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Daily-current-affairs / 26 Mar 2025

भारतीय संसदीय लोकतंत्र में राज्य सभा : भूमिका, प्रासंगिकता और चुनौतियाँ

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सन्दर्भ:

1952 में अपनी स्थापना के बाद से, राज्यसभा राज्यों के लिए एक प्रतिनिधि निकाय के रूप में कार्य कर रही है और समय-समय पर संस्थागत सुधारों पर विचार-विमर्श करती रही है। यह भारत की द्विसदनीय संसदीय प्रणाली का एक अहम हिस्सा है, जिसे विधायी प्रक्रियाओं की गहन समीक्षा और लोकसभा के लिए एक संतुलन प्रदान करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। हालांकि, इसकी भूमिका और प्रासंगिकता को लेकर अक्सर बहस होती रही है। आलोचकों का मानना है कि इसमें प्रत्यक्ष जवाबदेही की कमी है और यह कभी-कभी विधायी प्रक्रियाओं में बाधा डालने वाले निकाय की तरह काम करता है। इसके अतिरिक्त, इसे राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किए जाने की आशंका भी बनी रहती है, जिससे इसकी निष्पक्षता और प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं। वहीं, समर्थकों का तर्क है कि यह बहुसंख्यकवाद को रोकने, शासन में स्थिरता बनाए रखने और विधायी निर्णयों को अधिक संतुलित बनाने में अहम भूमिका निभाता है।

  • संवैधानिक महत्व के बावजूद, कई चुनौतियाँ इसकी प्रभावशीलता को कमजोर कर रही हैं। नामांकन प्रक्रिया का राजनीतिकरण, निवास की शर्तों का कमजोर होना और धन विधेयकों के बढ़ते उपयोग के कारण राज्यसभा की भूमिका सीमित होती जा रही है। इसके अतिरिक्त, बार-बार होने वाले व्यवधान और घटती उत्पादकता ने भी इसकी छवि को प्रभावित किया है, जिससे इसकी कार्यक्षमता को लेकर सवाल उठने लगे हैं। इन चुनौतियों के बावजूद, राज्यसभा भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बनी हुई है। यदि इसे और अधिक उत्तरदायी और प्रभावी बनाया जाए तथा आवश्यक सुधार लागू किए जाएँ, तो यह विधायी प्रक्रिया को अधिक संतुलित और मजबूत बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है।

राज्यसभा के संवैधानिक प्रावधान और शक्तियाँ:

1. सदस्यता और कार्यकाल

लोकसभा के विपरीत, जो हर पाँच साल में भंग हो जाती है, राज्यसभा एक स्थायी संस्था है। इसके एक-तिहाई सदस्य हर दो साल में सेवानिवृत्त होते हैं, जिससे सदन में निरंतरता बनी रहती है।

संघटन:

    238 निर्वाचित सदस्यराज्य विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं।

    12 मनोनीत सदस्यराष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला या सामाजिक सेवा में विशेष योगदान देने वाले व्यक्तियों में से नियुक्त किए जाते हैं।

    कुल सदस्य संख्या: 250 (संविधान में अधिकतम सीमा), परंतु वर्तमान में 245 सदस्य हैं।

2. विधायी भूमिका और शक्तियाँ:

    साधारण विधेयक: राज्यसभा को लोकसभा के समान अधिकार प्राप्त हैं, और कानून पारित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

    धन विधेयक (अनुच्छेद 110): राज्यसभा केवल संशोधन का सुझाव दे सकती है, लेकिन लोकसभा को इन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

    बजट एवं वित्तीय विधेयक: राज्यसभा केंद्रीय बजट में संशोधन नहीं कर सकती।

    अविश्वास प्रस्ताव (अनुच्छेद 75(3)): सरकार केवल लोकसभा के प्रति जवाबदेह होती है, कि राज्यसभा के प्रति।

    संवैधानिक संशोधन (अनुच्छेद 368): संविधान में संशोधन करने के लिए दोनों सदनों में विशेष बहुमत से विधेयक पारित किया जाना आवश्यक होता है।

3. राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ:

राज्य सूची के विषयों पर विधायन (अनुच्छेद 249):

    यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करती है, तो संसद को राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।

अब तक केवल दो बार प्रयोग किया गया:

    1952: संसद को आवश्यक वस्तुओं का विनियमन करने की अनुमति दी गई।

    1986: संसद को व्यावसायिक शिक्षा को विनियमित करने की अनुमति दी गई।

अखिल भारतीय सेवाओं का गठन (अनुच्छेद 312):

    राज्यसभा की सिफारिश पर संसद अखिल भारतीय सेवाएँ बना सकती है। इसके तहत भारतीय वन सेवा, भारतीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा, और भारतीय इंजीनियरिंग सेवा जैसी सेवाओं का गठन किया गया।

राज्यसभा के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ:

उम्मीदवार चयन को लेकर चिंताएं :

    राज्यसभा की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक यह है कि उम्मीदवारों का चयन किस प्रकार किया जाता है। सुयोग्य और सक्षम सदस्यों को सुनिश्चित करने के लिए ठोस संस्थागत मानदंडों की कमी के कारण राजनीतिक दल अक्सर विधायी योग्यता के बजाय वित्तीय शक्ति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करते हैं।

राज्यसभा सदस्यता से जुड़े प्रमुख आँकड़े (2024):

    36% राज्यसभा सदस्यों का आपराधिक रिकॉर्ड रहा है।

    87% सदस्य करोड़पति हैं, जिनकी संपत्ति ₹1 करोड़ से अधिक है।

    12% सदस्य अरबपति हैं, जिनमें रियल एस्टेट और खनन उद्योग के प्रभावशाली लोग शामिल हैं।

यह प्रवृत्ति इस चिंता को जन्म देती है कि राजनीतिक फंडिंग के बदले में राज्यसभा सीटों को "नीलाम" किया जा रहा है, जिससे इसकी निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं।

मनोनीत सदस्यों का राजनीतिकरण:

    संविधान के अनुच्छेद 80(3) के तहत, राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला या समाज सेवा में विशेषज्ञता रखने वाले 12 सदस्यों को नामांकित करने का प्रावधान है। इसका उद्देश्य विधायिका में विविधता लाना था।

    हालाँकि, हाल के वर्षों में इस प्रक्रिया का राजनीतिकरण बढ़ गया है। अब नामांकित सदस्य अपने चयन के तुरंत बाद सत्तारूढ़ दलों के साथ घनिष्ठ संबंध बना लेते हैं, जिससे इस प्रावधान की मूल भावना कमजोर पड़ गई है।

अधिवास नियमों का कमजोर होना और संघवाद पर इसका प्रभाव:

    राज्यसभा का गठन राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया गया था, ताकि इसके सदस्य उन राज्यों से गहरा संबंध रखते हों जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।

    हालाँकि, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में 2003 के संशोधन के बाद, राज्यसभा सदस्य बनने के लिए उस राज्य में निवास करने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई।

निवास संबंधी आवश्यकताओं को हटाने का प्रभाव:

        अब राज्यसभा सदस्यों के लिए उस राज्य में निवास करना आवश्यक नहीं रहा, जिसका वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

        2019 में 41 राज्यसभा सदस्य ऐसे थे जो अपने प्रतिनिधित्व वाले राज्य में नहीं रहते थे।

        राजनीतिक दलों ने इस प्रावधान का उपयोग हारने वाले लोकसभा उम्मीदवारों या पार्टी के वफादारों को राज्यसभा में भेजने के लिए किया, जिससे वे राज्य के बजाय पार्टी हितों को प्राथमिकता देने लगे।

न्यायिक हस्तक्षेप और कुलदीप नायर केस (2006)

    कुलदीप नायर बनाम भारत संघ (2006) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि राज्यसभा के लिए निवास की अनिवार्यता आवश्यक नहीं है।

    न्यायालय ने तर्क दिया कि राज्यसभा गरिमापूर्ण बहस के लिए एक मंच है, कि केवल राज्यों के प्रतिनिधित्व तक सीमित।

    हालाँकि, आलोचकों का कहना है कि बाहरी (अनिवासी) सदस्य राज्य के हितों का प्रभावी प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते, जिससे भारत की संघीय व्यवस्था कमजोर होती है।

वित्तीय कानून बनाने में राज्य सभा की सीमित भूमिका:

राज्यसभा की सबसे बड़ी संरचनात्मक कमजोरियों में से एक वित्तीय कानून बनाने में राज्यसभा की सीमित भूमिका है।

संवैधानिक प्रावधान:

        अनुच्छेद 110 के अनुसार धन विधेयक वह विधेयक है जो विशेष रूप से कराधान, उधार या सरकारी व्यय से संबंधित होता है।

        अनुच्छेद 109: लोकसभा को धन विधेयक पर विशेष अधिकार प्राप्त हैं।राज्यसभा केवल संशोधनों की सिफारिश कर सकती है। लोकसभा को इन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यदि लोकसभा चाहे तो सीधे राज्यसभा की सिफारिशों को अस्वीकार कर सकती है।

धन विधेयक का दुरुपयोग:

सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह राज्यसभा में चर्चा और जांच से बचने के लिए धन विधेयक मार्ग का दुरुपयोग कर रही है, विशेष रूप से तब, जब सरकार के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं होता। उदाहरण के तौर पर:

    आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी का लक्षित वितरण) विधेयक, 2017

    वित्त विधेयक 2018

संवैधानिक स्थिति:

    लोकसभा अध्यक्ष के पास यह तय करने का अंतिम अधिकार है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं।

    सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि अध्यक्ष के इस फैसले को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन अब तक कोई भी निर्णय ऐसे किसी धन विधेयक के वर्गीकरण को रद्द नहीं कर पाया है।

दलबदल विरोधी कानून और राज्यसभा की स्वतंत्रता पर इसका प्रभाव

    1985 में लागू किए गए दलबदल विरोधी कानून का उद्देश्य अनैतिक दल-बदल को रोकना था। इस कानून ने राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन राज्यसभा में इसकी प्रासंगिकता को लेकर विवाद बना हुआ है।

राज्यसभा के लिए दलबदल विरोधी कानून समस्याजनक क्यों है?

    लोकसभा बनाम राज्यसभा: लोकसभा के विपरीत, राज्यसभा सरकार की स्थिरता का निर्धारण नहीं करती है।

    स्वतंत्र विधिनिर्माण की बाधा: उच्च सदन के सांसदों से स्वतंत्र रूप से विधि निर्माण करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन यह कानून उन्हें पार्टी लाइन के अनुसार मतदान करने के लिए बाध्य करता है, जिससे कानूनों की निष्पक्ष और स्वतंत्र समीक्षा करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है

प्रस्तावित सुधार:

    संशोधन की आवश्यकता: दलबदल विरोधी कानून में संशोधन किया जाए ताकि राज्यसभा के सदस्य केवल अविश्वास प्रस्ताव या वित्त विधेयक पर ही पार्टी अनुशासन से बंधे हों।

    स्वतंत्र निर्णय लेने की व्यवस्था: राज्यसभा को अधिक स्वतंत्र निर्णय लेने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि वह प्रभावी रूप से अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन कर सके।

आगे की राह:

1.   निवास संबंधी आवश्यकता को बहाल करना : सांसदों के लिए यह अनिवार्य करना कि वे जिस राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी राज्य के निवासी हों।

2.   सदस्यता नियमों में संशोधन : नियमों में बदलाव कर यह सुनिश्चित किया जाए कि कम से कम 50% राज्यसभा सदस्य विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ हों और केवल करियर राजनेता हों।

3.   धन विधेयक में राज्यसभा की भूमिका: धन विधेयकों की समीक्षा में राज्यसभा की भूमिका सुनिश्चित करने के लिए अनुच्छेद 110 में संशोधन किया जाए।

4.   प्रतिनिधित्व में सुधार : सभी राज्यों के लिए समान प्रतिनिधित्व की नीति अपनाई जाए ताकि अधिक जनसंख्या वाले राज्यों का अत्यधिक प्रभुत्व हो।

5.   दलबदल विरोधी कानून में संशोधन: राज्यसभा सदस्यों को मतदान में अधिक स्वतंत्रता दी जाए ताकि वे बिना किसी दबाव के अपनी भूमिका निभा सकें।

 

मुख्य प्रश्न : राज्यसभा की परिकल्पना संघीय संतुलन बनाए रखने वाले एक संस्थान के रूप में की गई थी, लेकिन समय के साथ इसकी भूमिका कमजोर होती गई है।राज्यसभा की प्रभावशीलता में आई गिरावट के कारणों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें और भारत के संसदीय लोकतंत्र में इसकी भूमिका को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक सुधार सुझाएँ।