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Daily-current-affairs / 05 Sep 2024

अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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संदर्भ

भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1 अगस्त, 2024 को पंजाब राज्य और अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य मामले में दिया गया निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में, विशेष रूप से सामाजिक न्याय के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण विकास को दर्शाता है। यह निर्णय संवैधानिक साधनों के माध्यम से सामाजिक न्यायशास्त्र पर जोर देता है। इसका उद्देश्य दलितों के बीच सबसे उपेक्षित और हाशिए पर पड़े समूहों तक सामाजिक न्याय पहुंचाना है। आरक्षण के उप-वर्गीकरण की अवधारणा बी.आर. अंबेडकर के अनुसूचित जातियों (एससी) के बीच भाईचारे और आपसी सम्मान के आदर्शों के अनुरूप है। हालाँकि, वर्ण व्यवस्था और क्रीमी लेयर पर निर्णय की व्यापक टिप्पणी को अत्यधिक और अनुचित माना जा सकता है।

अवलोकन(overview)

  • अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ भारत की जनसंख्या का क्रमशः लगभग 16.6% और 8.6% हिस्सा हैं। (2011 की जनगणना के अनुसार)
  • संविधान (अनुसूचित जातियाँ) आदेश, 1950 में 28 राज्यों की 1,108 जातियों को सूचीबद्ध किया गया है
  • अखिल भारतीय आधार पर खुली प्रतियोगिता द्वारा सीधी भर्ती के मामले में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों को क्रमशः 15%, 7.5% और 27% की दर से आरक्षण दिया जाता है।
  • .वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2004 .वी. चिन्नैया के फैसले में कहा गया कि अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि अनुसूचित जाति एक समरूप समूह है।

सामाजिक न्याय और अंबेडकर

  • बी.आर. अंबेडकर का आजीवन संघर्ष: अंबेडकर ने अपना जीवन सबसे अधिक उत्पीड़ित समूहों, विशेष रूप से पिछड़ों एवं अछूतों के लिए सामाजिक और नागरिक न्याय प्राप्त कराने के लिए समर्पित कर दिया था। अपने प्रयासों के बावजूद, उन्हें हिंदू जाति व्यवस्था से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।
  • आंतरिक जाति विभाजन: अंबेडकर ने विभिन्न जातियों की अलग-अलग सामाजिक स्थिति पर जोर दिया और जाति पदानुक्रम के भीतर आंतरिक विभाजन को उजागर किया। 1944 की एक अखबार की रिपोर्ट में अस्पृश्यता के उन्मूलन की वकालत करते हुए अनुसूचित जातियों से उनके आंतरिक विभाजन को संबोधित करने का उनका आह्वान दर्ज किया गया था।
  • सामाजिक न्याय के लिए व्यावहारिक उपाय: अंबेडकर की सक्रियता सिद्धांत से परे थी। उन्होंने दलितों के खिलाफ अनुष्ठान भेदभाव का मुकाबला करने के लिए महाड सत्याग्रह और कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया। ब्राह्मणवादी ताकतों के लगातार विरोध के बावजूद, न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अडिग थी।
  • श्रेणीबद्ध असमानता: मराठावाड़ा में दलितों के भोजन पर अपनी पुस्तक में शाहू पटोले ने विभिन्न जातियों के बीच भेदभाव की अलग-अलग डिग्री का उल्लेख किया है। उनके अवलोकन जाति व्यवस्था के भीतर श्रेणीबद्ध असमानता के अंबेडकर के दावे के अनुरूप हैं।

अनेक चुनौतियाँ

  • कार्यान्वयन संबंधी चिंताएँ: सर्वोच्च न्यायालय के उप-वर्गीकरण के निर्णय को अभी भी कई राज्यों में लागू किया जाना है। लेकिन इसे कुछ दलित समुदायों की आलोचना का सामना करना पड़ा है।
  • प्रशासनिक जटिलता: उप-श्रेणियों को विकसित करने और प्रबंधित करने के लिए व्यापक डेटा संग्रह, वर्गीकरण और प्रशासनिक समन्वय की आवश्यकता होती है। जो बोझिल हो सकता है और इसमें देरी हो सकती है।
  • नौकरशाही बाधाएँ: उप-वर्गीकरण के लिए एक स्पष्ट और प्रभावी प्रणाली स्थापित करने में जटिल नौकरशाही प्रक्रियाओं को नेविगेट करना शामिल है।जो अकुशलता और धीमी गति से कार्यान्वयन का कारण बन सकता है।
  • संसाधन आवंटन: विभिन्न उप-श्रेणियों के बीच लाभों का समान वितरण सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। संसाधनों को निष्पक्ष रूप से आवंटित करने और सभी उप-समूहों की आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित करने में कठिनाइयाँ हो सकती हैं।
  •  श्रेणियों को परिभाषित करना: एससी समुदाय के भीतर विभिन्न उप-श्रेणियों को सटीक रूप से परिभाषित करना और उनके बीच अंतर करना विवादास्पद हो सकता है। वर्गीकरण मानदंडों पर भी विवाद पैदा कर सकता है।

विखंडन का भय: दलितों के प्रमुख वर्गों को भय है कि उप-वर्गीकरण से दलित निर्वाचन क्षेत्र विखंडित होकर उनका राजनीतिक प्रभाव कम हो सकता है और सामूहिक दलित आंदोलन कमजोर हो सकता है।

  • हितधारकों से प्रतिरोध: अनुसूचित जाति समुदाय के भीतर और अन्य राजनीतिक या सामाजिक समूहों के बीच प्रतिरोध हो सकता है। खासकर यदि वे परिवर्तनों को नुकसानदेह या विघटनकारी मानते हैं।
  •  अंतर-समुदाय संघर्ष: उप-वर्गीकरण अनुसूचित जाति समुदाय के भीतर आंतरिक विभाजन को बढ़ा सकता है। जिससे संसाधनों और मान्यता को लेकर विभिन्न उप-समूहों के बीच संघर्ष हो सकता है।

एकीकृत आंदोलन की गलत धारणा: यह आलोचना एकल, एकीकृत दलित आंदोलन की कल्पना करती है। जबकि समाजशास्त्रीय विवरण दलित राजनीति और आंदोलनों के विविध पहलुओं को प्रकट करते हैं।

अंबेडकरवादी चेतना: आलोचक अंबेडकरवादी चेतना को नजरअंदाज करते हैं जो विभिन्न दलित आंदोलनों का आधार है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में मादिगा डंडोरा आंदोलन और मांग जाति की लामबंदी। जो अन्य नेताओं के साथ अंबेडकर की छवि को प्रदर्शित करती है एवं सामाजिक न्याय के लिए साझा प्रतिबद्धता दिखाती है।

भारत बंद का प्रभाव: उत्तर भारत में कुछ दलित समूहों द्वारा आयोजित भारत बंद की आलोचना की गई थी। क्योंकि इससे दलित जातियों की सामूहिक पहचान और लामबंदी को नुकसान पहुंचने की संभावना थी।

क्षेत्रीय मतभेद: उप-वर्गीकरण के प्रति प्रतिक्रिया क्षेत्रों के बीच भिन्न होती है। दक्षिण भारत में, अधिकांश दलित संगठन उप-वर्गीकरण का समर्थन करते हैं। जबकि उत्तर भारत में इसकी आलोचना अधिक होती है।

सामाजिक संरचनाओं की गलतफहमी: विभाजन के बारे में उत्तर भारतीय दलित संगठनों की चिंता दलितों के बीच मौजूदा सामाजिक संरचनाओं की गलतफहमी को दर्शाती है। उप-वर्गीकरण को अपनाने से जाति-स्तर के मुद्दों को संबोधित करके और एससी सामूहिक पहचान को मजबूत करके सामाजिक न्याय को बढ़ाया जा सकता है।

अंबेडकरीकरण और प्रतिनिधित्व: उप-वर्गीकरण समान प्रतिनिधित्व के अंबेडकरवादी आदर्श के अनुरूप है। जिसकी वकालत मान्यवर कांशीराम जैसे नेताओं ने की थी। जिन्होंने संख्यात्मक शक्ति के अनुपात में प्रतिनिधित्व का समर्थन किया था।  (जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी)

फैसले के सकारात्मक पहलू

  • हाशिये पर पड़े लोगों के संघर्षों का सम्मान: अनुसूचित जाति के अग्रणी वर्गों को वाल्मीकि, मुसहर, मदीगा और अरुणथियार जैसे हाशिये पर पड़े समुदायों के संघर्षों को खारिज करने के बजाय उनके अथक प्रयासों को स्वीकार करना चाहिए।
  • सक्रियता के प्रतिबिंब के रूप में निर्णय: उप-वर्गीकरण निर्णय वर्षों से जमीनी स्तर पर सक्रियता और उप-वर्गीकरण की मांगों को दर्शाता है। जिसका उदाहरण मदीगा आरक्षण पोराटा समिति (एमआरपीएस) और विभिन्न सामुदायिक आंदोलनों जैसे संगठनों द्वारा दिया गया है।
  • उप-वर्गीकरण की ऐतिहासिक सफलता: ऐतिहासिक उदाहरण, जैसे कि 2004 के चिन्नैया निर्णय से पहले पंजाब और हरियाणा में उप-वर्गीकरण का सफल कार्यान्वयन, यह दर्शाता है कि ऐसे उपाय प्रभावी हो सकते हैं।
  •  विविधता की स्वीकृति: निर्णय स्वीकार करता है कि अनुसूचित जाति श्रेणी समरूप नहीं है। बल्कि इसमें अलग-अलग जातियाँ हैं जिनकी ज़रूरतें और चुनौतियाँ अलग-अलग हैं। जो जाति अनिवार्यता की धारणा को चुनौती देती हैं।
  • समाजशास्त्रीय वास्तविकताओं की मान्यता: यह निर्णय अनुसूचित जाति समुदाय की आंतरिक विविधता और प्रत्येक समूह की सूक्ष्म आवश्यकताओं को संबोधित करने की आवश्यकता को मान्यता देता है। जो एकल, समरूप अनुसूचित जाति श्रेणी के विचार का प्रतिकार करता है।
  • बढ़े हुए सामाजिक न्याय की संभावना: निर्णय को अपनाने से सामाजिक न्याय में वृद्धि हो सकती है और सभी दलित जातियों के समान प्रतिनिधित्व को बढ़ावा मिल सकता है। जो अंबेडकर के भाईचारे और समावेशन के दृष्टिकोण के अनुरूप है।
  • राजनीतिक शोषण को रोकना: अंबेडकरवादी आंदोलन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीतिक दल अपने लाभ के लिए निर्णय का शोषण करें। जबकि क्रीमी लेयर मुद्दे को गंभीरता से संबोधित किया जाना चाहिए।
  • आरक्षण से परे फोकस को व्यापक बनाना: आंदोलन को निजी क्षेत्र में आरक्षण नीतियों के विस्तार की वकालत करनी चाहिए। सभी दलित समुदायों के लिए प्रतिनिधित्व को आगे बढ़ाने और भौतिक लाभों को सुरक्षित करने के लिए भूमि पुनर्वितरण को आगे बढ़ाना चाहिए।

निष्कर्ष

अनुसूचित जातियों (एससी) के उप-वर्गीकरण का उद्देश्य एससी श्रेणी के भीतर विभिन्न उप-समूहों की विविध आवश्यकताओं को पहचानकर अंतर-समुदाय असमानताओं को दूर करना है। जबकि इसमें लक्षित समर्थन और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की क्षमता है। यह महत्वपूर्ण चुनौतियों का भी सामना करता है। इनमें प्रशासनिक जटिलता, आंतरिक संघर्ष की संभावना, संसाधन आवंटन के मुद्दे और कानूनी बाधाएं शामिल हैं। उप-वर्गीकरण की सफलता सावधानीपूर्वक कार्यान्वयन, समान संसाधन वितरण और मजबूत तंत्र पर निर्भर करती है। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह मौजूदा विभाजन को बढ़ाए बिना सभी उप-समूहों की जरूरतों को पूरा करता है। अंततः, उप-वर्गीकरण को एकता और समावेशिता को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करते हुए देखा जाना चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि लाभ एससी समुदाय के भीतर हाशिए पर पड़े समुदाय तक भी पहुँचें। आरक्षण के उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का 1 अगस्त, 2024 का फैसला सामाजिक न्याय के लिए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण को दर्शाता है। जिसका उद्देश्य एससी समुदाय के भीतर अभाव और भेदभाव के विभिन्न स्तरों को संबोधित करना है। इस निर्णय को अंबेडकर के सामाजिक न्याय सिद्धांतों के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। जिसमें विभिन्न जातियों की विविध समाजशास्त्रीय वास्तविकताओं को स्वीकार किया गया है तथा अनुसूचित जाति समुदाय के भीतर असमानता को कम करने का भी प्रयास किया गया है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न-

1.    भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) के उप-वर्गीकरण के पीछे के तर्क पर चर्चा करें। इस नीति का उद्देश्य अंतर-समुदाय असमानताओं को कैसे दूर करना है? (150 शब्द)

2.   सामाजिक न्याय और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व के संदर्भ में अनुसूचित जातियों (एससी) के उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रभाव का मूल्यांकन करें। प्रभावी कार्यान्वयन के लिए मुख्य विचार क्या हैं? (250 शब्द)

स्रोत: हिन्दू