोधित करने के लिए जन्म-समर्थक नीतियों का प्रस्ताव दिया है, लेकिन ऐसी नीतियों को वैश्विक स्तर पर सीमित सफलता मिली है और उनके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पर चिंताएं उत्पन्न हुई हैं।

  • नेटलिस्ट नीतियों की चुनौतियाँ: अध्ययनों से पता चलता है कि शिक्षित महिलाएँ प्रो-नेटलिस्ट प्रोत्साहनों पर प्रतिक्रिया करने के लिए कम इच्छुक हैं, जोकि उनके करियर और पारिवारिक प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाते। ऐसी नीतियों की सफलता सीमित हो सकती है और कभी-कभी ये उलटा भी पड़ सकती हैं।
  • महिला कार्यबल भागीदारी पर प्रभाव: बढ़ती प्रजनन क्षमता के कारण कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी कम हो सकती है, जिससे उन राज्यों में आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जहाँ महिलाएं अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।
  • वैकल्पिक दृष्टिकोण: सफल अंतरराष्ट्रीय मॉडल कार्य-परिवार नीतियों पर केंद्रित होते हैं, जैसे कि वेतन सहित पैतृक अवकाश, सुलभ बाल देखभाल सेवाएँ और लचीली कार्य व्यवस्था, जो प्रजनन दर को बढ़ाने और आर्थिक उत्पादकता को संतुलित करने में सहायक होती हैं।

वैकल्पिक दृष्टिकोण और समाधान:
जन्म-समर्थक नीतियों की सीमाओं को देखते हुए, दक्षिणी राज्य वृद्ध होती जनसंख्या के प्रबंधन और आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए वैकल्पिक समाधान तलाश रहे हैं।

1.     श्रम बल में भागीदारी बढ़ाना: वरिष्ठ नागरिकों के लिए कार्यशील जीवनकाल को बढ़ाना और महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी को प्रोत्साहित करने से वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात को कम करने में मदद मिल सकती है।

o    ऐसी नीतियों को प्रोत्साहित करना जो वृद्ध व्यक्तियों को आर्थिक रूप से सक्रिय रहने में सहायता करें।

o    कार्यबल में भागीदारी बढ़ाने के लिए महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए कौशल कार्यक्रम विकसित करना।

o    बुजुर्गों और परिवार की देखभाल करने वालों के लिए अंशकालिक या लचीले कार्य विकल्पों का समर्थन करना।

2.     आर्थिक प्रवासियों को आकर्षित करना: दक्षिणी राज्य आर्थिक केंद्र हैं जो अन्य क्षेत्रों से प्रवासियों को आकर्षित करते हैं, जिससे श्रम अंतराल को भरने में मदद मिल सकती है, हालांकि चुनौतियां बनी हुई हैं।

o    प्रवासी श्रमिक आवश्यक कार्यबल की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, विशेष रूप से निर्माण और सेवा जैसे क्षेत्रों में।

o    हालांकि, इन प्रवासियों को अक्सर संसाधन वितरण के लिए उनके गृह राज्यों में ही गिना जाता है, जिससे गंतव्य राज्यों को संघीय समर्थन के बिना सामाजिक और वित्तीय लागतों को वहन करना पड़ता है।

o    जनसांख्यिकीय असंतुलन को कम करने के लिए प्रवासी आबादी के सामाजिक और आर्थिक एकीकरण पर ध्यान देना।

3.     वृद्ध आबादी के लिए उन्नत सहायता प्रणालियां: बढ़ती हुई वृद्ध जनसांख्यिकी को प्रबंधित करने के लिए राज्यों को व्यापक सामाजिक और स्वास्थ्य देखभाल नीतियों की आवश्यकता है।

o    आयु-संबंधी स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे में निवेश करना।

o    बुजुर्ग निवासियों की जेब से होने वाले खर्च को कम करने के लिए किफायती, सुलभ स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना।

o    बुजुर्गों को पर्याप्त सहायता प्रदान करने तथा परिवारों पर निर्भरता कम करने के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का विस्तार करना।

निष्कर्ष:

दक्षिण भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन एक जटिल परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं, जिसके समाधान के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। जन्म वृद्धि को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ पूरी तरह से सफल नहीं हो सकतीं, स्वास्थ्य देखभाल में निवेश, लचीली कार्य-परिवार नीतियाँ और श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं। जैसे-जैसे भारत परिसीमन प्रक्रिया की ओर बढ़ रहा है, जनसांख्यिकीय असमानताओं को दूर करने और राष्ट्रव्यापी सतत विकास को सुनिश्चित करने के लिए समान प्रतिनिधित्व और संसाधन वितरण की आवश्यकता होगी।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:

भारत में घटती प्रजनन दर और बढ़ती उम्रदराज़ आबादी से उत्पन्न जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का विश्लेषण करें। आर्थिक विकास, स्वास्थ्य सेवा लागत और कार्यबल उपलब्धता पर इन प्रवृत्तियों के संभावित प्रभाव पर चर्चा करें।