सन्दर्भ: भारतीय न्यायपालिका वर्षों से लंबित मामलों की भारी समस्या से जूझ रही है। वर्तमान में, विभिन्न स्तरों की अदालतों में 50 मिलियन से अधिक मामले लंबित हैं, जिससे न्याय में देरी अपवाद के बजाय एक सामान्य स्थिति बन गई है। इस संकट के गंभीर निहितार्थ हैं—जनता का न्यायिक प्रणाली में विश्वास कमजोर होना, कानून के शासन का ह्रास और न्याय की समयबद्ध प्राप्ति की अपेक्षा रखने वाले वादियों (Plaintiffs ) की पीड़ा में वृद्धि।
- मामलों के शीघ्र निपटान को सुनिश्चित करने और न्यायिक विशेषज्ञता को बनाए रखने के प्रयास में, तदर्थ (ad hoc) न्यायाधीशों की नियुक्ति को एक संभावित समाधान के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि, प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या यह न्यायिक सुधार के लिए एक स्थायी और समग्र दृष्टिकोण है या केवल एक अस्थायी समाधान, जोकि प्रणालीगत अक्षमताओं को दूर करने में विफल रहता है?
न्यायिक लंबितता संकट (The Judicial Pendency Crisis):
भारत की न्यायपालिका में लंबित मामलों की संख्या अत्यधिक है, जो न्यायिक व्यवस्था के सभी स्तरों को प्रभावित कर रही है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, स्थिति अत्यंत चिंताजनक है:
- सर्वोच्च न्यायालय में 71,000 से अधिक मामले लंबित हैं।
- उच्च न्यायालयों पर लगभग 6 मिलियन मामलों का बोझ है।
- अधीनस्थ न्यायालयों को सबसे गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है, जहाँ 41 मिलियन से अधिक मामले निर्णय की प्रतीक्षा में हैं।
इस संकट में कई कारक योगदान करते हैं, जिनमें प्रक्रियागत देरी, अत्यधिक स्थगन (frequent adjournments), और कानूनी विवादों की बढ़ती जटिलता शामिल हैं। हालाँकि, सबसे गंभीर समस्या न्यायाधीशों की भारी कमी है। भारत के विधि आयोग के अनुसार, देश में प्रति मिलियन जनसंख्या पर मात्र 21 न्यायाधीश उपलब्ध हैं, जो विकसित देशों की तुलना में अत्यंत कम है।
विभिन्न सरकारों ने न्यायिक रिक्तियों को समय पर भरने के लिए संघर्ष किया है, जिससे न्याय प्रक्रिया बाधित हुई है। इस संदर्भ में, तदर्थ (ad hoc) न्यायाधीशों की नियुक्ति को न्यायिक संकट को कम करने के लिए एक व्यावहारिक समाधान के रूप में देखा जा रहा है।
तदर्थ न्यायाधीश: संवैधानिक समर्थन और नियुक्ति प्रक्रिया:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 224A तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान करता है। यह अनुच्छेद सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अस्थायी रूप से सेवा देने की अनुमति देता है, जिससे न्यायिक लंबित मामलों को निपटाने में सहायता मिलती है। हालाँकि, इन न्यायाधीशों की भूमिका स्थायी न होकर पूरक होती है, फिर भी वे वर्षों से लंबित मामलों के शीघ्र समाधान में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
नियुक्ति की प्रक्रिया कई स्तरों में होती है:
· उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (CJHC) लंबित मामलों की तात्कालिकता के आधार पर एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की सिफारिश करते हैं।
· राज्य सरकार (मुख्यमंत्री और राज्यपाल) प्रस्ताव की समीक्षा करती है और उसे आगे बढ़ाती है।
· केंद्रीय कानून मंत्रालय, प्रस्ताव को प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) से परामर्श करता है।
· भारत के राष्ट्रपति अंतिम स्वीकृति प्रदान करते हैं।
· राजपत्र अधिसूचना (Gazette Notification) के माध्यम से नियुक्ति को औपचारिक रूप से पुष्टि की जाती है।
हालाँकि यह प्रक्रिया नियुक्तियों की पारदर्शिता और निगरानी सुनिश्चित करती है तथा मनमाने चयन को रोकती है, लेकिन इसमें नौकरशाही की देरी भी शामिल होती है। न्यायिक संकट की तात्कालिकता को देखते हुए, तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति को अधिक प्रभावी बनाने के लिए एक सुव्यवस्थित और त्वरित तंत्र की आवश्यकता है।
तदर्थ नियुक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट का बदलता रुख:
सर्वोच्च न्यायालय ने तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति को विनियमित करने और उनकी प्रभावशीलता सुनिश्चित करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। लोक प्रहरी बनाम भारत संघ (2021) मामले में, न्यायालय ने तदर्थ नियुक्तियों के लिए स्पष्ट "ट्रिगर पॉइंट" निर्धारित किए:
- यदि रिक्तियां स्वीकृत संख्या के 20% से अधिक हों।
- यदि 10% से अधिक मामले पांच वर्ष से अधिक समय से लंबित हों।
- यदि मामलों के निपटान की दर, दाखिल किए जाने की दर से कम हो।
हालाँकि, जनवरी 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इन शर्तों में संशोधन किया। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने नए निर्देश प्रस्तुत किए:
- तदर्थ न्यायाधीश मुख्य रूप से आपराधिक अपीलों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
- वे न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करने के लिए स्थायी न्यायाधीशों के साथ बैठेंगे।
- 20% रिक्ति की सीमा में ढील दी गई, जिससे अधिक व्यापक नियुक्तियां संभव हो सकीं।
- तदर्थ न्यायाधीशों की संख्या उच्च न्यायालय की स्वीकृत संख्या के 10% तक सीमित होगी।
ये संशोधन न्यायपालिका द्वारा कार्यकुशलता और संस्थागत अखंडता बनाए रखने के बीच संतुलन स्थापित करने के प्रयास को दर्शाते हैं।
तदर्थ न्यायाधीशों की भूमिका:
लाभ और व्यावहारिक पहलू:
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के कई लाभ हैं, जो उन्हें न्यायिक संकट के समाधान के लिए एक व्यवहार्य अल्पकालिक उपाय बनाते हैं:
1. विशेषज्ञता और दक्षता – सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के पास व्यापक कानूनी अनुभव होता है, जिससे वे जटिल मामलों को अधिक दक्षता और त्वरित निर्णय क्षमता के साथ निपटाने में सक्षम होते हैं।
2. लागत-प्रभावशीलता – नए न्यायाधीशों की भर्ती और प्रशिक्षण की लंबी प्रक्रिया के विपरीत, तदर्थ नियुक्तियाँ समय और वित्तीय संसाधनों दोनों की बचत करती हैं।
3. लंबित मामलों में तत्काल कमी – लंबे समय से लंबित मामलों पर ध्यान केंद्रित करके, तदर्थ न्यायाधीश अत्यधिक बोझ से दबी न्यायपालिका को तात्कालिक राहत प्रदान करते हैं।
4. लचीली तैनाती – यह प्रणाली सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को आवश्यकतानुसार बुलाने की अनुमति देती है, जिससे न्यायिक पदों के स्थायी विस्तार की आवश्यकता कम हो जाती है।
खतरे: अस्थायी राहत या दीर्घकालिक निर्भरता?
अपने लाभों के बावजूद, तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कोई स्थायी समाधान नहीं है। इससे जुड़ी कुछ प्रमुख चिंताएँ इस प्रकार हैं:
- न्यायिक स्वतंत्रता पर खतरा – चूँकि तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका होती है, इसलिए राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना बनी रहती है।
- निरंतरता संबंधी मुद्दे – अस्थायी न्यायाधीश पूरे मुकदमे की देखरेख नहीं कर पाते, जिससे निर्णयों में असंगति (Inconsistency) आ सकती है।
- संरचनात्मक सुधारों में देरी – तदर्थ न्यायाधीशों पर अत्यधिक निर्भरता सरकार पर स्थायी न्यायिक रिक्तियों को भरने के दबाव को कम कर सकती है।
- संसाधन संबंधी बाधाएँ – तदर्थ न्यायाधीशों के लिए आवश्यक अतिरिक्त भत्ते और प्रशासनिक सहायता, दीर्घकालिक न्यायिक अवसंरचना के विकास के लिए आवंटित धन को प्रभावित कर सकते हैं।
आगे का रास्ता: तात्कालिक उपायों से आगे बढ़कर न्यायपालिका को मजबूत बनाना
तदर्थ नियुक्तियों को वास्तव में प्रभावी बनाने के लिए, उन्हें व्यापक न्यायिक सुधार रणनीति में एकीकृत किया जाना चाहिए। कुछ प्रमुख अनुशंसाएँ इस प्रकार हैं:
1. तदर्थ न्यायाधीशों के लिए ढांचे को मजबूत करना
· नियुक्तियों की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र समीक्षा बोर्ड की स्थापना करना।
· प्रदर्शन के आधार पर निश्चित अवधि (2-3 वर्ष) लागू करना।
· मामलों के सही तरीके से हस्तांतरण (case transition) को सुनिश्चित करने के लिए स्पष्ट नियम बनाना।
2. न्यायिक दक्षता के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना
· वास्तविक समय में प्रगति की निगरानी के लिए डिजिटल केस ट्रैकिंग सिस्टम लागू करना।
· वर्चुअल सुनवाई का विस्तार करना, खासकर आपराधिक और वाणिज्यिक मामलों में।
· मामले की समीक्षा में तेजी लाने के लिए न्यायाधीशों की सहायता हेतु एआई-आधारित कानूनी अनुसंधान उपकरणों का उपयोग करना।
3. न्यायिक क्षमता बढ़ाना
· तत्काल तैनाती के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का एक आरक्षित पैनल बनाए रखना।
· ऐसे मेंटरशिप कार्यक्रम स्थापित करें जहां न्यायिक व्याख्या में एकरूपता बनाए रखने के लिए तदर्थ न्यायाधीश स्थायी न्यायाधीशों के साथ मिलकर काम करें।
· बढ़ते मुकदमों के बोझ को पूरा करने के लिए उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में वृद्धि करना।
4. न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना
· तदर्थ न्यायाधीशों के चयन में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को रोकने के लिए न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जाना चाहिए।
· न्यायिक निष्ठा और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए नियमित रूप से निष्पादन समीक्षा आयोजित करना।
5. नीति एकीकरण और सतत वित्तपोषण
· समग्र न्यायिक दक्षता बढ़ाने के लिए तदर्थ नियुक्तियों को व्यापक विधायी और नीति सुधारों के साथ संरेखित करना।
· न्यायिक वेतन, बुनियादी ढांचे के विस्तार और तकनीकी प्रगति को संतुलित करने के लिए स्थायी वित्तपोषण सुरक्षित करना।
निष्कर्ष:
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के न्यायिक बैकलॉग (Judicial Backlog) का एक व्यावहारिक लेकिन अस्थायी समाधान है। हालाँकि उनकी विशेषज्ञता और दक्षता उन्हें मूल्यवान बनाती है, वे न्यायपालिका में आवश्यक प्रणालीगत सुधारों का विकल्प नहीं हो सकते। इसलिए, न्यायिक सुधारों के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। न्यायिक रिक्तियों को प्राथमिकता के साथ भरा जाना चाहिए ताकि स्थायी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जा सके। डिजिटल बुनियादी ढाँचे को मजबूत किया जाए, जिससे न्यायिक प्रक्रियाओं को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाया जा सके। न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा की जाए, ताकि कार्यपालिका का अनुचित हस्तक्षेप न हो और न्यायिक निर्णय स्वतंत्र रूप से लिए जा सकें।
इसके लिए न्यायपालिका को सावधानी से कदम उठाने चाहिए—तदर्थ नियुक्तियाँ न्यायिक दक्षता के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों का पूरक होनी चाहिए, न कि उनका विकल्प। यदि भारत लंबित मामलों के मूल कारणों को संबोधित करने में विफल रहता है, तो राष्ट्र एक अस्थायी उपाय को स्थायी सहारे में बदलने का जोखिम उठाता है, जिससे विलंबित न्याय का संकट और गहरा हो सकता है।
मुख्य प्रश्न: भारत में न्यायिक लंबित मामले अस्थायी संकट के बजाय एक संरचनात्मक मुद्दा है। न्यायिक लंबित मामलों में योगदान देने वाले प्रमुख कारकों पर चर्चा करें और इस संकट से निपटने में तदर्थ न्यायाधीशों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करें। |