सन्दर्भ:
भारत ने वैश्विक जलवायु शासन में एक महत्वपूर्ण हितधारक के रूप में अपनी पहचान बनाई है। जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए भारत ने एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है, जोकि विकास संबंधी प्राथमिकताओं और पर्यावरणीय उत्तरदायित्वों के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह लेख वैश्विक जलवायु वार्ताओं में भारत की यात्रा, जलवायु वित्त में उसकी भूमिका और पार्टियों के सम्मेलन (COP) के साथ इसके संबंधों का विश्लेषण करता है।
जलवायु कार्रवाई के प्रति भारत का ऐतिहासिक दृष्टिकोण:
- भारत की वैश्विक जलवायु शासन में भागीदारी 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन से प्रारंभ होती है। इस सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण संरक्षण और गरीबी उन्मूलन के बीच संतुलन की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा था:
"हम पर्यावरण को और अधिक खराब नहीं करना चाहते हैं, लेकिन हम लाखों लोगों की भयंकर गरीबी को भी नहीं भूल सकते।" - प्रारंभिक वर्षों में, पर्यावरण संरक्षण को आर्थिक विकास और औद्योगीकरण में बाधा के रूप में देखा गया, जो गरीबी उन्मूलन और मानव विकास के लिए आवश्यक थे। बाद में, सतत विकास की अवधारणा, जोकि आर्थिक प्रगति और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करती है, ने भारत के रुख को प्रभावित किया।
- भारत ने साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियां (Common but Differentiated Responsibilities - CBDR) और जलवायु न्याय के सिद्धांतों को वैश्विक जलवायु वार्ताओं में एक स्थायी दृष्टिकोण के रूप में प्रस्तुत किया है। इन सिद्धांतों पर आधारित भारत का रुख विकासशील देशों की सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं के प्रति गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
जलवायु परिवर्तन में भारत का योगदान:
21वीं सदी में सक्रिय भागीदारी:
- 2000 के दशक के प्रारंभ में भारत की जलवायु वार्ता में भागीदारी में महत्वपूर्ण बदलाव आया। 2002 में नई दिल्ली में COP8 की मेज़बानी ने भारत की जलवायु शासन में बढ़ती भूमिका को प्रदर्शित किया। 2008 में, भारत ने राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) पेश की, जिसमें सतत विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित किया गया।
- 2015 में पेरिस समझौते के तहत वैश्विक जलवायु शासन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जिसमें देशों को अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को निर्धारित करने का अधिकार मिला। भारत ने इस ढांचे को अपनाते हुए 2015 में अपना पहला राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) प्रस्तुत किया और 2022 में इसे अद्यतन किया। ये प्रतिबद्धताएँ वैश्विक जलवायु आंदोलन में भारत की सक्रिय भूमिका को दर्शाती हैं।
जलवायु लक्ष्य और उपलब्धियाँ:
भारत के अद्यतन एनडीसी (2022) में महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों की रूपरेखा दी गई है, जिनमें प्रमुख हैं:
- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 33-35% तक कम करना (निर्धारित समय से पहले हासिल किया गया)।
- गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से 40% संचयी विद्युत शक्ति क्षमता प्राप्त करना (लक्ष्य पार किया गया)।
भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल के तहत कार्बन ट्रेडिंग तंत्र में भी प्रमुख भागीदार के रूप में भाग लिया, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ इसके स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) पहलों का 50% हिस्सा हैं।
COP29 में भारत का रुख:
· बाकू, अज़रबैजान में आयोजित COP29 में भारत ने न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (NCQG) को अस्वीकार कर दिया, यह तर्क देते हुए कि यह वैश्विक दक्षिण की आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से पूरा करने में विफल है। NCQG का लक्ष्य 2035 तक विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई के लिए सालाना कम से कम 300 बिलियन डॉलर जुटाना था, जिसमें विकसित देश सबसे अधिक योगदान देंगे।
· भारत ने शीर्ष-से-नीचे “जस्ट ट्रांजिशन” दृष्टिकोण का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि इस तरह के उपाय जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) और पेरिस समझौते के सिद्धांतों के विपरीत हैं। भारत ने दोहराया कि जलवायु कार्रवाई को सीबीडीआर सिद्धांतों के साथ संरेखित किया जाना चाहिए और वैश्विक दक्षिण की विकासात्मक प्राथमिकताओं का सम्मान करना चाहिए।
· भारत की वार्ताकार चांदनी रैना ने निर्णय लेने में समावेशिता की कमी की आलोचना करते हुए सहयोग और विश्वास की आवश्यकता पर जोर दिया। नाइजीरिया सहित अन्य विकासशील देशों ने भारत की आपत्तियों का समर्थन किया।
जलवायु वित्त में भारत की बढ़ती भूमिका
प्राप्तकर्ता और योगदानकर्ता:
भारत वैश्विक जलवायु वित्त का लाभार्थी और योगदानकर्ता दोनों रहा है। वैश्विक कार्बन क्रेडिट बाजार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 31% है, और इसने नवीकरणीय ऊर्जा में बदलाव के लिए स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) जैसी पहलों का लाभ उठाया है। 2022 में, भारत ने अन्य विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त में 1.28 बिलियन डॉलर का योगदान दिया, जोकि दक्षिण-दक्षिण सहयोग में इसके नेतृत्व को दर्शाता है।
ऊर्जा परिवर्तन में चुनौतियाँ:
प्रगति के बावजूद, भारत को जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करने में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जोकि इसकी ऊर्जा आवश्यकताओं का 78% हिस्सा है। स्थिर ऊर्जा संक्रमण को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त निवेश, तकनीकी प्रगति और क्षमता निर्माण प्रयासों की आवश्यकता होती है।
वैश्विक जलवायु पहल में भारत का नेतृत्व:
अभिनव जलवायु कार्रवाई कार्यक्रम
भारत ने कई अंतर्राष्ट्रीय पहलों का नेतृत्व किया है, जिनमें शामिल हैं:
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA): वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा अपनाने को बढ़ावा देना।
- पर्यावरण के लिए जीवनशैली (LiFE): टिकाऊ जीवनशैली प्रथाओं का समर्थन करना।
- मैंग्रोव जलवायु गठबंधन: मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा और पुनर्स्थापना।
ये पहल वैश्विक जलवायु नेतृत्व के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती हैं।
जलवायु समूहों के साथ सहभागिता:
भारत जी-77, समान विचारधारा वाले विकासशील देशों (LMDC) और BASIC समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन) जैसे गठबंधनों में सक्रिय रूप से भाग लेता है तथा समतापूर्ण जलवायु वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की वकालत करता है। जलवायु मुद्दों को व्यापक वैश्विक एजेंडा में एकीकृत करने के लिए भारत जी-20, BRICS और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे गैर-जलवायु मंचों का भी लाभ उठाता है।
जलवायु परिवर्तन और विकास का अंतर्संबंध:
जलवायु परिवर्तन वैश्विक स्तर पर अनेक गंभीर चुनौतियों से जुड़ा हुआ है, जिनमें प्रवास, प्राकृतिक आपदाएँ और जैव विविधता का क्षय प्रमुख हैं। भारत, जोकि अपनी विविध जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाली चरम मौसम की घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित है, COP29 के दौरान स्थापित हानि और क्षति कोष से महत्वपूर्ण लाभ उठा सकता है। इस कोष का मुख्य उद्देश्य उन देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण असमान रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
आगे की राह: महत्वाकांक्षा और समानता में संतुलन
वैश्विक जलवायु शासन में भारत का बढ़ता प्रभाव उसे विकसित और विकासशील देशों के बीच सेतु के रूप में स्थापित करता है। हालांकि, भारत के लिए अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को सशक्त बनाने हेतु कई कदम उठाना आवश्यक है:
1. उन्नत जलवायु वित्त जुटाना: नवीकरणीय ऊर्जा और क्षमता निर्माण में तेजी लाने के लिए निवेश को बढ़ाना।
2. मजबूत अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन: समान जलवायु कार्रवाई को बढ़ावा देने हेतु विकासशील देशों के साथ सहयोग को सशक्त करना।
3. एकीकृत जलवायु नीति: सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय नीतियों को वैश्विक प्रतिबद्धताओं के साथ समन्वित करना।
निष्कर्ष:
29वें सीओपी के समापन के साथ, वैश्विक जलवायु शासन में भारत की भूमिका एक सतर्क भागीदार से एक सक्रिय नेता के रूप में बदलती हुई प्रतीत होती है। सीबीडीआर और सतत विकास के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित, भारत अपनी आबादी की विकासात्मक आकांक्षाओं को पूरा करते हुए न्यायसंगत जलवायु कार्रवाई का समर्थन करता रहा है। अपनी रणनीतिक पहलों और बढ़ते प्रभाव के साथ, भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच की खाई को पाटने, समानता, वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग को बढ़ावा देने के लिए एक मजबूत स्थिति में है। अपनी प्रतिबद्धताओं को मजबूत करके और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का प्रभावी उपयोग करके, भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई का नेतृत्व कर सकता है, जिससे सभी के लिए एक न्यायपूर्ण और टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।
संभावित यूपीएससी मुख्य प्रश्न भारत को अपने ऊर्जा परिवर्तन में किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, और भारत अपने जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन चुनौतियों से कैसे निपट सकता है? भारत में पर्याप्त निवेश, तकनीकी उन्नति और क्षमता निर्माण प्रयासों की आवश्यकता पर चर्चा करें। |