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Daily-current-affairs / 13 Jan 2025

संशोधित अभिगम्यता (Accessibility) दिशानिर्देश: भारत में समावेशी शासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम

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सन्दर्भ:

हाल ही में राजीव रतूरी बनाम भारत संघ (2024) के ऐतिहासिक मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देश में दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) के लिए अभिगम्यता मानकों के संबंध में एक परिवर्तनकारी निर्णय दिया। निर्णय में न्यायालय ने सभी क्षेत्रों में एकरूप, अनिवार्य अभिगम्यता मानकों की आवश्यकता पर जोर दिया तथा सरकार से सभी सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में न्यूनतम अभिगम्यता दिशानिर्देशों को लागू करने का आग्रह किया।

भारत में दिव्यांग व्यक्तियों की वर्तमान स्थिति:

·        2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 2.68 करोड़ दिव्यांग व्यक्ति हैं, जो कुल जनसंख्या का 2.21% हैं। इन व्यक्तियों को दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत 21 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लोकोमोटर विकलांगता, दृष्टिहीनता, श्रवण बाधितता, वाणी और भाषा विकलांगता, बौद्धिक विकलांगता, बहु विकलांगता, सेरेब्रल पाल्सी और बौनापन आदि शामिल हैं।

·        जनसंख्या के एक महत्वपूर्ण हिस्से का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद, भारत में दिव्यांग व्यक्ति सामाजिक, बुनियादी ढांचागत और अभिव्यक्तिगत बाधाओं का सामना करते हैं। ये चुनौतियां कई लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में पूरी तरह से भाग लेने से रोकती हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए व्यापक कानूनी और व्यवहारिक सुधारों को लागू करना अब बेहद जरूरी हो गया है।

दिव्यांगता अधिकारों के मॉडल:

दिव्यांगता अधिकार मॉडल वे विचारधाराएँ हैं जो बताती हैं कि समाज को दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए। ये मॉडल समय के साथ विकसित हुए हैं और समाज में दिव्यांगता के बारे में लोगों की सोच को प्रभावित करते हैं। ये मॉडल विकलांगता के विभिन्न पहलुओं और समावेशी वातावरण बनाने में समाज की भूमिका पर जोर देते हैं।

  • चिकित्सा मॉडल: विकलांगता का चिकित्सा मॉडल विकलांगता को एक व्यक्तिगत मुद्दा मानता है जिसे चिकित्सा हस्तक्षेप और पुनर्वास के माध्यम से संबोधित करने की आवश्यकता है। इस मॉडल में, जिम्मेदारी मुख्य रूप से व्यक्ति पर होती है कि वह अपनी विकलांगता से उत्पन्न चुनौतियों को दूर करे।
  • सामाजिक मॉडल: सामाजिक मॉडल फोकस को व्यक्ति से समाज की ओर स्थानांतरित करता है। यह मानता है कि विकलांगता सामाजिक बाधाओं से उत्पन्न होती है, जैसे कि दुर्गम बुनियादी ढांचा और भेदभावपूर्ण रवैये, जो दिव्यांग व्यक्तियों  को समाज में पूरी तरह से भाग लेने से रोकते हैं। यह मॉडल समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए इन बाधाओं को दूर करने की वकालत करता है।
  • मानवाधिकार मॉडल : मानवाधिकार मॉडल दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) के अधिकारों को एक मौलिक मानवाधिकार के रूप में देखता है। यह मॉडल इस बात पर जोर देता है कि सभी व्यक्तियों को, चाहे वे किसी भी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त हों, समान अधिकार और अवसर प्राप्त होने चाहिए। यह मॉडल दिव्यांग व्यक्तियों को समाज के सभी क्षेत्रों में पूरी तरह से शामिल करने पर बल देता है।

राजीव रतूरी बनाम भारत संघ का मामला मानवाधिकार मॉडल के अनुरूप एक महत्वपूर्ण निर्णय है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह स्पष्ट किया है कि सरकार और निजी संस्थाएँ दोनों को दिव्यांग व्यक्तियों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।

 

भारत में दिव्यांगता अधिकार प्रदान करने वाले कानून :

  • दिव्यांगजन अधिनियम, 2016: 1995 के अधिनियम का स्थान लेते हुए, 2016 का दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों का आधारशिला है। यह अधिनियम दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान करने और उन्हें समाज के सभी क्षेत्रों में पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया है। अधिनियम सार्वजनिक और निजी संस्थानों के लिए यह अनिवार्य करता है कि वे अभिगम्यता मानकों का पालन करें और दिव्यांग व्यक्तियों को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक सेवाओं तक समान पहुंच प्रदान करें।
  • राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999: राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999, ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु विकलांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण पर केंद्रित है। यह एक राष्ट्रीय निकाय स्थापित करता है जोकि PwDs के परिवारों और देखभाल करने वालों को समर्थन और संसाधन प्रदान करता है, समाज में उनके समावेश को बढ़ावा देता है।
  • भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992: यह अधिनियम विकलांगता पुनर्वास में काम करने वाले पेशेवरों के प्रशिक्षण और प्रमाणन को विनियमित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में PwDs का समर्थन करने के लिए योग्य कर्मचारी उपलब्ध हों, जिससे उन्हें अधिक स्वतंत्र और पूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाया जा सके।
  • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017: मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017, मानसिक बीमारी वाले व्यक्तियों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा करता है। यह सामुदायिक आधारित देखभाल को बढ़ावा देता है, जिसका उद्देश्य कलंक को खत्म करना और यह सुनिश्चित करना है कि मानसिक बीमारी वाले व्यक्तियों को कम से कम प्रतिबंधात्मक वातावरण में देखभाल प्राप्त हो।

सर्वोच्च न्यायालय की रूपरेखा और इसके निहितार्थ :

राजीव रतूरी बनाम भारत संघ का मामला भारत में दिव्यांग अधिकारों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विकास है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में सभी सार्वजनिक और निजी स्थानों पर दिव्यांग व्यक्तियों के लिए समान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य और एकरूप अभिगम्यता मानकों को लागू करने का आदेश दिया है। यह फैसला दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर और सेवाएं प्रदान करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। न्यायालय ने RPwD (Rights of Persons with Disabilities)  नियम, 2017 के नियम 15 को रद्द करके यह स्पष्ट कर दिया है कि अभिगम्यता एक विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक मौलिक अधिकार है

निर्णय से प्रमुख निष्कर्ष:

  • अनिवार्य अभिगम्यता मानक: निर्णय सभी क्षेत्रों में कानूनी रूप से बाध्यकारी अभिगम्यता मानकों का आह्वान करता है, जो एकरूपता सुनिश्चित करता है और अभिगम्यता कार्यान्वयन में अस्पष्टता को समाप्त करता है। इस कदम का उद्देश्य अभिगम्यता में क्षेत्रीय और क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना है।
  • कार्यान्वयन की समय सीमा: न्यायालय ने सरकार को तीन महीने के भीतर अनिवार्य अभिगम्यता दिशानिर्देशों का एक नया सेट तैयार करने का निर्देश दिया, यह सुनिश्चित करते हुए कि अभिगम्यता उपायों को शीघ्रता से और प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
  • अभिगम्यता का समग्र दृष्टिकोण: निर्णय अभिगम्यता की विकसित प्रकृति को मान्यता देता है, इसकी परिभाषा का विस्तार करके इसमें भौतिक और डिजिटल दोनों प्रकार की पहुंच शामिल की जाती है। यह सुनिश्चित करता है कि PwDs तकनीकी प्रगति से बाहर नहीं रखे जाते हैं और एक डिजिटल समाज में पूरी तरह से भाग ले सकते हैं।

अभिगम्यता का विकास:

अभिगम्यता अब केवल भौतिक बुनियादी ढांचे तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक अवधारणा में विकसित हुई है जो विभिन्न बाधाओं - भौतिक और डिजिटल दोनों को संबोधित करती है। प्रौद्योगिकी पर बढ़ती निर्भरता और डिजिटल स्पेस में समावेशिता की आवश्यकता ने डिजिटल अभिगम्यता पर ध्यान केंद्रित किया है।

  • भौतिक अभिगम्यता: परंपरागत रूप से, अभिगम्यता का तात्पर्य पर्यावरण में भौतिक बाधाओं को दूर करने से था, जैसे कि रैंप, लिफ्ट और चौड़े दरवाजे।
  • डिजिटल अभिगम्यता: डिजिटल युग के आगमन के साथ, वेबसाइटों और मोबाइल एप्लिकेशनों जैसे सुलभ डिजिटल प्लेटफार्मों की बढ़ती मांग है। एआई और IoT के दैनिक जीवन में एकीकरण का अर्थ है कि अभिगम्यता मानकों को अब डिजिटल वातावरण तक बढ़ाना होगा, यह सुनिश्चित करना होगा कि PwDs आसानी से सूचना, सेवाओं और तकनीक तक पहुंच सकते हैं।

आगे की राह:

  • दिशानिर्देशों का सरलीकरण: मौजूदा अभिगम्यता दिशानिर्देश अक्सर जटिल और नेविगेट करने में कठिन होते हैं। इन दिशानिर्देशों को सरल बनाना और मानकीकृत करना सार्वजनिक और निजी संस्थानों के लिए अभिगम्यता मानकों का पालन करना आसान बना देगा।
  • पर्यवेक्षण के लिए केंद्रीकृत प्राधिकरण: समाज कल्याण और अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत एक केंद्रीय अभिगम्यता प्राधिकरण का गठन किया जाना चाहिए। यह प्राधिकरण अभिगम्यता मानकों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार होगा। यह निकाय केवल विभिन्न क्षेत्रों में अभिगम्यता सुनिश्चित करेगा बल्कि सर्वोत्तम प्रथाओं को स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी: सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों को अभिगम्यता सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। जबकि सरकार विधायी ढांचा निर्धारित करने के लिए जिम्मेदार है, निजी क्षेत्र की संस्थाओं को अपने उत्पादों और सेवाओं को PwDs के लिए सुलभ बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • शिक्षा और जागरूकता:  समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए, हमें विकलांगता के प्रति अपने समाज के नजरिए में बदलाव लाना होगा। सार्वजनिक शिक्षा और जागरूकता अभियान विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में गलत धारणाओं को दूर करने और उन्हें अधिक स्वीकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  • प्रौद्योगिकी और नवाचार: प्रौद्योगिकी के तेजी से विकास का उपयोग सभी के लिए डिजिटल दुनिया को अधिक सुलभ बनाने के लिए किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म, सार्वजनिक सेवाएं और रोजमर्रा के उपकरण ऐसे बनाए जाएं कि उनका उपयोग दिव्यांगजन सहित सभी लोग आसानी से कर सकें।

 

मुख्य प्रश्न: भारत में दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करें, शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं तक उनकी पहुंच में आने वाली बाधाओं को उजागर करें। इन चुनौतियों को दूर करने में विधायी उपाय क्या भूमिका निभाते हैं?