न्यायिक अतिक्रमण एक ऐसा शब्द है जो उन परिस्थितियों को दर्शाता है जब न्यायपालिका अपनी सीमाओं से बाहर जाकर कार्य करती है और कार्यपालिका या विधायिका के पारंपरिक कार्यों में हस्तक्षेप करती है। भारत में न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिक्रमण के बीच की महीन रेखा लंबे समय से बहस का विषय रही है। जहाँ न्यायिक सक्रियता को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और न्याय सुनिश्चित करने का साधन माना जाता है, वहीं न्यायिक अतिक्रमण को शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के लिए खतरा माना जाता है, जो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का एक प्रमुख स्तंभ है।
हाल ही में, राज्यपालों द्वारा सुरक्षित रखे गए राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति को तीन महीने की समयसीमा निर्धारित करने वाला सुप्रीम कोर्ट का निर्देश, इस चर्चा को और तेज़ कर दिया हैं।
भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण:
भारतीय संविधान एक संरचनात्मक शक्तियों के पृथक्करण पर आधारित है, जहाँ:
• विधायिका कानून बनाती है।
• कार्यपालिका उन्हें लागू करती है।
• न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है और विवादों का निपटारा करती है।
हालाँकि भारत में अमेरिका की तरह कठोर पृथक्करण नहीं है, लेकिन एक कार्यात्मक विभाजन यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी संस्था अपनी संवैधानिक सीमाओं से बाहर न जाए। न्यायिक अतिक्रमण तब होता है जब न्यायपालिका शासन या नीति निर्माण के मामलों में हस्तक्षेप करती है और अपनी व्याख्यात्मक और निर्णयात्मक भूमिकाओं से आगे बढ़ जाती है।
न्यायपालिका का दायित्व यह सुनिश्चित करना है कि कानून और कार्यपालिका की कार्रवाई संविधान के अनुरूप हो। लेकिन जब न्यायपालिका, बिना किसी सक्षम कानून या लोकतांत्रिक विचार-विमर्श के अन्य संवैधानिक प्राधिकारियों को दिशा-निर्देश देने लगती है तो यह संस्थागत संतुलन के सिद्धांत को विकृत कर सकता है।
विलंबित विधेयकों पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: एक उदाहरण
इन संवैधानिक जटिलताओं को दर्शाने वाला हालिया उदाहरण सुप्रीम कोर्ट का 2024 का फैसला है, जिसमें राज्यपालों द्वारा सुरक्षित रखे गए राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति को तीन महीने की समयसीमा दी गई। अदालत ने यह भी कहा कि यदि इस अवधि से अधिक देरी होती है, तो उसका कारण रिकॉर्ड में दर्ज होना चाहिए और ऐसे विधेयकों को दोबारा पारित करने के बाद सुरक्षित रखने की कार्रवाई अमान्य मानी जाएगी।
हालाँकि इसका उद्देश्य संघीय दक्षता को बनाए रखना और विधायी ठहराव को रोकना था, लेकिन इस फैसले ने कार्यपालिका की समय-सीमा और विवेकाधिकार में न्यायिक हस्तक्षेप पर गंभीर चिंता उत्पन्न की। इस निर्देश को न्यायिक अतिक्रमण का एक उदाहरण मानने के कई कारण है:
• राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है, जिनके पास विवेकाधिकार होता है, जिसे न्यायिक समय-सीमा से बाधित नहीं किया जा सकता।
• राष्ट्रपति को बाध्यकारी निर्देश देना संवैधानिक पदाधिकारियों के बीच संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
• न्यायपालिका द्वारा समयसीमा निर्धारित करना कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप है, जबकि इसे समर्थन देने वाला कोई वैधानिक ढांचा मौजूद नहीं है।
यह निर्णय इस बात पर गहन विचार करने के लिए प्रेरित करता है कि न्यायिक समीक्षा कितनी दूर जा सकती है, इससे पहले कि वह हस्तक्षेप बन जाए—जो कि न्यायिक अतिक्रमण पर चल रही बहस का केंद्रीय विषय है।
पहलू |
न्यायिक सक्रियता |
न्यायिक अतिक्रमण |
उद्देश्य |
न्याय को सुनिश्चित करना |
अति-सक्रिय होकर दायरे से बाहर जाना |
वैधता |
संविधान के अनुसार |
सीमाओं का उल्लंघन |
उदाहरण |
पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकार |
नीति निर्धारण में हस्तक्षेप |
प्रभाव |
सकारात्मक |
लोकतांत्रिक संतुलन पर खतरा |
न्यायिक अतिक्रमण के अन्य प्रमुख उदाहरण:
1. श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2018): सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया था, जिसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक नीति जो कार्यपालिका का क्षेत्र है, में हस्तक्षेप माना गया।
2. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) निर्णय (2015): न्यायिक नियुक्तियों में सुधार के लिए किए गए संवैधानिक संशोधन को खारिज कर दिया गया, जिसे न्यायपालिका के संस्थागत हितों की रक्षा और व्यापक जवाबदेही को नजरअंदाज़ करने के रूप में देखा गया।
3. हाईवे पर शराब बिक्री प्रतिबंध (2016): सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय राजमार्गों से 500 मीटर के भीतर शराब बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे राज्य की राजस्व नीति और स्वायत्तता पर गंभीर प्रभाव पड़ा। यह निर्णय सड़क सुरक्षा से संबंधित कमजोर तर्कों पर आधारित था।
4. जॉली एलएलबी II केस (2021): बॉम्बे हाई कोर्ट ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा प्रमाणित फिल्म की समीक्षा के लिए समिति नियुक्त कर दी, जिसे नियामक प्राधिकरण के क्षेत्र में न्यायिक हस्तक्षेप माना गया।
अनुच्छेद 142 की भूमिका और संस्थागत जवाबदेही:
अनुच्छेद 142 का उपयोग, जो सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” के लिए आवश्यक आदेश पारित करने का अधिकार देता है, न्यायपालिका की कार्यात्मक पहुँच को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका है।
हालाँकि यह अक्सर असाधारण परिस्थितियों में उचित ठहराया जाता है, लेकिन बार-बार इस पर निर्भरता कुछ संरचनात्मक चिंताओं को जन्म देती है:
• यह विधायी या कार्यपालिका ढांचे को दरकिनार कर सकता है, जिससे न्यायालय बिना वैधानिक प्रतिबंधों के कार्य कर सकता है।
• यह बिना किसी लोकतांत्रिक बहस या संस्थागत नियंत्रण के बाध्यकारी मानदंड बना सकता है।
साथ ही, हाल के वर्षों में न्यायिक जवाबदेही के सवाल भी उठे हैं। आंतरिक जांच और नैतिक मानकों से संबंधित मामलों में न्यायपालिका की बाहरी निरीक्षण से अपेक्षाकृत स्वतंत्रता, जवाबदेही की कमी को दर्शाती है। आलोचकों का मानना है कि न्यायिक स्वतंत्रता तभी सार्थक और वैध हो सकती है, जब उसके साथ पारदर्शी संस्थागत व्यवस्था भी हो।
संघवाद और शासन व्यवस्था में परस्पर हितों का टकराव:
- राष्ट्रपति की स्वीकृति पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश संघवाद के दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। राज्य विधेयकों पर राज्यपालों द्वारा विलंब एक बार-बार सामने आने वाली समस्या रही है, जिससे शासन प्रणाली बाधित होती रही है। इस संदर्भ में, न्यायपालिका का हस्तक्षेप राज्य विधायिका की अधिकारिता को सशक्त करने और केंद्र के हस्तक्षेप को रोकने के रूप में देखा जा सकता है।
- हालाँकि, राष्ट्रपति जो मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं, पर सख्त समयसीमा लागू करना न्यायपालिका में शक्ति का केंद्रीकरण कर सकता है और कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्ति को सीमित कर सकता है। इससे न्यायिक समीक्षा का स्वरूप संवैधानिक सुरक्षा उपाय से एक पर्यवेक्षी तंत्र में बदल सकता है, जिससे सरकार की शाखाओं के बीच संतुलन प्रभावित हो सकता है।
न्यायिक संयम:अतिक्रमण का समाधान
न्यायिक संयम का अर्थ है कि न्यायपालिका को आत्मानुशासन अपनाना चाहिए और नीति-निर्धारण के क्षेत्रों में हस्तक्षेप से बचना चाहिए। यह सिद्धांत न्यायिक निष्क्रियता नहीं, बल्कि संस्थागत भूमिकाओं के सम्मान और न्यायपालिका द्वारा शासन की भूमिका न निभाने की बात करता है। ऐतिहासिक निर्णय, जैसे कि:
· अयोध्या मामला (2019), जिसमें न्यायालय ने भावनाओं के बजाय साक्ष्य के आधार पर निर्णय दिया।
· इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2011), जिसमें चिकित्सा शिक्षा के नियमन से संबंधित निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया गया।
ये ऐसे उदाहरण हैं जहाँ न्यायिक संयम अपनाया गया और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अपना कार्य करने दिया गया। ऐसे दृष्टिकोण न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाए रखते हैं और लोकतंत्र को सुदृढ़ करते हैं।
निष्कर्ष:
भारत की संवैधानिक व्यवस्था में न्यायिक अतिक्रमण एक विवादास्पद और विकसित होता विषय बना हुआ है। राष्ट्रपति की स्वीकृति पर समयसीमा निर्धारित करने वाला हालिया निर्देश शासन की अक्षमता को दूर करने के लिए न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाता है, लेकिन यह संवैधानिक सीमाओं और संघीय संतुलन को लेकर गंभीर सवाल भी खड़ा करता है। जहाँ न्यायिक समीक्षा संविधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए अनिवार्य है, वहीं यह आपसी सम्मान और संयम के ढाँचे में ही संचालित होनी चाहिए। जैसे-जैसे भारत का लोकतंत्र परिपक्व होता जा रहा है, सभी संस्थाओं, विशेष रूप से न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है। एक गहन और पारदर्शी संवाद आवश्यक है ताकि न्यायिक हस्तक्षेप संतुलित, लोकतांत्रिक रूप से उचित और संविधान की आत्मा के अनुरूप हो। तभी न्यायपालिका संविधानिक नैतिकता की संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका बनाए रख सकती है, बिना लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के मूल सिद्धांतों को प्रभावित किए।
मुख्य प्रश्न: संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायिक सक्रियता आवश्यक है, लेकिन न्यायिक अतिक्रमण शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करता है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देशों के संदर्भ में इस कथन की समालोचनात्मक विवेचना कीजिए। |