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Daily-current-affairs / 09 Oct 2024

सर्वोच्च न्यायालय ने जाति-आधारित जेल नियमों को किया खारिज: सामाजिक न्याय के लिए एक ऐतिहासिक निर्णय: डेली न्यूज़ एनालिसिस

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सन्दर्भ:

हाल ही में 3 अक्टूबर, 2024 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें कई राज्यों के जेल मैनुअल में जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया। यह निर्णय समानता की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में उभरा है, विशेष रूप से हाशिए पर रहे समुदायों के लिए जो ऐतिहासिक रूप से जाति-आधारित श्रम विभाजन के अधीन रहे हैं। जाति-आधारित जेल नियम औपनिवेशिक युग की पुरानी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को जीवित रखते हैं और जाति के आधार पर निम्न स्तर के काम सौंपते हैं, जिससे भारत के संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने निर्णय में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों के जेल मैनुअल की भेदभावपूर्ण प्रकृति को उजागर किया। इन नियमों में न केवल कैदियों को जाति के आधार पर वर्गीकृत किया गया  बल्कि उन्हें जेल में कार्य भी सौंपे गए, जिससे जातिगत पदानुक्रम को मजबूत करने में मदद मिली।

पृष्ठभूमि:

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दायर याचिका पर आया है, इन्होंने कई राज्यों में जेल मैनुअल में भेदभावपूर्ण नियमों को चिन्हित किया। इन नियमों में जाति के आधार पर जेल श्रम निर्धारित किया गया था, जिसका प्रभाव अनुसूचित जातियों और विमुक्त जनजातियों सहित हाशिए पर पड़े समुदायों पर पड़ रहा था  जिन्हें ऐतिहासिक रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत "आपराधिक जनजातियों" के रूप में कलंकित किया गया था।

·      उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश जेल मैनुअल (1987) में यह अनिवार्य किया गया था कि अनुसूचित जाति समुदाय के 'मेहतर' जाति के कैदियों को शौचालय साफ करना होगा।

·      पश्चिम बंगाल जेल संहिता नियम (1967) ने "उपयुक्त जाति" के कैदियों को भोजन पकाने और वितरित करने की अनुमति दी तथा कार्यों को जातिगत आधार पर स्पष्ट रूप से विभाजित किया।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश:

न्यायालय ने अपने फैसले में ऐसे सभी भेदभावपूर्ण प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया। फैसले में राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को तीन महीने के भीतर अपने जेल मैनुअल में संशोधन करने का निर्देश दिया गया। केंद्र को जाति आधारित श्रम विभाजन को खत्म करने के लिए मॉडल जेल मैनुअल 2016 और मॉडल जेल और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 के मसौदे में संशोधन करने का भी निर्देश दिया गया।

 औपनिवेशिक विरासत और आपराधिक जनजाति अधिनियम:

·      जेल मैनुअल में भेदभावपूर्ण प्रावधान औपनिवेशिक युग के 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम से उत्पन्न हुए हैं, जिसने अंग्रेजों को कुछ समुदायों को "आपराधिक जनजाति" के रूप में चिन्हित करने की अनुमति दी थी। ऐसे समुदायों पर लगातार निगरानी रखी गई और उन्हें आदतन अपराधी करार दिया गया। साल 1952 में अधिनियम के निरस्त होने के बावजूद, इन समुदायों से जुड़ा कलंक अभी भी जारी है, खासकर विमुक्त जनजातियों (Denotified Tribes) के लिए।

·      सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जेल नियमावली अभी भी अधिकारियों को मनमाने मानदंडों के आधार पर विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को "आदतन अपराधी" के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति देती है, भले ही उन्हें पहले से कोई दोष सिद्ध न हुआ हो। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे प्रावधान औपनिवेशिक रूढ़ियों को कायम रखते हैं और इन समुदायों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

 विमुक्त जनजातियाँ और जेल श्रम:

·      विमुक्त जनजातियाँ, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से "आपराधिक जनजातियाँ" के रूप में जाना जाता है, न केवल समाज में बल्कि जेलों में भी भेदभाव का सामना कर रही हैं। मध्य प्रदेश के मैनुअल ने विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को आदतन अपराधी के रूप में व्यवहार करने की अनुमति दी, जिससे उनकी पहचान प्रभावी रूप से अपराध से जुड़ गई। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, और केरल में भी ऐसे ही भेदभावपूर्ण प्रावधान मौजूद हैं, जहाँ कैदियों को उनकी जाति और पिछले व्यवहार के आधार पर आदतन अपराधी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, भले ही उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड न हो।

·      यह निर्णय इन प्रतिगामी प्रथाओं के खिलाफ आवश्यक कार्रवाई करने की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, ताकि विमुक्त जनजातियों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा की जा सके

संवैधानिक उल्लंघन:

  सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संवैधानिक अधिकारों के कई उल्लंघनों की पहचान की गई, खासकर अनुच्छेद 14, 15, 17, 21, और 23 के संदर्भ में। निम्नलिखित अनुच्छेद इन उल्लंघनों और फैसले के व्यापक निहितार्थों का विश्लेषण करता है-

1.    समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14):

न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि कैदियों का जाति-आधारित वर्गीकरण असंवैधानिक है। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि जाति को वर्गीकरण के आधार के रूप में तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब यह जाति-आधारित भेदभाव के पीड़ितों को लाभ प्रदान करता हो। जाति के आधार पर जेल में काम सौंपना कैदियों को सुधार के अवसरों से वंचित करता है और सामाजिक विभाजन को मजबूत करता है

प्रमुख ऐतिहासिक निर्णय :

    • इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) : न्यायालय ने सकारात्मक कार्रवाई नीतियों और समानता की आवश्यकता पर चर्चा की।
    • के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) : उभरते संदर्भों में समानता सुनिश्चित करने के लिए अनुच्छेद 14 के दायरे को बढ़ाया गया।

2. भेदभाव के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 15):

अनुच्छेद 15 जाति, धर्म, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। न्यायालय ने पाया कि जेल मैनुअल निचली जाति के कैदियों को सफाई और झाड़ू लगाने का काम सौंपकर हाशिए पर पड़े समुदायों के साथ भेदभाव करता है। यह रूढ़िवादिता को बढ़ावा देता है कि कुछ जातियाँ केवल नीची मजदूरी के लिए ही उपयुक्त हैं, जोकि अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।

3. अस्पृश्यता उन्मूलन (अनुच्छेद 17):

न्यायालय ने पाया कि कुछ जेल नियमों में स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता का पालन किया जाता है, जिसे अनुच्छेद 17 के तहत समाप्त कर दिया गया है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में निचली जातियों के दोषियों को शौचालय की सफाई जैसे काम सौंपे जाते थे। यह प्रथा जाति-आधारित श्रम विभाजन को मजबूत करती है और अस्पृश्यता को जारी रखती है।

विधायी संदर्भ :

    • नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 : सभी रूपों में अस्पृश्यता के उन्मूलन को सुनिश्चित करने के लिए अधिनियमित किया गया ।

4. सम्मान के साथ जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21):

अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। न्यायालय ने यह माना कि हाशिए पर पड़े कैदियों को अपमानजनक कार्य सौंपना उन्हें सम्मान से वंचित करता है और उनके सुधार की संभावनाओं को सीमित करता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार करते हुए सम्मान, गोपनीयता, और बिना भेदभाव के जीने के अधिकार को भी शामिल किया है।

प्रमुख ऐतिहासिक निर्णय :

    • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) : अनुच्छेद 21 में सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है।
    • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) : जीवन के अधिकार की व्याख्या का विस्तार किया गया।

5. बलात् श्रम का प्रतिषेध (अनुच्छेद 23):

अदालत ने फैसला सुनाया कि हाशिए पर पड़े कैदियों को निम्नस्तरीय काम करने के लिए मजबूर करना तथा उच्च जाति के कैदियों को अधिक " सम्मानजनक " काम करने की अनुमति देना, जबरन श्रम के बराबर है, जो अनुच्छेद 23 के तहत निषिद्ध है। जबरन श्रम में हमेशा शारीरिक मजबूरी शामिल नही होती है,यह सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों के शोषण का परिणाम भी हो सकता है।

 

अन्य देशों में जेल सुधार : तुलनात्मक विश्लेषण

भारत के जेल सुधारों को वैश्विक संदर्भ में देखने के लिए, यह देखना उचित होगा कि अन्य देश जेल श्रम और भेदभाव से कैसे निपटते हैं:

  • संयुक्त राज्य अमेरिका : अमेरिका में जेलों में नस्लीय और जातीय भेदभाव एक महत्वपूर्ण समस्या बनी हुई है, खासकर जेल श्रम से संबंधित मामलों में। 13वां संशोधन संविधान के तहत अपराध के लिए सजा के रूप में अनैच्छिक दासता की अनुमति देता है, जिसके कारण अफ्रीकी अमेरिकियों पर इसके असंगत प्रभाव की व्यापक आलोचना की जा रही है।
  • संयुक्त राष्ट्र : कैदियों के उपचार के लिए संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम (नेल्सन मंडेला नियम) पुनर्वास और सम्मान पर ध्यान केंद्रित करते हुए कैदियों के साथ गैर-भेदभाव और न्यायसंगत व्यवहार पर जोर देते हैं।

 

भारत में सुधारात्मक न्याय और जेल सुधार

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सुधारात्मक न्याय के व्यापक दर्शन को दर्शाता है, जो केवल कैदियों को दंडित करने के बजाय उनके पुनर्वास का प्रयास करता है। यह निर्णय भारत की जेल प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तनों का मार्ग प्रशस्त करता है:

  • मॉडल जेल मैनुअल 2016 : कैदियों के पुनर्वास, कौशल निर्माण और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर केंद्रित है।
  • आदर्श कारागार एवं सुधार सेवाएं अधिनियम, 2023 : आदर्श कारागार एवं सुधार सेवाएं अधिनियम, 2023 जेल सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है, जो जेल कार्य के समान वितरण की आवश्यकता पर जोर देता है। यह अधिनियम यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है कि किसी भी समुदाय को जाति-आधारित भेदभाव का सामना न करना पड़े।

निष्कर्ष:

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारत की जेल प्रणाली में जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। समानता, सम्मान और गैर-भेदभाव के संवैधानिक मूल्यों को कायम रखते हुए न्यायालय ने सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता फिर से दर्शायी है।

 

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:

विमुक्त जनजातियों (डीएनटी) को औपनिवेशिक कानूनों के तहत ऐतिहासिक रूप से कलंक का सामना करना पड़ा है। चर्चा करें कि सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भारतीय जेलों में विमुक्त जनजातियों (डीएनटी) द्वारा सामना किए जा रहे भेदभाव को कैसे संबोधित करता है। (250 शब्द)